राजगढ़। मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले के नरसिंहगढ़ का जब भी नाम आता है तो नरसिंहगढ़ की खूबसूरती और इसके प्राकृतिक सौंदर्य को याद किया जाता है, लेकिन राजगढ़ जिले का ये शहर अपनी खूबसूरती के साथ-साथ एक ऐसे वीर योद्धा की जन्मस्थली भी है, जिसने काफी कम उम्र में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए, मालवा अंचल में सबसे पहले अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगुल फूंका था.
नरसिंहगढ़ रियासत के कुंवर चैन सिंह का जन्म 1802 में नरसिंहगढ़ रियासत में हुआ था और उन्होंने अपनी पढ़ाई खत्म होने के बाद रियासत का काम काज संभालते हुए 22 साल की उम्र में आजादी का बिगुल फूंकते हुए अपनी आजादी के लिए शहादत दी थी.
अंग्रेज बनाना चाहते थे गुलाम
साल 1824 ये वो साल था जब अंग्रेज धीरे-धीरे पूरे देश पर अपना कब्जा जमा रहे थे, साम-दाम-दंड-भेद से अंग्रेज एक-एक कर सभी रियासतों को अपने अधीन करते जा रहे थे, मध्य प्रदेश की सियासत भी अंग्रेजों की कुटिल चाल की शिकार हो रही थी.
जहां अंग्रेजों ने 1747 से अपनी सियासत को फैलाना शुरू किया था और वो धीरे-धीरे इसका विस्तार करते जा रहे थे. इसी दौरान जहां भोपाल नवाब नजर मोहम्मद खा ने साल 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी के कैप्टन स्टूवर्ड के साथ रायसेन में संधि की थी और अंग्रेजों ने इस संधि के जरिए 1818 में सीहोर में अपनी 1000 सैनिकों की छावनी बनाई थी, वहीं जहां समझौते के तहत कंपनी द्वारा पॉलिटिकल एजेंट मेडॉक को इन फौजियों का प्रभारी बनाया गया.
जिसके बाद पॉलिटिकल एजेंट को भोपाल सहित आसपास की रियासतें नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ से संबंधित अंग्रेजों के राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिए गए थे. नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ने अंग्रेजों की चाल को समझते हुए अंग्रेजों की इस रणनीति को गुलामी का संदेश मानते हुए, स्वीकार नहीं किया और उनके खिलाफ आजादी का बिगुल फूंक दिया.
वहीं जब अंग्रेजों को कुंवर की इस बात का पता लगा तो वे तिलमिला गए और उन्होंने उनके खिलाफ चाल चलना शुरू कर दी और वहीं उनके मोहरे दीवान आनंदराम बक्शी और मंत्री रूपराम बोहरा जो अंग्रेजों से मिले हुए थे. जब इस बात का पता कुंवर को लगा तो उन्होंने तुरंत आनंद राम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा को मृत्यु दंड दे दिया.
कुंवर चैन सिंह द्वारा दिए गए मृत्युदंड को लेकर रूपराम बोहरा के भाई ने इसकी शिकायत कोलकाता में गवर्नर जनरल से कर दी, जिनके निर्देश पर पॉलिटिकल एजेंट मेडॉक ने कुंवर चैन सिंह को बैठक के लिए बुलाया और हत्या के अभियोग से बचाने के लिए उन पर जबरदस्ती शर्तें थोपी जा रही थीं, जिसको उन्होंने अस्वीकार कर दिया.
इसके बाद सीहोर में उनके बीच में चल रही बातचीत के दौरान राजनीतिक एजेंट ने उनके विरुद्ध चाल चली और सीहोर छावनी में ही उनको बंदी बनाने की कोशिश की गई, लेकिन अंग्रेजों की इस चाल को समझते हुए उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ सीहोर में ही युद्ध छेड़ दिया और अपने साथियों के साथ वो अंग्रेजों से लड़ाई लड़ते रहे. जानकार बताते हैं कि 24 जुलाई 1824 को अंग्रेजों से उनका घमासान युद्ध हुआ और अपने 43 योद्धाओं के साथ वो अंग्रेजों से लड़ रहे थे. इसी दौरान अंग्रेजों द्वारा छल से उनकी भी हत्या कर दी गई.
आज भी अंचल में गाई जाती है उनकी अमर गाथा
1824 में कुंवर चैन सिंह ने मात्र 22 वर्ष की उम्र में विद्रोह की उस चिंगारी को भड़काया था, जिसके लिए इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में उनका नाम आज भी अमर है और 24 जुलाई को पूरे नरसिंहगढ़ में उनकी शहादत को आज भी याद किया जाता है और नरसिंहगढ़ में आज भी उनको गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है.