मंडला। मांदर की थाप और पेरों में घुंघरुओं की झनकार के साथ एक ही स्वर में गाकर नाचते हुए इन आदिवासी भाई-बहनों को देखकर हर किसी का मन प्रफुल्लित हो जाता है. आदिवासियों की इस कला को लोग कर्मा नृत्य के नाम से जानते हैं. जिसे आदिवासियों का सबसे मांगलिक नृत्य माना जाता है.
कर्मा नृत्य का आयोजन आदिवासी लोग खासतोर पर खुशी के इजहार के तौर पर करते हैं. चाहे कोई शुभ काम हो या खुशी का मौका. जब तक कर्मा नृत्य का आयोजन न हो तो उसे अधूरा माना जाता है. कर्मा नृत्य सदियों से गोंडवाना लोक-संस्कृति का पर्याय बना हुआ है. जो सतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों के बीच बसी आदिवासी लोक संस्कृति में आज भी बिखरा हुआ है.
आदिवासी बाहुल्य मंडला जिले में तो कर्मा नृत्य का अलग ही नजारा देखने को मिलता है. ठंड की दस्तक शुरु होते ही जिले के लगभग हर गांव में कर्मा का आयोजन होता है. जहां दूर से ही मांदर और टिमकी धाप के बीच आती बांसुरी की कर्ण प्रिय ध्वनि हर किसी को अपनी ओर खींच ले जाती है. फिर लोकसंगीत की शाम ऐसी सजती है कि कब रात की छटा भोर में बदल जाए किसी को पता भी नहीं चलता.
कर्मा नर्तक रमेश धुर्वे बताते है कि उनकी यह परंपरा सदियों से चली आ रही है. जहां आदिवासी महिलाएं और पुरुष दल बनाकर कर्मा नृत्य करते हैं. कर्मा नृत्य में खास तरह की ढोलक का इस्तेमाल किया जाता है जिसे मांदर कहा जाता है, मांदर के साथ टिमकी, लकड़ी से बने चुटके, झाँझ, बांसुरी जैसे वाद्यों का इस्तेमाल कर्मा नृत्य में होता है.
यूं तो भारतीय संस्कृति की परंपरपराए और कला कदम-कदम पर बदलती हैं. लेकिन आदिवसियों के नृत्य कर्मा की खासियत यही है कि वह आदिवासियों को आपस में जोड़े रखती है. आदिवासियों की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है जिसे देखकर आज भी हर किसी का मन खुशी से भर जाता है.