भोपाल। क्या आप ने कभी कोई ऐसा गांव सुना है. जिस गांव में रहने वाले 100 बर्ष के बूढ़े से लेकर ढाई बर्ष के मासूम तक हर शख्स के पैदाईश की कहानी एक हो. एक ऐसा गांव जहां बच्चे से लेकर बूढ़े तक कोई ये दावा ना कर पाए कि, ये उनका जन्म स्थान है. राजगढ़ जिले के सांका श्याम गांव की पहचान ही यही है कि, ये वो गांव है. जहां बच्चे के जन्म पर प्रतिबंध है. (Child birth Ban in Sanka Shyam village) ना ये पंचायत का पैसला है. ना कोई सरकारी आदेश. अंधविश्वास में जकड़े गांव ने खुद ही अपने परिवार और समाज पर ये पाबंदी लगा ली है. (rajgarh women curse birth baby) इस पाबंदी को गांव के लोग परंपरा का नाम देते हैं. मान्यता तो यह भी है कि, अगर गांव में कोई बच्चा पैदा हो गया तो वो जिंदा नहीं बचता. दलील ये भी है कि, बच्चे के जन्म का सूतक कोई भी मां इस गांव में नहीं गुजार सकती.
गांव में रहने वाला कोई इस गांव का नहीं: सात सौ लोगों की आबादी वाले इस गांव में रहने वाला एक भी शख्स ऐसा नहीं जो यह दावा कर सके कि, मेरी नाल इसी गांव में गड़ी है. यानि वो इसी गांव में पैदा हुआ है. सांका श्याम जी के एतिहासिक मंदिर के नाम से मशहूर इस गांव में ज्यादातर सैलानी सदियों पुराने सांका श्याम मंदिर को देखने आते हैं. मुमकिन है कि, आपने भी इस मंदिर के चलते इस गांव का नाम सुना हो, लेकिन मेरी दिलचस्पी तो उस गांव को जानने की थी. जहां परंपरा के नाम पर गर्भवती होते ही हर औरत के हिस्से ये शामत आ जाती है कि, अब गांव छोड़ना होगा.
बैलगाड़ी में बिटिया का जन्म: गांव में रहने वाली सावित्री बाई इन्ही में से एक है, अपनी जेठानी का किस्सा बताती हैं कि, कैसे दर्द उठते ही उसे बैलगाड़ी से लेकर गांव के बाहर ले जाया गया. दर्द कम हुआ तो वापिसी कर रहे थे कि बैलगाड़ी में ही बिटिया का जन्म हो गया. सावित्री बताती है कि, अब तो गाड़ी की सुविधा है. इस गांव की औरतों ने बरसात में छतरी के नीचे सागौन के पत्तों के टोपले में जाड़े की रात और, भरी बरसात में गांव की सीमा के बाहर खुले मैदान में बच्चे पैदा किए हैं.
जीने और मरने का सवाल: श्याम कंवर ने गांव में औरतों की ये हालत देखी तो सातवा महीना लगते ही भोपाल चली गई. उसके मन में डिलेवरी को लेकर जीने और मरने का सवाल था. अंधविश्वास इतना गहरा है कि बीए सेकेण्ड ईयर की छात्रा पिंकी भी इस परंपरा को वैसे ही मानती है जैसे उसकी दादी. पिंकी कहती है कि, गांव में ऐसा घटा है. अभी दस साल पहले भी एक बच्चे की मौत हो गई है. गलती यही हुई कि उसकी मां ने देर से बताया. गांव से बाहर जा नहीं पाई.
ना सरकारी योजना का लाभ, ना मिला अस्पताल: अंधविश्वास ने गर्भवती औरतों का जीवन ही संकट में नहीं डाला. बाल्कि कई सुविधाओं से इस गांव को महरूम कर दिया. हैरत की बात ये है कि, सरकार की तरफ से भी इनके अंधविश्वास को खत्म करने की कोई कोशिश नहीं हुई. ना इस बात का प्रयास कि इस गांव की महिलाओं के स्वास्थ्य की चुनौतियों को जानते समझते. यहां स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर की जाएं. स्थिति ये है कि, गांव में प्राइमरी हेल्थ सेंटर भी नहीं है.
योजना से वंछित ग्रामीण: जननी सुरक्षा योजना जैसी सरकारी सुविधाओं का लाभ भी कई वर्षों तक इन्हें यूं नहीं मिल पाया. ज्यादातर महिलाओं की डिलेवरी अस्पताल के बजाए गांव के बाहर बनाए गए एक कमरे या फिर खुले मैदान में हुई है. इन महिलाओं का नाम सरकारी रिकार्ड में कहीं दर्ज ही नहीं हो पाया है. रानी बाई बताती है कि, सरकार से ये मांग की थी कि, गांव के बाहर जो कमरा है उसमें सरकार सुविधा दे दे. पर वो तो खंडहर हो चुका है.
क्यों गांव में बच्चे के जन्म पर है रोक: ऐसी जन श्रुति है कि, यहां बना श्याम जी का मंदिर एक रात में बना है. जब ये मंदिर बन रहा था उसी समय एक बच्चे की रोने की आवाज आई और मंदिर अधूरा रह गया. कहते हैं तभी से इस गांव में बच्चे के जन्म पर रोक लग गई. बाद में कुछ घरों में जो बच्चे पैदा हुए वो या तो विकलांग थे या बचे ही नहीं, इस बात को लेकर गांव वालों का विश्वास और गहरा होता गया.
डिलेवरी के लिए महिलाएं जाती हैं दूर: गांव के गोपाल गुर्जर एक दूसरा कारण भी बताते हैं, वे कहते हैं कि, ये मंदिर छठवीं शताब्दी का है. हमारे बाप दादा इस मंदिर में पूजा पाठ करते हैं. मंदिर की शुद्धता के लिए ये मर्यादा रखी गई है कि, सूतक का समय यानि जचकी के बाद का समय कोई महिला यहां नहीं गुजारेगी. भूपेन्द्र गुर्जर नए जमाने के हैं. वे कहते हैं कि, जो मान्यता चली आई है उसका खामियाजा ये हुआ कि गांव में अस्पताल की सुविधा नहीं हो पाई है. अब भी बारिश में पानी भर जाता है और डिलेवरी के लिए महिलाओं को दूर जाना पड़ता है.
आस्था या अंधविश्वास! अपने आप बजने लगा मंदिर में लगा घंटा, जुट रही श्रद्धालुओं की भीड़
अंधविश्वास से जकड़ा है गांव: वक्त की रफ्तार में देखिए तो शहरों के साथ उनके किनारे खड़े गाव में भी कितना कुछ बदल रहा है, आस्थाएं बदली, परंपरा बदली, ऐसा नहीं है कि, बदलाव की बयार सांका गांव तक नहीं पहुंची. इस गांव ने भी दुनिया के नए रंग ढंग के साथ खुद को बदला है, लेकिन सांका गांव का ये यकीन सदियों बाद भी कायम है. भगवान खुद ही नहीं चाहते कि, ये गांव किसी बच्चे की आवाज सुने. एक अजन्मा अजन्मा गांव जहां किसी ने बच्चे की पहली रुलाई की खुशी नहीं मनाई.