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स्पेशल स्टोरी: दिपावली के बीच कुछ यूं खत्म हो रही है कुंभकारों की हजारों साल पुरानी पुश्तैनी कला - BHARATPUR NEWS IN HINDI

दिपावली का त्यौहार आते ही घरों और बाजारों में रौनक दिखने लगती है. लेकिन अब बाजारों में बिक रहे आकर्षक झालरों और चाइनीज समानों की वजह से कुंभकार बेरोजगार हो रहे है. पूरा देश तो रौशन होता है लेकिन सालों के मिट्टी के दीये बनाने वाले कुंभकारों के पेट में भूख की रौशनी कम ही नसीब होती है.

Thousands of years old art, खत्म हो रही है कुंभकारों की कला
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Published : Oct 23, 2019, 11:46 PM IST

भरतपुर. दिपावली का त्यौहार नजदीक आते ही मिट्टी के दीये बनाने वाले कुंभकारों के घरों में हलचल शुरू हो जाती है. सुबह से शाम तक ऐसे ही यहचक्कर घूमता रहता है. लेकिन पिछले कुछ सालों से अब इन कुंभकारों के व्यवसाय पर संकट मंडरा रहा है. लोग बाजारों में बिक रही आकर्षक झालरों और चाइनीच समानों की तरफ तेजी से आकर्षित हो रहे हैं. यही वजह है कि अब ये परिवार बेरोजगार हो रहे हैं.

खत्म हो रही है कुंभकारों की हजारों साल पुरानी पुश्तैनी कला.

कुंभकार पप्पू और परमेश सालों से मिट्टी के दीए और बर्तन बनाने का काम करते आए हैं. लेकिन अब वो कहते हैं ये काम हम अपने बच्चों को विरासत में नहीं देना चाहते. क्योंकि जो लागन और मेहनत होती है वह भी हमें नहीं मिल पाती.

पप्पू और परमेश कहते हैं कि इन दीयो को बनाने के लिए मिट्टी अब मुश्किल से मिलती है. जो मिट्टी 5 साल पहले 600 रुपये की ट्रॉली भर मिलती थी वह अब 3500 रुपये मिलती है. इन्हें पकाने के लिए उपयोग में होने वाले उपलों के भी दाम बढ़ चुके हैं.

ये भी पढ़ें: दीपावली विशेष : मंदी का असर चांदी के सिक्कों पर भी, मांग कम होने से उत्पादन में आ रही कमी

दीपावली का त्योहार पास आते ही कुंभकार परिवारों को आस रहती थी कि उनके व्यापर में बढ़ोत्तरी होगी. लेकिन अब उनके चेहरे पर चिंता की लकीरे छाई हुई हैं. इन्हें अब लगता है कि चाईनीज समान के आगे उनका व्यवसाय अब खत्म होने के कगार पर है. हलांकि, इन परिवारों को लगता है कि अगर सरकार उन्हें सहयोग करे तो उनकी यह पुश्तैनी परंपरा आगे भी जीवित रह सकेगी.

भरतपुर. दिपावली का त्यौहार नजदीक आते ही मिट्टी के दीये बनाने वाले कुंभकारों के घरों में हलचल शुरू हो जाती है. सुबह से शाम तक ऐसे ही यहचक्कर घूमता रहता है. लेकिन पिछले कुछ सालों से अब इन कुंभकारों के व्यवसाय पर संकट मंडरा रहा है. लोग बाजारों में बिक रही आकर्षक झालरों और चाइनीच समानों की तरफ तेजी से आकर्षित हो रहे हैं. यही वजह है कि अब ये परिवार बेरोजगार हो रहे हैं.

खत्म हो रही है कुंभकारों की हजारों साल पुरानी पुश्तैनी कला.

