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RTI के दायरे में होगा CJI कार्यालय : SC की संविधान पीठ ने सुनाया फैसला - आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल

सीजेआई रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ CJI कार्यालय को सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनाया है. जानें पूरा विवरण

सुप्रीम कोर्ट
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Published : Nov 13, 2019, 6:01 AM IST

Updated : Nov 16, 2019, 6:03 PM IST

नई दिल्ली : सीजेआई रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ CJI कार्यालय को सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनाया है.

फैसले का बिंदुवार विवरण

  • सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. 3:2 के बहुमत से सुनाया फैसला.
  • प्रधान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने एक फैसला लिखा.
  • न्यायमूर्ति एन वी रमण और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ ने अलग निर्णय लिखे.
  • शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय एक पब्लिक अथॉरिटी है.
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कॉलेजियम द्वारा सिफारिश किए गए नामों का खुलासा किया जा सकता है. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि सिफारिश के कारणों का खुलासा नहीं किया जा सकता.
  • आजादी प्रभावित न होने का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पारदर्शिता की बात करते समय न्यायिक आजादी का भी ख्याल रखा जाना चाहिए.
  • पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को सही ठहराया.

जिस संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना भी शामिल हैं.

उच्चतम न्यायालय की पीठ ने फैसला देते हुए आगाह किया कि सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने कहा कि निजता का अधिकार एक महत्वपूर्ण पहलू है, और प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय से जानकारी देने के बारे में निर्णय लेते समय निजता और पारदर्शिता के बीच संतुलन कायम करना होगा.

88 पेज के इस फैसले को 2010 में प्रधान न्यायाधीश रहे केजी बालाकृष्ण के लिये व्यक्तिगत रूप से एक झटका माना जा रहा है क्योंकि वह सूचना के अधिकार कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना की जानकारी देने के पक्ष में नहीं थे.

आरटीआई कार्यकर्ताओं ने शीर्ष न्यायालय के इस फैसले की सराहना की और साथ ही कहा कि 'कानून से ऊपर कोई नहीं है.' सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने फैसले का स्वागत किया है. उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने सबसे अहम बात कही है कि सूचना का अधिकार मौलिक अधिकार है. सुभाष अग्रवाल द्वारा मांगी गई सूचना पर प्रशांत भूषण ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सूचना देनी होगी.

प्रशांत भूषण ने कहा कि जजों की नियुक्ति पर कॉलेजियम में हुई चर्चा को सार्वजनिक करने की मांग की गई थी. उन्होंने बताया कि इस सवाल पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि ये सूचना दी जानी चाहिए, इसे छिपाना नहीं चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की प्रतिक्रिया

आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है. ईटीवी भारत से बात करते हुए सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा कि ये पारदर्शिता के दौर में एक ऐतिहासिक फैसला है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही जन सूचना पदाधिकारी के खिलाफ फैसला सुनाया है.

फैसले पर आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल की प्रतिक्रिया

सुभाष अग्रवाल ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया आरटीआई के दायरे में नहीं आती है. सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक जानकारियों को आरटीआई के दायरे में करार दिया है.

बता दें कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने उच्च न्यायालय और केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के आदेशों के खिलाफ 2010 में शीर्ष अदालत के महासचिव और केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी द्वारा दायर अपीलों पर गत चार अप्रैल को निर्णय सुरक्षित रख लिया था.

प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने सुनवाई पूरी करते हुए कहा था कि कोई भी 'अपारदर्शिता की व्यवस्था' नहीं चाहता, लेकिन पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नष्ट नहीं किया जा सकता.

इसने कहा था, 'कोई भी अंधेरे की स्थिति में नहीं रहना चाहता या किसी को अंधेरे की स्थिति में नहीं रखना चाहता. आप पारदर्शिता के नाम पर संस्था को नष्ट नहीं कर सकते.'

दिल्ली उच्च न्यायालय ने 10 जनवरी 2010 को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय आरटीआई कानून के दायरे में आता है. उच्च न्यायालय ने कहा था कि न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी गयी है.

पढ़ें- जानिए क्या है आरटीआई और क्यों है मुख्य न्यायाधीश इसके दायरे से बाहर

इस 88 पृष्ठ के फैसले को तब तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के लिए निजी झटके के रूप में देखा गया था जो आरटीआई कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना का खुलासा किए जाने के विरोध में थे.

