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ओशो: MP की वो शख्सियत जिससे खौफ खाते थे अमेरिका और रूस, डरते थे 21 देशों के हुक्मरान

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Published : Mar 21, 2019, 2:21 AM IST

आध्यात्मिक गुरू रजनीश ओशो का जन्म मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के एक छोटे से गांव कुचवाड़ा में हुआ था. जहां आज भी ओशो से जुड़ी कई यादें मौजूद हैं. कुचवाड़ा गांव में ओशो का आश्रम बना हुआ है.

रजनीश ओशो

रायसेन। कोई सोच भी नहीं सकता कि लंबी बेतरतीब दाढ़ी, सिर पर टोपी और चोला ओढ़ने वाले एक आध्यात्मिक गुरू की ताकत से सोवियत रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियां थर्रा उठी होंगी. मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के छोटे से गांव कुचवाड़ा में जन्मे रजनीश मोहन चंद्र जैन को कभी ढोंगी कहा गया तो कभी नास्तिक, किसी ने धर्मगुरु कहा, किसी ने दार्शनिक तो किसी ने आलोचक. लेकिन, यही रजनीश जब ओशो बने तो उनके शिष्यों का काफिला खड़ा हो गया.

ओशो की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मौत के करीब तीन दशक बाद भी दुनिया भर में बसे उनके शिष्यों की संख्या कई छोटे-छोटे देशों की आबादी से ज्यादा होगी. यही वजह थी कि 70 और 80 के दशक में अमेरिका जैसी महाशक्ति उनके खौफ से थर्रा उठी. खुद को सबसे ज्यादा आधुनिक देशों में गिनने वाला अमेरिका एक आज़ाद ख्याल भारतीय संत के विचारों से कांप गया. ओशो की आज़ाद ख्याली को अमरीकी हुकूमत ने वहां की संस्कृति के खिलाफ माना. इसके बावजूद अमेरिका में ओशो की लोकप्रियता इस हद तक बढ़ी कि ओरेगॉन में उनके शिष्यों ने 60 हजार एकड़ जगह में रजनीशपुरम नाम से ओशो का आश्रम बना दिया, जिसे वे शहर के रूप में रजिस्टर भी कराना चाहते थे, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के चलते ऐसा हो न सका.

अमेरिका जिसे नई दुनिया कहा जाता था, उस नई दुनिया में एक और नई दुनिया बस गई थी, ओशो रजनीश की दुनिया, ऐसी दुनिया जहां कुछ भी वर्जित नहीं था, जहां दुनियावी वर्जनाओं को नकार कर अध्यात्म के उच्च स्तर तक ले जाया जाता था. जहां मृत्यु दुख नहीं उत्सव था, जहां संन्यास से समाधि की ओर जाने की नहीं, संभोग से समाधि की ओर जाने की दीक्षा दी जाती थी. अमेरिका में 60 के दशक में पनपे हिप्पी आंदोलन को जो कुछ करने के लिए समाज से कटना पड़ा, ओशो वही सब समाज में घुलमिलकर कर रहे थे. 70 के दशक में प्रेम, सेक्स जैसे टैबू माने जाने वाले शब्दों पर उनके आश्रमों में खुलेआम चर्चाएं होती थीं.

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इतना सब होने के बाद ओशो को अमेरिका में कैसे बर्दाश्त किया जा सकता था. 1985 में उन्हें वीजा संबंधित नियमों का हवाला देकर हिरासत में ले लिया गया और 5 साल तक अमेरिका वापस न आने की सजा दी गई. अमेरिका के दबाव में जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा जैसे 21 देशों ने ओशो के प्रवेश पर रोक लगा दी. रूस ने भी ओशो के आंदोलन को बैन कर दिया. इसके बाद ओशो भारत लौट आए, यहां भी उनकी विवादित छवि ने साथ नहीं छोड़ा. विरोधाभासी छवि और वैश्विक विरोधों का सामना करते हुए 1990 में उनकी मौत हो गई, जिसकी वजह अमेरिकी जेल में रहने के दौरान उन्हें धीमा जहर दिया जाना भी बताया जाता है. ओशो से अमेरिका के बैर और उनकी मौत की कोई भी वजह हो, लेकिन इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि मध्यप्रदेश के छोटे से गांव से निकले इस दार्शनिक या धर्मगुरु ने जो प्रसिद्धि हासिल की, वो बड़े-बड़े नेता भी नहीं हासिल कर पाते. यही है आध्यत्मिक क्रांतिकारी ओशो की हकीकत.

