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बल्देवगढ़ का किला जिसमें दफन हैं इतिहास के कई किस्से, जाने इन किस्सों की अच्छी और बुरी दास्तां

टीकमगढ़ के बल्देवगढ़ में ओरछा रियासत काल के समय सबसे सुरक्षित स्थान बल्देवगढ़ का किला है. महाराजा विक्रमाजीत सिंह ने युद्ध सामग्री भंडारण और सेना के अध्यक्ष के लिए रियासत यह स्थान था, जिसके बाद यहां से दुर्ग का निर्माण कराया गया था.

बल्देवगढ़ का किला जिसमे दफन इतिहास के कई किस्से
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Published : Nov 24, 2019, 3:44 PM IST

टीकमगढ़। ये धरा है वीरों की, ये धरा है नई सोच की, ये धरा है भव्य किलों की. ये स्थान आज भी राजा रजवाड़ों के वीरता के कई किस्सें सुना रहा है. आज भी पुरातन काल की भव्य निशानियां सीना ताने खडी है. कदम-कदम पर है शौर्य और शिल्प कला के नमूने. पहाड़ों एवं पत्थरों पर बिखरी है गुजरे जमाने की अनमोल यादें. जो बता रही हैं गुजरी सदी की भव्यता को. कहीं देवी के मंदिरों ने लोगों को अपने से बांधे रखा, तो कहीं सरोवर किनारे जीवन फलफूल रहा है. परकोटे से नजर आता है आने वाला कल. भौरमय सूरज की पहली किरण जब इन धरोहरों को छूती है तो ऐसा लगता है कि गुजरा हुआ जमाना फिर जाग उठेगा.

बल्देवगढ़ का किला जिसमे दफन इतिहास के कई किस्से


ओरछा रियासत की सबसे सुरक्षित नगरी बल्देवगढ़ मानी जाती है, जहां महाराजा विक्रमाजीत सिंह ने युद्ध सामग्री भंडारण एवं सैन्य अड्डा के लिए रियासत में सबसे उपयुक्त स्थान मानते हुए दुर्ग का निर्माण कराया गया था. जब महाराजा विक्रमादित्य सिंह ने मराठों के आतंक एवं लूट मारी से परेशान होकर सन् 1783 में राजधानी ओरछा से हटाकर टीकमगढ़ में स्थापित की, तो सैनिक अड्डा एवं युद्ध सामग्री भंडारण के लिए 55 से 70 एकड़ में दुर्ग का निर्माण कराया. जों सुरक्षा की हर कसौटी पर खरा पाया गया.


प्रथम मुख्य दरवाजा किला दरवाजा है जो बड़े पहाड़ को काटकर पश्चिमी दिशा में बना है. दूसरा दरवाजा सामान्य जन एवं राज्य कर्मचारियों की आवाजाही के लिए बस्ती एवं किले के मैदान की ओर उत्तर दिशा में है. पहाड़ पर बनी इस ऊंचे पहाड़ की गणना बुंदेलखंड के व्यवसायिक बड़े किलो में होती है. यह किला काफी ऊंचा बड़े विस्तार में एवं सूर्य परकोटे के अंदर आक्रमणियों की मार से सुरक्षित था, जिसें गिरीदुर्ग होने पर भी महाराजा ने इसे जलदुर्ग बना दिया था. यह किला तीनों ओर से ग्वालसागर, जुगलसागर एवं धर्मसागर तालाब से घिरा हुआ है.


