शहडोल। रक्षाबंधन के दूसरे दिन कजलियां पर्व (Kajaliya Festival) मनाया जाता है, शहडोल जिले में भी बड़े धूमधाम से कजलियां पर्व मनाया गया, शहडोल जिला आदिवासी बाहुल्य है और यहां पर ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े उत्साह के साथ इस पर्व को मनाया जाता है. हालांकि, अब इस पर्व को मनाने वालों की संख्या में भी साल दर साल गिरावट देखी जा रही है, इस बार भी पहले की तरह भीड़ तो नहीं दिखी, लेकिन जितने भी लोग इसे मनाते नजर आये, उनमें काफी उत्साह देखने को मिला. कजलियां की तैयारी कई दिनों से लोग करते हैं, फिर रक्षाबंधन के दूसरे दिन इस पावन पर्व को बड़े उत्साह से मनाते हैं.
श्रद्धा से मनाया गया कजलियां पर्व, सुरक्षा के साथ किया विसर्जन
जानिए इस दौरान क्या-क्या होता है ?
कजलियां पर्व पर घर में जो महिलाएं-बच्चे होते हैं, वह शाम को घर में पहले उसकी पूजा करते हैं, फिर उसे लेकर नदी-नाला, तालाब जहां भी पवित्र स्थान मिलता है, वहां जाकर पूजा करके उसे मिट्टी से अलग करते हैं, उसे उखाड़कर साफ करते हैं, फिर कजलियां (Kajaliya Festival) को सर्वप्रथम भगवान को अर्पित करते हैं, उसके बाद उसे प्रसाद स्वरूप अपने घर के आस पड़ोस में जानने पहचानने वालों को बड़े बुजुर्गों को एक दूसरे को भेंट करते हैं, उनसे मेल मिलाप करते हैं, आशीर्वाद प्राप्त करते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में तो इस त्योहार को बड़े ही उत्साह के साथ मनाया जाता है.
कान में लगाने का रिवाज क्यों है ?
ज्योतिषाचार्य पंडित सुशील शुक्ला शास्त्री कजलियों को कान में लगाने के रिवाज के पीछे की वजह बताते हुए कहते हैं कि जब इसे घर के बड़ों को दिया जाता है तो वह छोटों के कान में उसे लगाकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं, इसके पीछे की वजह है, पहला तो उनका डर समाप्त हो दूसरा कोई भी अलाय-बलाय हो नजर लगी हो वह दूर हो जाए और तीसरा कारण है कि कजलियां (Kajaliya Festival) जिसके कान में लगाया जाता है, उसका जीवन साल भर हरा-भरा रहता है, कोई बीमारी नहीं होती और साल भर वह तरक्की की राह पर रहता है.
कजलियां मनाने वालों की घट रही संख्या
ग्रामीण क्षेत्रों में अक्सर देखा जाता था कि कजलियां पर्व (Kajaliya Festival) पर गांव भर में लोग एक दूसरे के घर जाते थे, बच्चे घर-घर जाते थे और कजलियां भेंट कर आशीर्वाद प्राप्त करते थे, बदलते वक्त के साथ इसमें भी बहुत बदलाव देखने को मिला है. ग्रामीण रामप्रसाद बताते हैं कि पहले कजलियों का पर्व और अब के कजलियां पर्व में बहुत फर्क है, अब तो एक दो व्यक्ति कोई घर आ गया तो आ गया नहीं तो घर के सदस्य एक दूसरे को कजलियां भेंट करते हैं. वहीं कुछ ग्रामीणों का तो कहना है कि अब तो घर में भी यह परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो रही है लोगों में वह उत्साह नहीं रह गया है.
लोगों की संख्या में गिरावट
देखा जाए तो साल दर साल कजलियां (Kajaliya Festival) तालाबों में लेकर जाने वालों की संख्या में भी काफी गिरावट देखने को मिल रही है, पहले बड़ी संख्या में पूरा का पूरा गांव नाचते गाते उमड़ता था, लेकिन अब ऐसा नहीं होता है. अब गिने-चुने लोग ही इस पर्व को मनाते नजर आते हैं.