रायसेन। कोई सोच भी नहीं सकता कि लंबी बेतरतीब दाढ़ी, सिर पर टोपी और चोला ओढ़ने वाले एक आध्यात्मिक गुरू की ताकत से सोवियत रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियां थर्रा उठी होंगी. मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के छोटे से गांव कुचवाड़ा में जन्मे रजनीश मोहन चंद्र जैन को कभी ढोंगी कहा गया तो कभी नास्तिक, किसी ने धर्मगुरु कहा, किसी ने दार्शनिक तो किसी ने आलोचक. लेकिन, यही रजनीश जब ओशो बने तो उनके शिष्यों का काफिला खड़ा हो गया.

ओशो की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मौत के करीब तीन दशक बाद भी दुनिया भर में बसे उनके शिष्यों की संख्या कई छोटे-छोटे देशों की आबादी से ज्यादा होगी. यही वजह थी कि 70 और 80 के दशक में अमेरिका जैसी महाशक्ति उनके खौफ से थर्रा उठी. खुद को सबसे ज्यादा आधुनिक देशों में गिनने वाला अमेरिका एक आज़ाद ख्याल भारतीय संत के विचारों से कांप गया. ओशो की आज़ाद ख्याली को अमरीकी हुकूमत ने वहां की संस्कृति के खिलाफ माना. इसके बावजूद अमेरिका में ओशो की लोकप्रियता इस हद तक बढ़ी कि ओरेगॉन में उनके शिष्यों ने 60 हजार एकड़ जगह में रजनीशपुरम नाम से ओशो का आश्रम बना दिया, जिसे वे शहर के रूप में रजिस्टर भी कराना चाहते थे, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के चलते ऐसा हो न सका.

अमेरिका जिसे नई दुनिया कहा जाता था, उस नई दुनिया में एक और नई दुनिया बस गई थी, ओशो रजनीश की दुनिया, ऐसी दुनिया जहां कुछ भी वर्जित नहीं था, जहां दुनियावी वर्जनाओं को नकार कर अध्यात्म के उच्च स्तर तक ले जाया जाता था. जहां मृत्यु दुख नहीं उत्सव था, जहां संन्यास से समाधि की ओर जाने की नहीं, संभोग से समाधि की ओर जाने की दीक्षा दी जाती थी. अमेरिका में 60 के दशक में पनपे हिप्पी आंदोलन को जो कुछ करने के लिए समाज से कटना पड़ा, ओशो वही सब समाज में घुलमिलकर कर रहे थे. 70 के दशक में प्रेम, सेक्स जैसे टैबू माने जाने वाले शब्दों पर उनके आश्रमों में खुलेआम चर्चाएं होती थीं.

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इतना सब होने के बाद ओशो को अमेरिका में कैसे बर्दाश्त किया जा सकता था. 1985 में उन्हें वीजा संबंधित नियमों का हवाला देकर हिरासत में ले लिया गया और 5 साल तक अमेरिका वापस न आने की सजा दी गई. अमेरिका के दबाव में जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा जैसे 21 देशों ने ओशो के प्रवेश पर रोक लगा दी. रूस ने भी ओशो के आंदोलन को बैन कर दिया. इसके बाद ओशो भारत लौट आए, यहां भी उनकी विवादित छवि ने साथ नहीं छोड़ा. विरोधाभासी छवि और वैश्विक विरोधों का सामना करते हुए 1990 में उनकी मौत हो गई, जिसकी वजह अमेरिकी जेल में रहने के दौरान उन्हें धीमा जहर दिया जाना भी बताया जाता है. ओशो से अमेरिका के बैर और उनकी मौत की कोई भी वजह हो, लेकिन इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि मध्यप्रदेश के छोटे से गांव से निकले इस दार्शनिक या धर्मगुरु ने जो प्रसिद्धि हासिल की, वो बड़े-बड़े नेता भी नहीं हासिल कर पाते. यही है आध्यत्मिक क्रांतिकारी ओशो की हकीकत.