गर्भगिरावन तोप की कहानी
बुंदेलखंड में आज भी जब रौब जमाने की बात हो तो सहसा ही बल्देवगढ़ की तोप का नाम जुबान पर आ जाता है. जानकार बताते हैं कि इतिहास में सिर्फ एकबार ही तोप चली थी, जिसकी भयंकर गर्जना से क्षेत्र में बड़ी संख्या में महिलाओं का गर्भपात हो गया था. इसलिए खलका की तोप को गर्भगिरावन नाम से भी जाना जाता है. दीवानखाना के नजदीक मंदिर निर्माण कर बल्दाऊजू की स्थापना के साथ ही बांध गांव को बल्देवगढ़ कहा जाने लगा. नबल्दाऊजू मंदिर के पास ही तोपखाना भवन था, जिसमें भुवानी शंकर विशाल तोप गाड़ी पर तैयार खड़ी रहती थी.


पहाड़ों एवं कंजरों को काटकर बनाए गए भव्य किले के साथ आल्हा मुंडा का निर्माण किया था. इतिहासकारों के अनुसार किलें मैदान में राजा के द्वार में आयोजित कुश्ती में पहलवान अपना दम-खम दिखाया करते थे, जहां एक बार बुंन्देलखण्ड के सेनापति एवं अपनी वीरता के लिए विख्यात माने जाने वालें उदल के बड़े भाई आल्हा ने कुश्ती में भाग लेकर विजय हासिल की. राजा विक्रमादित्य ने आल्हा को सबसे उचे स्थान पर बने भवन को भेंट किया. उस स्थान को आल्हा मुंडा का नाम दिया.


यहां आने वाले सैलानियों के लिए अंदर बने वास्तुकला को देखकर मोहित भी हो जाते है. यहां एक ऐतहासिक तालाब भी है. इसी तालाब के बीचोबीच बना शिवमंदिर एवं टापू सुन्दरता को बढ़ावा देता है. तालाब से किला घिरे होने से सुरक्षित रहा. यह तालाब लोगों की आजीवका का जीवनदायक साबित हुआ है. जानकार बताते है कि तालाब खुदवाकर राजा ने सोने का हिडोला मंगाया, जिसमे ग्वाल-ग्वालन को बैठाकर तीन बार झुलाने पर ही तालाब भर गया था. वहीं तालाब से लगी एक बावड़ी बनी है, जहां रानियां नहाकर उसी के बीच बने मंदिर में पूजा अर्चना करती थी. बल्देवगढ़ फोर्ट बुंदेलखंड के महत्वशाली किलों में एक है, जो शत्रुओं के लिए सदा एक चुनौती बना रहा.दुश्मन भी इसके नाम से थर-थर कांपते थे.

टीकमगढ़। ये धरा है वीरों की, ये धरा है नई सोच की, ये धरा है भव्य किलों की. ये स्थान आज भी राजा रजवाड़ों के वीरता के कई किस्सें सुना रहा है. आज भी पुरातन काल की भव्य निशानियां सीना ताने खडी है. कदम-कदम पर है शौर्य और शिल्प कला के नमूने. पहाड़ों एवं पत्थरों पर बिखरी है गुजरे जमाने की अनमोल यादें. जो बता रही हैं गुजरी सदी की भव्यता को. कहीं देवी के मंदिरों ने लोगों को अपने से बांधे रखा, तो कहीं सरोवर किनारे जीवन फलफूल रहा है. परकोटे से नजर आता है आने वाला कल. भौरमय सूरज की पहली किरण जब इन धरोहरों को छूती है तो ऐसा लगता है कि गुजरा हुआ जमाना फिर जाग उठेगा.

बल्देवगढ़ का किला जिसमे दफन इतिहास के कई किस्से


ओरछा रियासत की सबसे सुरक्षित नगरी बल्देवगढ़ मानी जाती है, जहां महाराजा विक्रमाजीत सिंह ने युद्ध सामग्री भंडारण एवं सैन्य अड्डा के लिए रियासत में सबसे उपयुक्त स्थान मानते हुए दुर्ग का निर्माण कराया गया था. जब महाराजा विक्रमादित्य सिंह ने मराठों के आतंक एवं लूट मारी से परेशान होकर सन् 1783 में राजधानी ओरछा से हटाकर टीकमगढ़ में स्थापित की, तो सैनिक अड्डा एवं युद्ध सामग्री भंडारण के लिए 55 से 70 एकड़ में दुर्ग का निर्माण कराया. जों सुरक्षा की हर कसौटी पर खरा पाया गया.


