सागर। प्रो. अश्वनी कुमार (Research by Prof Ashwani Kumar) बताते हैं कि, जिले की ऐतिहासिक लाखा बंजारा झील की बदहाली को देखकर उन्हें शोध की प्रेरणा मिली है. जब उन्होंने देखा कि, लाखा बंजारा झील को जलकुंभी निगलती जा रही है और शहर की पहचान कहा जाने वाला ये तालाब भविष्य में जमीन में तब्दील हो सकता है, (Research on Hyacinth) तब उन्होंने जलकुंभी से बायो फ्यूल बनाने पर शोध किया. (Biofuel can be made from hyacinth) इनके शोध को कई अंतरराष्ट्रीय साइंस जनरल में भी स्थान देने के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर उनकी रिसर्च को सराहा गया है.
विशाल जलस्रोत को भी निगल जाती है जलकुंभी: प्रो. अश्विनी कुमार की मानें तो वह सागर में झील या प्राकृतिक जलस्रोतों को देखते रहते हैं. इनमें जलकुंभी बहुत तेजी से बढ़ती है. शुरुआत में जलकुंभी ब्राजील से बंगाल लाई गई थी, जिसका उपयोग खूबसूरती के लिए किया जाता था. लोगों ने इसे खूब पसंद किया और पानी में लगाना शुरू कर दिया. धीरे-धीरे यह फैलता चला गया.
ऐसे ढकता है जलस्रोत: जलकुंभी की खास बात ये है कि, इसका एक पौधा 4 से 5 हजार बीज उत्पन्न करता है और इसका बीज 20 से 28 साल तक खराब नहीं होता है. मिट्टी में भी रहता है तो दोबारा अंकुरित हो जाता है. ये कुछ ही दिनों में 100 गुना ज्यादा वृद्धि कर पूरे जलस्रोत को ढक लेता है. जिसके कारण सूरज की किरणें पानी के अंदर नहीं पहुंच पाती है. जल स्रोत के अंदर जो दूसरे पौधे और जीव होते हैं. वहां प्रकाश नहीं पहुंचने के कारण ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और वह मरने लगते हैं. जब हम इस तरह के जल स्रोत के पास से गुजरते हैं तो बदबू आती है. जो सड़ने की गंध होती है. एक प्राकृतिक क्रिया के जरिए जलकुंभी बहुत जल्दी वृद्धि करता है और पूरे जलस्रोत को निगल लेता है. कई ऐसे जलस्रोत देखने मिलेंगे,जो जलकुंभी के कारण जमीन में तब्दील हो गए हैं.
आइनिक लिक्विड ने बनाया शोध को आसान: प्रो. अश्विनी कुमार बताते हैं कि, इस रिसर्च के पीछे उद्देश्य स्थानीय समस्याओं पर काम करना था. हम सागर झील के आसपास से गुजरते थे, तो देखते थे कि, यहां बड़े पैमाने पर जलकुंभी नजर आती है. जलकुंभी का वैज्ञानिक नाम (eichhornia crassipes) है. हमने जलकुंभी पर काम शुरू किया, तो यूनिवर्सिटी के केमिस्ट्री के वैज्ञानिक डॉ. उप्पल घोष ने आईनिक लिक्विड उपलब्ध कराया.
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अल्ट्रासोनिक प्रक्रिया: इस लिक्विड की खास बात ये है कि, इसका पर्यावरण पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है. क्योंकि इस काम को करने के लिए एसिड,एल्कलाइन और कुछ ऐसे रसायन उपयोग करने होते हैं, जो खतरनाक साबित हो सकते हैं. हम नहीं चाहते थे कि कोई ऐसा काम करें कि एक समस्या सुलझाएं और दूसरी समस्या पैदा कर दें, तो आईनिक लिक्विड का उपयोग किया और माइक्रोवेव और अल्ट्रासोनिक प्रक्रिया अपनाई. हमने ये कोशिश की कि कैसे जलकुंभी को प्रयोगशाला में अपघटित कर शुगर बनाई जाए. जब भी हम कोई बायोफ्यूल बनाते हैं तो मेथेनॉल और एथेनॉल का उपयोग करते हैं. मेथेनॉल को बायोडीजल भी कहा जाता है.
प्रयोग से पर्यावरण सुरक्षित: प्रो. कुमार बताते हैं कि, जलकुंभी दूसरे देशों में बायो एनर्जी के रूप में उपयोग की जाती है. हमने जलकुंभी को माइक्रोबियल तरीके से विघटित कर शुगर बनाया. जिसे हम चीनी कहते हैं और शुगर में एक फंगस सेक्रोमाइसिस मिला दें तो वह शुगर को एथेनॉल में परिवर्तित कर देता है. जिसे हम बायोएथेनॉल बोलते हैं. क्योंकि इसे बायो मेथड से बनाया गया है.
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प्रयोगशाला पर विकसित करने का प्रयोग: यहां हम बायोलॉजिकल मेकनिज्म के जरिए बायोएथेनॉल बना रहे हैं. बायोएथेनॉल को हम कार्बन न्यूट्रल बोलते हैं. क्योंकि पौधे ने ही कार्बन डाइऑक्साइड फिक्स कर भोजन बनाया. जब हम उसको परिवर्तित करते हैं, तो जो ऊर्जा उसने खर्च की है वही ऊर्जा वह उत्पन्न करता है. खास बात ये है कि इससे पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है. इस तरह से हमने जलकुंभी को प्रयोगशाला स्तर पर विकसित करने के प्रयोग किए हैं. जिसमें हमने देखा है कि आईनिक लिक्विड बहुत अच्छा स्रोत है, जो जलकुंभी को बहुत अच्छी तरीके से विघटित कर देता है और कोई भी नुकसान नहीं है.
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प्रयोगशाला में सफल, अब उत्पादन की जरूरत: विश्व के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों में शामिल प्रो. अश्विनी कुमार ने बताया कि, ब्राजील में 100% एथेनॉल उपयोग होता है. वहां इसे बी-100 बोला जाता है. बी का मतलब बायोडीजल है. 100 का मतलब 100 प्रतिशत है. वहां जितने भी वाहन हैं वह बायोफ्यूल से ही चलते हैं. हम लोग गन्ने से शक्कर बनाते हैं. हमारे यहां शक्कर काफी सस्ती है. लेकिन पेट्रोल डीजल महंगा है. यदि हम वैकल्पिक स्रोत पर जाते हैं और जलकुंभी से बायोफ्यूल बनाने का बड़े पैमाने पर उत्पादन करते हैं,तो इसका फायदा होगा.