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मालवा का ऐसा वीर योद्धा, जिसने आजादी के लिए दी पहली शहादत

मालवा का एक ऐसा वीर योद्धा, जिसने कभी अंग्रेजों की स्वाधीनता स्वीकार नहीं की और अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गया. कुछ इतिहासकार कुंवर चैन सिंह को मंगल पांडे से पहले का स्वतंत्रता सेनानी सेनानी मानते हैं. आज भी सीहोर की माटी उनके बलिदान की याद दिलाती है, नरसिंहगढ़ रियासत के कुंवर चैन सिंह की शहादत को 24 जुलाई को पूरे नरसिंहगढ़ में बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है.

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Published : Jul 24, 2019, 3:10 PM IST

Updated : Jul 24, 2019, 5:58 PM IST

शहीद कुंवर चैन सिंह

राजगढ़। 24 साल की उम्र में लोहे को भी पिघला देने का जज्बा रखने वाले कुंवर चैन सिंह का नाम तारीख पर दर्ज है. राजगढ़ जिले की नरसिंहगढ़ तहसील तब नरसिंहगढ़ रियासत के नाम से मशहूर थी, इसी रियासत के वंशज राजकुमार कुंवर चैन सिंह थे. अंग्रेजों ने भारत पर 200 वर्ष तक राज किया था और उनका शासन लगभग 1747 के आसपास शुरू हुआ था और वह धीरे-धीरे इसका विस्तार कर रहे थे, इसी दौरान भोपाल नवाब नजर मोहम्मद खां ने सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन स्टुवर्ड के साथ रायसेन में संधि की थी और अंग्रेजों ने इस संधि के जरिये 1818 में सीहोर में अपनी एक सैनिक छावनी बना ली.

शहीद कुंवर चैन सिंह

छावनी बनाने के बाद अंग्रेजों ने नरसिंहगढ़ रियासत को अपने अधीन करने की एक चाल चली, जिसके तहत उन्हें सीहोर छावनी में बुलाया गया, ताकि जबरन उनसे सौदेबाजी की जा सके, जिसके खिलाफ उन्होंने म्यान से तलवार निकाल ली और सीहोर स्थित दशहरा मैदान में लड़ते हुए शहीद हो गये. बताया जाता है कि युद्ध के समय उनका सिर वहीं पर गिर गया था, लेकिन उनका बहादुर घोड़ा उनका धड़ लेकर वापस नरसिंहगढ़ आ गया था. छारबाग में उनके बलिदान की याद दिलाती समाधि मौजूद है.

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1824 में कुंवर चैन सिंह ने मात्र 22 वर्ष की उम्र में शहादत देकर विद्रोह की जिस चिनगारी को भड़काया था. उसने उन्हें इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज कराया था. 24 जुलाई को उनकी शहादत में नमन करने लोग उनके स्मारक पर आते हैं. आज भी कुंवर चैन सिंह की अमर गाथा का गान शादी व अन्य उत्सवों में किया जाता है और गर्व से उनको याद किया जाता है.

राजगढ़। 24 साल की उम्र में लोहे को भी पिघला देने का जज्बा रखने वाले कुंवर चैन सिंह का नाम तारीख पर दर्ज है. राजगढ़ जिले की नरसिंहगढ़ तहसील तब नरसिंहगढ़ रियासत के नाम से मशहूर थी, इसी रियासत के वंशज राजकुमार कुंवर चैन सिंह थे. अंग्रेजों ने भारत पर 200 वर्ष तक राज किया था और उनका शासन लगभग 1747 के आसपास शुरू हुआ था और वह धीरे-धीरे इसका विस्तार कर रहे थे, इसी दौरान भोपाल नवाब नजर मोहम्मद खां ने सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन स्टुवर्ड के साथ रायसेन में संधि की थी और अंग्रेजों ने इस संधि के जरिये 1818 में सीहोर में अपनी एक सैनिक छावनी बना ली.

शहीद कुंवर चैन सिंह

छावनी बनाने के बाद अंग्रेजों ने नरसिंहगढ़ रियासत को अपने अधीन करने की एक चाल चली, जिसके तहत उन्हें सीहोर छावनी में बुलाया गया, ताकि जबरन उनसे सौदेबाजी की जा सके, जिसके खिलाफ उन्होंने म्यान से तलवार निकाल ली और सीहोर स्थित दशहरा मैदान में लड़ते हुए शहीद हो गये. बताया जाता है कि युद्ध के समय उनका सिर वहीं पर गिर गया था, लेकिन उनका बहादुर घोड़ा उनका धड़ लेकर वापस नरसिंहगढ़ आ गया था. छारबाग में उनके बलिदान की याद दिलाती समाधि मौजूद है.

अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 1824 में कुंवर चैन सिंह ने मात्र 22 वर्ष की उम्र में शहादत देकर विद्रोह की जिस चिनगारी को भड़काया था. उसने उन्हें इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज कराया था. 24 जुलाई को उनकी शहादत में नमन करने लोग उनके स्मारक पर आते हैं. आज भी कुंवर चैन सिंह की अमर गाथा का गान शादी व अन्य उत्सवों में किया जाता है और गर्व से उनको याद किया जाता है.