प्रथम मुख्य दरवाजा किला दरवाजा है जो बड़े पहाड़ को काटकर पश्चिमी दिशा में बना है. दूसरा दरवाजा सामान्य जन एवं राज्य कर्मचारियों की आवाजाही के लिए बस्ती एवं किले के मैदान की ओर उत्तर दिशा में है. पहाड़ पर बनी इस ऊंचे पहाड़ की गणना बुंदेलखंड के व्यवसायिक बड़े किलो में होती है. यह किला काफी ऊंचा बड़े विस्तार में एवं सूर्य परकोटे के अंदर आक्रमणियों की मार से सुरक्षित था, जिसें गिरीदुर्ग होने पर भी महाराजा ने इसे जलदुर्ग बना दिया था. यह किला तीनों ओर से ग्वालसागर, जुगलसागर एवं धर्मसागर तालाब से घिरा हुआ है.


गर्भगिरावन तोप की कहानी
बुंदेलखंड में आज भी जब रौब जमाने की बात हो तो सहसा ही बल्देवगढ़ की तोप का नाम जुबान पर आ जाता है. जानकार बताते हैं कि इतिहास में सिर्फ एकबार ही तोप चली थी, जिसकी भयंकर गर्जना से क्षेत्र में बड़ी संख्या में महिलाओं का गर्भपात हो गया था. इसलिए खलका की तोप को गर्भगिरावन नाम से भी जाना जाता है. दीवानखाना के नजदीक मंदिर निर्माण कर बल्दाऊजू की स्थापना के साथ ही बांध गांव को बल्देवगढ़ कहा जाने लगा. नबल्दाऊजू मंदिर के पास ही तोपखाना भवन था, जिसमें भुवानी शंकर विशाल तोप गाड़ी पर तैयार खड़ी रहती थी.


पहाड़ों एवं कंजरों को काटकर बनाए गए भव्य किले के साथ आल्हा मुंडा का निर्माण किया था. इतिहासकारों के अनुसार किलें मैदान में राजा के द्वार में आयोजित कुश्ती में पहलवान अपना दम-खम दिखाया करते थे, जहां एक बार बुंन्देलखण्ड के सेनापति एवं अपनी वीरता के लिए विख्यात माने जाने वालें उदल के बड़े भाई आल्हा ने कुश्ती में भाग लेकर विजय हासिल की. राजा विक्रमादित्य ने आल्हा को सबसे उचे स्थान पर बने भवन को भेंट किया. उस स्थान को आल्हा मुंडा का नाम दिया.


यहां आने वाले सैलानियों के लिए अंदर बने वास्तुकला को देखकर मोहित भी हो जाते है. यहां एक ऐतहासिक तालाब भी है. इसी तालाब के बीचोबीच बना शिवमंदिर एवं टापू सुन्दरता को बढ़ावा देता है. तालाब से किला घिरे होने से सुरक्षित रहा. यह तालाब लोगों की आजीवका का जीवनदायक साबित हुआ है. जानकार बताते है कि तालाब खुदवाकर राजा ने सोने का हिडोला मंगाया, जिसमे ग्वाल-ग्वालन को बैठाकर तीन बार झुलाने पर ही तालाब भर गया था. वहीं तालाब से लगी एक बावड़ी बनी है, जहां रानियां नहाकर उसी के बीच बने मंदिर में पूजा अर्चना करती थी. बल्देवगढ़ फोर्ट बुंदेलखंड के महत्वशाली किलों में एक है, जो शत्रुओं के लिए सदा एक चुनौती बना रहा.दुश्मन भी इसके नाम से थर-थर कांपते थे.

