झाबुआ। बामनिया में आजादी के पहले ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आजादी के लिए और आजादी के बाद अपनी ही सरकारों से जनजाति समुदाय के उत्थान के लिए लड़ने वाले मामा बालेश्वर दयाल की पुण्यतिथि मनाई गई. उनकी पुण्यतिथि पर आठवीं पुस्तक और स्मारिका का विमोचन किया गया. इस दौरान मुलताई के पूर्व विधायक डॉ. सुनीलम और उनकी अनुयायी मालती देवी ने बामनिया में मौजूद रहे.
मामा जी से जुड़ी कई यादें और कई घटनाएं उनके अनुयायियों द्वारा स्मारिका के रूप में संग्रहित की. अब तक मामा जी के जीवन पर 7 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं.
आजादी के पहले देसी रियासतों को खत्म करने को लेकर कश्मीर में पंडित नेहरू की अध्यक्षता में बैठक हुई थी, जिसमें यूपी के निवाड़ीकला में जन्मे बालेश्वर दयाल दीक्षित मौजूद थे. आजादी के बाद रियासतदार कांग्रेस में शामिल हो गए और मामाजी को पंडित नेहरू की ये बेरुखी नहीं भाई और उन्होंने 3 जनवरी 1948 को कांग्रेस छोड़ दी.
अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आजादी के पहले भी मामा बालेश्वर दयाल लड़े उन्होंने खाचरोद में हरिजनों के उत्थान के लिए आंदोलन किया. देश भर में जारी तत्कालीन जागीरी प्रथा को बंद करने का भी उन्होंने अभियान चलाया. स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मामा बालेश्वर दयाल दीक्षित के विद्रोह के चलते उन्हें 40 से अधिक रियासतों से बेदखल भी होना पड़ा. उन्होंने जनजाति लोगों के उत्थान, राजनीतिक विकास, आर्थिक प्रगति के लिए हर संभव प्रयास किया और अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया.
मामाजी ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात के भील क्षेत्रों में अपना वर्चस्व कायम किया और इन्हीं भील समुदाय में से अपने मजबूत अनुयायियों को विधानसभा और संसद में भेजा.
बताया जाता कि मामा जी के कारण ही झाबुआ रियासत के राजा को ब्रिटिश सरकार ने गद्दी से हटा दिया था. उन्होंने 'बेदर्द झाबुआ' नाम की किताब लिखी थी जो ब्रिटिश पार्लियामेंट में पहुंच गई. इसके बाद झाबुआ के राजा को अपनी गद्दी गवाना पड़ी. इधर शोषित और वंचितों के लिए लड़ाई लड़ते-लड़ते मामा बालेश्वर दयाल समाजवादी नेता भी बन गए और देशभर में उन्हें मामा बालेश्वर दयाल के नाम से पहचाना जाने लगा.