Intro:मालवा का एक ऐसा वीर योद्धा जिसने नहीं स्वीकार की थी अंग्रेजों की स्वाधीनता, कुछ ही सिपाहियों के साथ अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हुए थे कुंवर चेनसिंह ,कुछ इतिहासकार इनको मानते हैं मंगल पांडे से पहले प्रथम स्वतंत्र सेनानी, आज भी सीहोर में चीख चीख कर उनके बलिदान की याद दिलाती है उनका बलिदान स्थल, राजगढ़ के नरसिंहगढ़ रियासत के थे कुवँर चैन सिंह। आज भी 24 जुलाई को पूरे नरसिंहगढ़ में बड़े ही गर्व के साथ उनके बलिदान दिवस को याद किया जाता है ।


Body: उम्र सिर्फ 24 वर्ष और जज्बा इतना की लोहे को भी पिघला दे ऐसे ही कुछ नरसिंहगढ़ रियासत के कुंवर कुंवर चैन सिंह थे मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले की नरसिंहगढ़ तहसील, पहले नरसिंहगढ़ रियासत के नाम से प्रसिद्ध थी, इसी रियासत के राजकुमार कुंवर चैन सिंह वंशज थे जिन्होंने इतिहास के पन्नों में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखवा दिया ,कहा जाता है कि सीहोर मैं अंग्रेजों से लोहा लेते हुए उन्होंने अपनी माटी के लिए खुद को बलिदान कर दिया था।
जहां अंग्रेजों द्वारा भारत पर 200 वर्ष राज किया था और उनका शासन लगभग 1747 के आसपास शुरू हुआ था और वह धीरे-धीरे इसका विस्तार कर रहे थे, इसी दौरान भोपाल नवाब नजर मोहम्मद खां ने सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन स्टूवर्ड के साथ रायसेन में संधि की थी और अंग्रेजों ने इस संधि के द्वारा 1818 में सीहोर में अपनी एक सैनिक छावनी बना ली और मिस्टर मैडांक राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया। और वही नरसिंहगढ़ की रियासत में अंग्रेजों द्वारा दखल दी जाने लगी और नरसिंहगढ़ रियासत पर अंग्रेजों का कब्जा जमाने के लिए और पूरी तरह इसको अपने स्वाधीनता में लाने के लिए एक चाल चली गई ,जिसमें उन्होंने कुंवर चैन सिंह के खिलाफ कोलकाता स्थित गवर्नर जनरल को शिकायती पत्र लिखा गया और उनको सीहोर स्थित छावनी में बुलाया गया जिसमें उनसे जबरदस्ती नरसिंहगढ़ रियासत के बारे में सौदेबाजी की जा सके। परंतु बहादुर लोगों को किसी का भय नहीं होता है इसी प्रकार शहीद कुंवर चैन सिंह पोलिटिकल एजेंट से मिलने सिर्फ चले गए वहां पर वे अपने साथ अपने विश्वास साथी सारंगपुर निवासी हिम्मत खाओ और बहादुर खां सहित एक छोटी सी टुकड़ी को लेकर सीहोर गए, वहां पर पोलिटिकल एजेंट द्वारा उनके साथ विश्वासघात किया गया और उनको वहां पर बंदी बनाना चाहा परंतु कुंवर चैन सिंह बहुत बहादुर और वीर योद्धा थे और कहां वे अंग्रेजों के हाथ में आसानी से आने वाले थे उन्होंने अंग्रेजों से लोहा लेते हुए अपनी छोटी-सी सेना की टुकड़ी के साथ अंग्रेजों की बड़ी सेना के साथ एक बहुत बड़ा युद्ध लड़ा जिसमें उन्होंने अंग्रेजों को अपने पराक्रम और बहादुरी से भोचक्का कर दिया और अपनी अंतिम सांस तक अपने दोनों अंग रक्षकों के साथ अंग्रेजों से लड़ाई करते रहे और सीहोर स्थित दशहरा मैदान पर अपनी अंतिम सांस ली परंतु शहादत पाने से पहले उन्होंने अंग्रेजों को बता दिया की वे भारत माता के सपूत है और वह कभी आसानी से हार नहीं मानते हैं चाहे इसमें उनकी जान भी क्यों ना चली जाए। वही कहा जाता है कि सीहोर में युद्ध लड़ते वक्त उनका सिर तो वहीं पर गिर गया था परंतु उनके बहादुर घोड़े उनका धन वापस नरसिंहगढ़ लेकर आ गया और आज भी नरसिंहगढ़ स्थित छारबाग में उनके बलिदान को याद दिलाती हुई समाधि मौजूद है।


Conclusion:जहां पहला स्वतंत्र का युद्ध 1857 में लड़ा गया था और मंगल पांडे द्वारा इसकी नींव रखी गई थी परंतु कुंवर चैन सिंह नही प्रथम अपने प्राण न्योछावर करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध मालवा की माटी से 1857 के 33 वर्ष पूर्व 1824 में स्वतंत्रता की चिनगारी जगाने का काम किया था ,कुंवर चैन सिंह ने मात्र 22 वर्ष की उम्र में अपनी माटी के लिए खुद को बलिदान कर दिया और स्वतंत्रता के अमर पन्नों पर अपना नाम सर्वप्रथम दर्ज कराते हुए इस संसार से विदाई ली, वहीं अनेक युवाओं के लिए वे एक मिसाल के तौर पर हमेशा याद रखे जाते हैं और 24 जुलाई को उनकी इस शहादत में अनेकों लोग उनको नमन करने के लिए उनके स्मारक पर आते हैं और उनको नमन करते हैं वही आज भी ना सिर्फ इस जिले में बल्कि आसपास के कई जिलों में कुंवर चैन सिंह की अमर गाथा शादी और अन्य उत्सवों में गाई जाती है और गर्व से उनको याद किया जाता है।


visual

समाधि स्थल के और नरसिंहगढ़ के

बाइट

श्याम सुंदर उपाध्याय नरसिंहगढ़ इतिहास के जानकार
Last Updated : Jul 24, 2019, 5:58 PM IST
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