Intro:खास रिपोर्ट
धरोंहर/खरगापुर/24-11-2019/ प्रदीप चौरसिया /24-11-19

किलें के वुर्ज में ले रही वीरता की सांसे, बुंदेलखंड का रौब जमाती है बल्देवगढ़ की तोप,भयंकर गर्जना के नाम से थर थर कांपते थे दुश्मन। आज भी राजा रजवाड़ों के वीरता के सुनाई देते है कई किस्सें। राजघाट पर विराजे भगवान बलदाऊ के नाम पर पड़ा बल्देवगढ़ नगरी।
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ये धरा है वीरों की, ये धरा है नई सोच की ,ये धरा है भव्य किलों की। ये स्थान आज भी राजा रजवाड़ों के वीरता के कई किस्सें सुना रहा है। आज भी पुरातन काल की भव्य निशानियां सीना ताने खडी है। कदम कदम पर है शौर्य और शिल्प कला के नमूने। पहाड़ों एवं पत्थरों पर बिखरी हैै गुजरे जमाने की अनमोल यादें। जो बता रही गुजरी सदी की भव्यता को। देवी के मंदिरों ने लोगो को अपने से बांधे रखा, तो कही सरोवर किनारे जीवन फलफूल रहा है। परकोटे से नजर आता है आने वाला कल। भौर मय सूरज की पहली किरण इन धरोहरों को छूती है। ऐसा लगता है कि जाग उठेगा गुजरा हुआ जमाना। इन इमारतों से झरोखो से गुजरने वाली हवाये नदी की अविरल धारा संदेश देती है वक्त कभी रूकता नही, वक्त कभी ठहरता नही। वस वक्त के साथ बदल जाते है किरदार। और इस धरा ने वक्त के साथ देखे कई किरदार,जो वीर थे।जिनकी सोच ने विश्व केे नक्शे पर पहचान दिलाने में मदद की। आज भी किलें के वुर्ज में ले रही वीरता की सांसे ।ऐसा ही प्राचीन धरोहरों में शामिल बल्देवगढ़ का किला अपनी भव्य और सौंदर्यता को संजोय हुए है। जिसकी दास्तान इन खास रिपोर्ट में....
Conclusion:वीईओं-
1- ओरछा रियासत की सबसे सुरक्षित नगरी बल्देवगढ़ मानी जाती है। जहां महाराजा विक्रमाजीत सिंह ने युद्ध सामग्री भंडारण एवं सैन्य अड्डा के लिए रियासत में सबसे उपयुक्त स्थान मानते हुए दुर्ग का निर्माण कराया गया था। जब महाराजा विक्रमादित्य सिंह (1776-1871ई ) ने मराठों के आतंक एवं लूट मारी से परेशान होकर सन् 1783 में राजधानी ओरछा से हटाकर टीकमगढ़ में स्थापित की। तो सैनिक अड्डा एवं युद्ध सामग्री भंडारण के लिए 55 से 70 एकड़ में दुर्ग का निर्माण कराया। जों सुरक्षा की हर कसौटी पर खरा पाया गया। प्रथम मुख्य दरवाजा किला दरवाजा है जो बड़े पहाड़ को काटकर पश्चिमी दिशा में बना है दूसरा दरवाजा सामान्य जन एवं राज्य कर्मचारियों की आवाजाही के लिए बस्ती एवं किले के मैदान की ओर उत्तर दिशा में है। पहाड़ पर बनी इस ऊंचे पहाड़ की गणना बुंदेलखंड के व्यवसायिक बड़े किलो में होती है। यह किला काफी ऊंचा बड़े विस्तार में एवं सूर्य परकोटे के अंदर आक्रमणियेां की मार से सुरक्षित था। जिसें गिरीदुर्ग होने पर भी महाराजा ने इसे जलदुर्ग बना दिया था। यह किला तीनों ओर से ग्वालसागर, जुगलसागर एवं धर्मसागर तालाब से घिरा हुआ है।