उच्च न्यायालय ने शीर्ष अदालत की इस दलील को खारिज कर दिया था कि सीजेआई कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाए जाने से न्यायिक स्वतंत्रता 'बाधित' होगी.

(एक्सट्रा इनपुट- भाषा)

नई दिल्ली : सीजेआई रंजन गोगोई के नेतृत्व वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ CJI कार्यालय को सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के दायरे में बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने ये फैसला दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनाया है.

फैसले का बिंदुवार विवरण

  • सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. 3:2 के बहुमत से सुनाया फैसला.
  • प्रधान न्यायाधीश, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने एक फैसला लिखा.
  • न्यायमूर्ति एन वी रमण और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ ने अलग निर्णय लिखे.
  • शीर्ष अदालत ने कहा कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय एक पब्लिक अथॉरिटी है.
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कॉलेजियम द्वारा सिफारिश किए गए नामों का खुलासा किया जा सकता है. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि सिफारिश के कारणों का खुलासा नहीं किया जा सकता.
  • आजादी प्रभावित न होने का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पारदर्शिता की बात करते समय न्यायिक आजादी का भी ख्याल रखा जाना चाहिए.
  • पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को सही ठहराया.

जिस संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना भी शामिल हैं.

उच्चतम न्यायालय की पीठ ने फैसला देते हुए आगाह किया कि सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता. कोर्ट ने कहा कि निजता का अधिकार एक महत्वपूर्ण पहलू है, और प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय से जानकारी देने के बारे में निर्णय लेते समय निजता और पारदर्शिता के बीच संतुलन कायम करना होगा.

88 पेज के इस फैसले को 2010 में प्रधान न्यायाधीश रहे केजी बालाकृष्ण के लिये व्यक्तिगत रूप से एक झटका माना जा रहा है क्योंकि वह सूचना के अधिकार कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना की जानकारी देने के पक्ष में नहीं थे.

आरटीआई कार्यकर्ताओं ने शीर्ष न्यायालय के इस फैसले की सराहना की और साथ ही कहा कि 'कानून से ऊपर कोई नहीं है.' सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने फैसले का स्वागत किया है. उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत ने सबसे अहम बात कही है कि सूचना का अधिकार मौलिक अधिकार है. सुभाष अग्रवाल द्वारा मांगी गई सूचना पर प्रशांत भूषण ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सूचना देनी होगी.

प्रशांत भूषण ने कहा कि जजों की नियुक्ति पर कॉलेजियम में हुई चर्चा को सार्वजनिक करने की मांग की गई थी. उन्होंने बताया कि इस सवाल पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि ये सूचना दी जानी चाहिए, इसे छिपाना नहीं चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण की प्रतिक्रिया

आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है. ईटीवी भारत से बात करते हुए सुभाष चंद्र अग्रवाल ने कहा कि ये पारदर्शिता के दौर में एक ऐतिहासिक फैसला है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही जन सूचना पदाधिकारी के खिलाफ फैसला सुनाया है.

फैसले पर आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल की प्रतिक्रिया

सुभाष अग्रवाल ने कहा कि न्यायिक प्रक्रिया आरटीआई के दायरे में नहीं आती है. सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक जानकारियों को आरटीआई के दायरे में करार दिया है.

बता दें कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने उच्च न्यायालय और केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) के आदेशों के खिलाफ 2010 में शीर्ष अदालत के महासचिव और केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी द्वारा दायर अपीलों पर गत चार अप्रैल को निर्णय सुरक्षित रख लिया था.

प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ ने सुनवाई पूरी करते हुए कहा था कि कोई भी 'अपारदर्शिता की व्यवस्था' नहीं चाहता, लेकिन पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका को नष्ट नहीं किया जा सकता.

इसने कहा था, 'कोई भी अंधेरे की स्थिति में नहीं रहना चाहता या किसी को अंधेरे की स्थिति में नहीं रखना चाहता. आप पारदर्शिता के नाम पर संस्था को नष्ट नहीं कर सकते.'

दिल्ली उच्च न्यायालय ने 10 जनवरी 2010 को एक ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय आरटीआई कानून के दायरे में आता है. उच्च न्यायालय ने कहा था कि न्यायिक स्वतंत्रता किसी न्यायाधीश का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि उन्हें इसकी जिम्मेदारी सौंपी गयी है.