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ओशो: MP की वो शख्सियत जिससे खौफ खाते थे अमेरिका और रूस, डरते थे 21 देशों के हुक्मरान





रायसेन। कोई सोच भी नहीं सकता कि लंबी बेतरतीब दाढ़ी, सिर पर टोपी और चोला ओढ़ने वाले एक आध्यात्मिक गुरू की ताकत से सोवियत रूस और अमेरिका जैसी महाशक्तियां थर्रा उठी होंगी. मध्यप्रदेश के रायसेन जिले के छोटे से गांव कुचवाड़ा में जन्मे रजनीश मोहन चंद्र जैन को कभी ढोंगी कहा गया तो कभी नास्तिक, किसी ने धर्मगुरु कहा, किसी ने दार्शनिक तो किसी ने आलोचक. लेकिन, यही रजनीश जब ओशो बने तो उनके शिष्यों का काफिला खड़ा हो गया.



ओशो की लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मौत के करीब तीन दशक बाद भी दुनिया भर में बसे उनके शिष्यों की संख्या कई छोटे-छोटे देशों की आबादी से ज्यादा होगी. यही वजह थी कि 70 और 80 के दशक में अमेरिका जैसी महाशक्ति उनके खौफ से थर्रा उठी. खुद को सबसे ज्यादा आधुनिक देशों में गिनने वाला अमेरिका एक आज़ाद ख्याल भारतीय संत के विचारों से कांप गया. ओशो की आज़ाद ख्याली को अमरीकी हुकूमत ने वहां की संस्कृति के खिलाफ माना. इसके बावजूद अमेरिका में ओशो की लोकप्रियता इस हद तक बढ़ी कि ओरेगॉन में उनके शिष्यों ने 60 हजार एकड़ जगह में रजनीशपुरम नाम से ओशो का आश्रम बना दिया, जिसे वे शहर के रूप में रजिस्टर भी कराना चाहते थे, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के चलते ऐसा हो न सका.



अमेरिका जिसे नई दुनिया कहा जाता था, उस नई दुनिया में एक और नई दुनिया बस गई थी, ओशो रजनीश की दुनिया, ऐसी दुनिया जहां कुछ भी वर्जित नहीं था, जहां दुनियावी वर्जनाओं को नकार कर अध्यात्म के उच्च स्तर तक ले जाया जाता था. जहां मृत्यु दुख नहीं उत्सव था, जहां संन्यास से समाधि की ओर जाने की नहीं, संभोग से समाधि की ओर जाने की दीक्षा दी जाती थी. अमेरिका में 60 के दशक में पनपे हिप्पी आंदोलन को जो कुछ करने के लिए समाज से कटना पड़ा, ओशो वही सब समाज में घुलमिलकर कर रहे थे. 70 के दशक में प्रेम, सेक्स जैसे टैबू माने जाने वाले शब्दों पर उनके आश्रमों में खुलेआम चर्चाएं होती थीं.



इतना सब होने के बाद ओशो को अमेरिका में कैसे बर्दाश्त किया जा सकता था. 1985 में उन्हें वीजा संबंधित नियमों का हवाला देकर हिरासत में ले लिया गया और 5 साल तक अमेरिका वापस न आने की सजा दी गई. अमेरिका के दबाव में जर्मनी, ब्रिटेन, कनाडा जैसे 21 देशों ने ओशो के प्रवेश पर रोक लगा दी. रूस ने भी ओशो के आंदोलन को बैन कर दिया. इसके बाद ओशो भारत लौट आए, यहां भी उनकी विवादित छवि ने साथ नहीं छोड़ा. विरोधाभासी छवि और वैश्विक विरोधों का सामना करते हुए 1990 में उनकी मौत हो गई, जिसकी वजह अमेरिकी जेल में रहने के दौरान उन्हें धीमा जहर दिया जाना भी बताया जाता है. ओशो से अमेरिका के बैर और उनकी मौत की कोई भी वजह हो, लेकिन इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि मध्यप्रदेश के छोटे से गांव से निकले इस दार्शनिक या धर्मगुरु ने जो प्रसिद्धि हासिल की, वो बड़े-बड़े नेता भी नहीं हासिल कर पाते. यही है आध्यत्मिक क्रांतिकारी ओशो की हकीकत. ईटीवी भारत, मध्यप्रदेश.


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