शहडोल। जिले में हर साल 14 जनवरी के दिन से बाणगंगा मेला शुरु होता है, संभागीय मुख्यालय में लगने वाला ये मेला ऐतिहासिक है, बताया जाता है कि इस मेले की शुरुआत 1895 में की गई थी तभी से ये मेला हर साल लगता आ रहा है. क्षेत्र में ये मेला बाणगंगा मेला के नाम से प्रसिद्ध है पहले एक दिन से शुरू हुआ ये मेला बढ़ते-बढ़ते इस साल से 7 दिन का हो गया है.
शहडोल संभागीय मुख्यालय का सबसे प्रसिद्ध और सबसे बड़ा बाणगंगा मेला कहलाता है. इस मेले की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है, लोग बाणगंगा मेले में इसलिए भी दूर-दूर से आकर शामिल होते हैं क्योंकि मकर सक्रांति के दिन से इस मेले की शुरुआत होती है. बाणगंगा कुंड यहां का ऐतहासिक कुंड है. पहले यहां स्नान करते हैं फिर कलचुरीकालीन विराट मंदिर में भगवान शिव के दर्शन करते हैं और फिर दिनभर मेले का आनंद लेते हैं.
मेले की पूरी तैयारी
नगर पालिका सीएमओ अजय श्रीवास्तव बताते हैं कि मेले की तैयारी पूरी हो चुकी है, इस बार छोटे बड़े मिलाकर करीब 1600 दुकानदार मेले में शामिल हुए हैं. इस मेले में जिले से लेकर प्रदेश से लेकर दूसरे प्रदेश तक के दुकानदार आते हैं और मेला में अपनी दुकान लगाते है इस लिहाज से नगरपालिका ने अपनी तैयारी पूरी कर ली है.
बहुत पुराना है मेले का इतिहास
इस मेले का इतिहास बहुत पुराना है इतिहासकार रामनाथ सिंह परमार बताते हैं कि बाणगंगा का ये मेला करीब सैकड़ों साल पुराना है. इस मेले की शुरुआत तत्कालीन रीवा महाराजा गुलाब सिंह ने 1895 में कराई थी. पहले इस मेले के प्रचार-प्रसार के लिए गांव-गांव मुनादी बजवाई जाती थी और मेले का प्रचार-प्रसार किया जाता था. धीरे-धीरे ये मेला बदलते वक्त ये साथ बदलता गया, पूरे संभाग का सबसे फेमस और बड़ा मेला बन गया, जिसका इंतजार लोग बड़ी ही बेसब्री से साल भर करते हैं. इसीलिए इस मेले में बहुत भीड़ होती है और इस आदिवासी अंचल के दूर-दूर से लोग इस मेले में आते हैं. एक तरह से कहा जाए तो इस मेले में शामिल होने के लिए पूरे संभाग से लोग तो पहुंचते ही हैं इसके अलावा भी दूसरे राज्यों से भी लोग पहुंचते हैं.
बाणगंगा कुंड का है विशेष महत्व
मकर संक्रांति के दिन जिस बाणगंगा कुंड में लोग स्नान करते हैं उसका भी विशेष महत्व है, कहा जाता है कि इस कुंड का निर्माण पांडवों ने किया था एक विशेष प्रयोजन के तहत अर्जुन ने बाण मारकर इस कुंड का निर्माण किया था. पहले इसके पानी का औषधीय महत्व भी था लेकिन अब कहते हैं कि कुंड में बाहर से जब से पानी भरा जाने लगा तभी से इसका वो महत्व भी खत्म हो गया.