2-
कई राज्यों में आज भी बुंदेलखंड का रौब जमाती है बल्देवगढ़ की तोप-
बुंदेलखंड में आज भी जब रौब जमाने की बात हो तो सहसा ही बल्देवगढ़ की तोप का नाम जुबान पर आ जाता है। खासियत है ऐसी ही, जिसने मप्र ही नहीं देश के तमाम राज्यों में बल्देवगढ़ को पहचान दिलाई है। जानकार बताते हैं कि इतिहास में सिर्फ एकबार ही तोप चली थी, जिसकी भयंकर गर्जना से क्षेत्र में बड़ी संख्या में महिलाओं का गर्भपात हो गया था। इसलिए खलका की तोप को गर्भगिरावन नाम से भी जाना जाता है। दीवानखाना के नजदीक मंदिर निर्माण कर बल्दाऊजू (बलराम) की स्थापना के साथ ही बांध ग्राम को बल्देवगढ़ कहा जाने लगा।बल्दाऊजू मंदिर के पास ही तोपखाना भवन था, जिसमें भुवानी शंकर विशाल तोप गाड़ी पर तैयार खड़ी रहती थी। परकोटा के एक बुर्ज के भीतर गर्भगिरावन तोप रखी थी। जिसे खलका की तोप नाम से जाना जाता था।बल्देवगढ़ फोर्ट बुंदेलखंड के महत्वशाली किलों में एक है, जो शत्रुओं के लिए सदा एक चुनौती बना रहा।दुश्मन भी इसके नाम से थर थर कांपते थे।
3-
भेंट में दिया था आल्हा मुंडा -
पहाड़ों एवं कंजरों को काटकर बनाए गए भव्य किले के साथ आल्हा मुंडा का निर्माण किया था। इतिहासकारांे के अनुसार किलें मैदान में राजा के द्वार में आयोजित कुश्ती में पहलवान अपना दम-खम दिखाया करते थे। जहां एक बार बुंन्देलखण्ड के सेनापति एवं अपनी वीरता के लिए विख्यात माने जाने वालें, उदल के बड़े भाई आल्हा ने कुश्ती में भाग लेकर विजय हासिल की। राजा विक्रमादित्य ने आल्हा को सबसे उचे स्थान पर बने भवन को भेंट कियां। उस स्थान को आल्हा मुंडा का नाम दिया। वही किलें पर बनी आठमड़िया जो एक बहुत ही बड़ा अनोखा दृश्य जहां दूर से देखने पर 4 मड़ियां दिखती है।
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यहां आने वाले सैलानियों के लिए अंदर बने वास्तुकला को देखकर मोहित भी हो जाते है। ऐतहासिक तालाब जहां ग्वालांे ने राजा से अनुरोध किया था राजा ने इसका नाम ग्वालों के नाम पर रखा था। विशाल समुद्र सा तालाब का नाम ग्वाल सागर रखा। इसी तालाब के बीचोबीच बना शिवमंदिर एवं टापू सुन्दरता को बढ़ावा देता है।तालाब से किला घिरे होने से सुरक्षित रहा। यह तालाब लोगो की आजीवका का जीवनदायक साबित हुआ है। जानकार बताते है कि तालाब खुदवाकर राजा ने सोने का हिडोला मंगाया।जिसमंे ग्वाल-ग्वालन को बैठाकर तीन बार झुलाने पर ही तालाब भर गया था।वही तालाब से लगी एक बावड़ी बनी है जहां रानियां नहाकर उसी के बीच बने मंदिर में पूजा अर्चना करती थी।
बाइट- दृगपाल सिंह तोमर,समाजसेवी
बाइट- रामगोपाल नायक,इतिहासकार

बाइट- प्रताप नायक, जानकार(एडवोकेट)

बाइट- गणेश प्रसाद, सिक्योरिटी गार्ड
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