शहडोल। यह जिला आदिवासी बाहुल्य जिला है. इस जिले में आदिवासियों के बीच कई ऐसे रीति रिवाज और परंपराएं हैं जिनके बारे में जानकर हर कोई हैरान रह जाता है. इन्हीं में से एक है मौनी व्रत की परंपरा. यह दीपावली के दूसरे दिन मनाई जाती है. आदिवासी लोग इस दिन व्रत रहते हैं. इस व्रत के बारे में जानकर आप भी हैरान हो जाएंगे. हालांकि बदलते वक्त के साथ अब आदिवासियों की इस परंपरा पर भी वक्त के साथ बदलाव दिखने लगा है. कई गांवों में अब ये विलुप्त की कगार पर है तो कुछ गांव में अभी भी नियम का पालन हो तो रहा है.
जानिए इस व्रत में क्या होता है: मौनी व्रत को लेकर श्यामलाल कोल बताते हैं कि, आदिवासी समाज के लोग इस व्रत को करते हैं, इस व्रत को जोड़े में रखा जाता है. जब इस व्रत को रखने का प्रण किया जाता है तो कम से कम 7 साल तक इस व्रत को रखा जाता है. फिर आगे 9 साल और 11 साल जितनी जिसकी इच्छा हो वो इस व्रत को रख सकता है. मौनी व्रत को पुरुष वर्ग के लोग रखते हैं. व्रत में जो जोड़ा बनते हैं उसमें जोड़े का एक व्यक्ति पैंट शर्ट में रहता है. जोड़े का दूसरा व्यक्ति महिला परिधान में रहता है. हालांकि धीरे-धीरे अब कई जगहों पर लोग महिला परिधान कम पहन रहे हैं लेकिन पहले पूरी तरह से नियम ऐसा होता है.
मौनी व्रत की शुरुआत: सुबह-सुबह तालाब में स्नान किया जाता है. फिर हर गांव में इस विशेष व्रत के पूजा के लिए स्थल बनाया जाता है. वहां अपने अपने तरीके से परंपराओं के अनुसार सजाया जाता है. कहीं केला के पत्ते के साथ सजाया जाता है. कहीं टेंट लगाकर सजाया जाता है. फिर वहां पर जो भी व्रत रखता है वो पूजा पाठ करता है. आदिवासी समाज के कई बड़े बुजुर्ग बच्चे महिलाएं सभी वहां पहुंचते हैं. घर की जो महिलाएं होती हैं वो पूजा की थाली लेकर पहुंचती है और जो व्रत रखते हैं. वह हाथ में नारियल लेकर पहुंचते हैं और फिर इसमें एक और परंपरा है कि गाय की छोटी बछिया के नीचे से पूजा पाठ करके 7 बार निकलना होता है. फिर वहीं से मौनी व्रत रखने वाले गाय चराने चल देते हैं.
इशारों से बात: दिनभर व्रत रखने वाले घर नहीं आते. जंगलों में रहते हैं. गाय चराते हैं. मौन रहते हैं. एक दूसरे से बात नहीं करते. सीटी बजा कर या इशारों में एक दूसरे को कम्युनिकेट करते हैं. शाम को आते ही फिर उसी स्थल पर पहुंचते हैं. उसी तरह से जैसा सुबह पूजा-पाठ किया था. शाम को भी पूजा पाठ होती है. फिर अपने अपने घर की ओर जाते हैं. जो जोड़े होते हैं वह एक दूसरे के घर में जाकर व्रत तोड़ते हैं. पहले जोड़े का एक व्यक्ति अपने साथी के यहां आएगा और व्रत तोड़ेगा. फिर जोड़े का दूसरा व्यक्ति अपने दूसरे साथी के यहां जाएगा ठीक उसी तरह से व्रत तोड़ेगा. इस तरह से मौनी व्रत कंप्लीट हो जाता है.
व्रत तोड़ने में भी अनोखी परंपरा: गांव के श्यामलाल कोल बताते हैं कि, इस मौनी व्रत को तोड़ने के लिए भी अनोखी परंपरा है. शाम को जब जोड़े अपने-अपने घरों की ओर जाते हैं तो व्रत तोड़ने के लिए पहले गौ माता की पूजा करके गौमाता को जो भी घर में भोजन प्रसाद बनता है उसे खिलाया जाता है. फिर गौमाता के बचे हुए भोजन को गौमाता की तरह ही बनकर चार पांव से बैठकर थाली में मुंह लगाकर भोजन किया जाता है. ठीक उसी तरह पानी भी थाली में ही मुंह लगाकर पिया जाता है और व्रत को तोड़ा जाता है.
शहडोल: दीपावली के अगले दिन आदिवासी मनाते हैं मौनी व्रत, करते हैं गाय की पूजा
अब कई जगह विलुप्त हो रही परंपरा: ग्रामीण श्यामलाल कोल, नरेश बैगा और भी कई ग्रामीणों से हमने बात की तो उनका कहना है कि, मौनी व्रत की परंपरा बहुत ही अनोखी है. ग्रामीण बताते हैं कि अपने समय में इन्होंने 7-7 साल तक मौनी व्रत रखा, लेकिन अब यह परंपरा विलुप्त हो रही है. कई गांव में तो अब मौनी व्रत रखा ही नहीं जाता है. कुछ लोग करते भी हैं तो दूसरे गांव में चले जाते हैं. साल दर साल मौनी व्रत करने वाले गांव की संख्या भी कम होती जा रही है. इस बात को लेकर आदिवासी समाज के लोग अब चिंतित भी हैं. खासकर आदिवासी समाज के जो नए युवा वर्ग के लोग हैं उनमें इस व्रत को लेकर बहुत ज्यादा गंभीरता नहीं है. इसे लेकर भी इस समाज के बुजुर्ग काफी चिंतित हैं.