कुंभकार पप्पू और परमेश सालों से मिट्टी के दीए और बर्तन बनाने का काम करते आए हैं. लेकिन अब वो कहते हैं ये काम हम अपने बच्चों को विरासत में नहीं देना चाहते. क्योंकि जो लागन और मेहनत होती है वह भी हमें नहीं मिल पाती.

पप्पू और परमेश कहते हैं कि इन दीयो को बनाने के लिए मिट्टी अब मुश्किल से मिलती है. जो मिट्टी 5 साल पहले 600 रुपये की ट्रॉली भर मिलती थी वह अब 3500 रुपये मिलती है. इन्हें पकाने के लिए उपयोग में होने वाले उपलों के भी दाम बढ़ चुके हैं.

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दीपावली का त्योहार पास आते ही कुंभकार परिवारों को आस रहती थी कि उनके व्यापर में बढ़ोत्तरी होगी. लेकिन अब उनके चेहरे पर चिंता की लकीरे छाई हुई हैं. इन्हें अब लगता है कि चाईनीज समान के आगे उनका व्यवसाय अब खत्म होने के कगार पर है. हलांकि, इन परिवारों को लगता है कि अगर सरकार उन्हें सहयोग करे तो उनकी यह पुश्तैनी परंपरा आगे भी जीवित रह सकेगी.

Intro:स्पेशल स्टोरी

भरतपुर 
एंकर- दीपों के त्यौहार दीपावली पर घर-घर में मिट्टी के दीपक में तेल और बाती से जगमग रोशनी हुआ करती थी... लेकिन वह रौशनी अब धीरे धीरे ख़त्म होने की कगार पर है... और लोग मिट्टी के दियो की जगह चाइना के आइटमों की तरफ आकर्षित हो रहे है... पहले प्रजापत समाज के लोग दीपावली के सीजन में करीब 10 लाख दिए बनाते थे क्युकी बाजार में उनकी डिमांड भी हुआ करती थी लेकिन अब वह डिमांड धीरे धीरे ख़त्म होती है जा रही है और दीपको की संख्या 10 लाख से 10 हज़ार पर पहुंच गई है... पहले दीपावली का त्योहार पास आते ही कुम्हारों को आस रहती थी उनके व्यापर में बढ़ोत्तरी होगी लेकिन अब उनकी चेहरे पर चिंता की लकीरे छाई हुई है क्युकी अब धीरे धीरे उनका व्यापर और कला ख़त्म होती जा रही है अगर प्रजापत समाज का ये व्यापर ख़त्म हो जाता है तो वह अपने परिवार का लालन पोषण भी नहीं कर पाएंगे जो दीपावली उनके लिए पहले खुशियाँ लेकर आती थी वही दीपावली पर कुम्हारों के चेहरे लटके हुए दिखाई देते है... 
  दियो की काम बिक्री होने का एक कारण यह भी है अब कुम्हारों को आसानी से मिटटी नहीं मिलती जो मिटटी आज से 05 साल पहले 600 रूपये की ट्रॉली आती थी वही अब मिटटी की ट्रॉली 3500 रूपये की आती है और तो और वह भी आसानी से नहीं मिलती कुम्हार दियो के लिए शहर के बहार से मिटटी मंगवा रहे है जिससे वह और भी महंगी हो जाती है इसके अलावा दियो को पकाने के लिए उपलों की जरुरत पड़ती है जिसका उन्हें अब  पहले की अपेक्षा ज्यादा दाम देना पड़ता है.... 
   कुम्भकार अब आस लगाकर बैठे यही की सरकार उनके परंपरागत पुश्तैनी काम को बढ़ाने के लिए सहयोग करें।  ताकि उनकी कला जीवित रहे...  गरीबी की मार झेल रहे कुम्हार अब तो मजदूरी करने के लिए दूसरों पर आश्रित रहने लग गए है... उनका मानना है कि यदि सरकार उनकी मदद करे तो उनकी कला जीवित रह सकती है... 
पीटीसी


Body:बिलुप्त होने की कगार पर कुंभकारों की कला और व्यापार


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