पढ़ें- जानिए क्या है आरटीआई और क्यों है मुख्य न्यायाधीश इसके दायरे से बाहर

इस 88 पृष्ठ के फैसले को तब तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन के लिए निजी झटके के रूप में देखा गया था जो आरटीआई कानून के तहत न्यायाधीशों से संबंधित सूचना का खुलासा किए जाने के विरोध में थे.

उच्च न्यायालय ने शीर्ष अदालत की इस दलील को खारिज कर दिया था कि सीजेआई कार्यालय को आरटीआई के दायरे में लाए जाने से न्यायिक स्वतंत्रता 'बाधित' होगी.

(एक्सट्रा इनपुट- भाषा)

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CJI under RTI Act: SC to pronounce verdict tomorrow
          New Delhi, Nov 12 (PTI) The Supreme Court will pronounce on Wednesday its verdict on petitions challenging the Delhi High Court decision bringing the office of the chief justice of India (CJI) under the ambit of the Right to Information (RTI) Act.
          A five-judge constitution bench headed by Chief Justice Ranjan Gogoi will pronounce the judgement at 2 pm. Other members of the bench are Justices N V Ramana, D Y Chandrachud, Deepak Gupta and Sanjiv Khanna.
          The notice regarding the pronouncement of the judgement was made public on the apex court's official website on Tuesday afternoon.
          A five-judge constitution bench had on April 4 reserved its verdict on the appeals filed in 2010 by the Supreme Court secretary general and its central public information officer against the high court and the central information commission's (CIC's) orders.
          The bench, headed by the chief justice, had wrapped up the hearing, saying nobody wants a "system of opaqueness", but the judiciary cannot be destroyed in the name of transparency.
          "Nobody wants to remain in the state of darkness or keep anybody in the state of darkness," it had said. "The question is drawing a line. In the name of transparency, you can't destroy the institution."
          In a landmark verdict on January 10, 2010, the Delhi High Court had held that the office of the chief justice of India comes within the ambit of the Right to Information (RTI) law, saying judicial independence was not a judge's privilege, but a responsibility cast upon him.
          The 88-page judgement was then seen as a personal setback to the then CJI, K G Balakrishnan, who has been opposed to disclosure of information relating to judges under the RTI Act.
          The high court verdict was delivered by a three-judge bench comprising Chief Justice A P Shah (since retired) and Justices Vikramjit Sen and S Muralidhar. The bench had dismissed a plea of the Supreme Court that contended bringing the CJI's office within the RTI Act would "hamper" judicial independence.
          Justice Sen retired as the judge of the apex court, while Justice Murlidhar is a sitting judge of the high court.
          The move to bring the office of the CJI under the transparency law was initiated by RTI activist S C Agrawal. His lawyer Prashant Bhushan had submitted in the top court that though the apex court should not have been judging its own cause, it is hearing the appeals due to "doctrine of necessity".
          The lawyer had described the reluctance of the judiciary in parting information under the Right To Information Act as "unfortunate" and "disturbing", asking: "Do judges inhabit different universe?"
          He had submitted that the apex court has always stood for transparency in functioning of other organs of State, but it develops cold feet when its own issues require attention.
          Referring to the RTI provisions, Bhushan had said they also deal with exemptions and information that cannot be given to applicants, but the public interest should always "outweigh" personal interests if the person concerned is holding or about to hold a public office.
          Dealing with "judicial independence", he said the National Judicial Accountability Commission Act was struck down for protecting the judiciary against interference from the executive, but this did not mean that judiciary is free from "public scrutiny".
          "This is not the independence from accountability. Independence of judiciary means it has to be independent from the executive and not independent from common public. People are entitled to know as to what public authorities are doing," Bhushan had said.
          The deliberations of the collegium in appointing and overlooking judges or lawyers should be made public and information can be parted with under RTI on case-to-case basis keeping in mind the larger public interest, the lawyer had said.
          The bench had said people, of late, were opting out and do not want to become judges because of the fear of negative publicity.
          "On interaction, the reason appears to be the possibility of the negative observations, whether rightly or wrongly, being brought into the public domain," it had observed.
          In such a case, besides losing judgeship and reputation, the professional and family life of the person are adversely affected, it had said.
          The apex court had said it had brought about changes in the functioning of the collegium system and said now members have started interacting with prospective candidates. PTI TEAM
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Last Updated : Nov 16, 2019, 6:03 PM IST
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