झाबुआ। मां भारती को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए वीर सपूतों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया. सैकड़ों सपूतों के बलिदान के बाद 15 अगस्त 1947 को देश को खुली हवा में सांस लेने का मौका मिला था. उन्हीं में से एक क्रांतिकारी वीर थे चंद्रशेखर आजाद. जिनका महज नाम लेने से ही इतिहास गौरवान्वित हो जाता है. 6 जुलाई 1906 को झाबुआ में जन्मे चंद्रशेखर आजाद पूरे जीवन आजाद ही रहे.
साहित्यकार केके त्रिवेदी ने बताया कि चंद्रेशखर का बचपन भील मित्रों के साथ गुजरा था, उनके साथ रहकर तीरंदाजी और गोफन जैसे हथियार चलाने का प्रशिक्षण लिया था. जो आजादी की लड़ाई में खूब काम आया. आजाद के पिता अकाल पड़ने के चलते झाबुआ छोड़कर अलीराजपुर रियासत के भाबरा गांव में रहने लगे थे.
चंद्रशेखर का नाम कैसे पड़ा आजाद चंद्रशेखर
पढ़ाई के दौरान अमृतसर के जलियावाला बाग हत्याकांड ने आजाद को अंदर से झकझोर दिया था. उनके मन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बदले की ज्वाला भड़क उठी और उसी समय महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया था. तब आजाद अपने साथियों के साथ इस आंदोलन में कूद पड़े. इस दौरान उनकी गिरफ्तारी भी हुई. गिरफ्तारी के दौरान उन्हें 15 बेतों की सजा मिली. इसी सजा ने चंद्रशेखर को आजाद के नाम से मशहूर कर दिया.
हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का हुआ गठन
15 बेतों की सजा ने आजाद को और बड़ा क्रांतिकारी बना दिया, वे हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गये. अगस्त 1925 को काकोरी में उन्होंने पैसा व हथियार लेकर जा रही ट्रेन को अपने साथियों के साथ लूट लिया था और 1927 में राम प्रसाद बिस्मिल के साथ उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रांतिकारी पार्टियों को मिलाकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया.
जब जवाहर लाल नेहरू से मिले आजाद
सुखदेव, राजगुरु, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस, बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, लाला लाजपत राय जैसे महान क्रांतिकारियों का दल देश की आजादी के लिए अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहे थे. इसी दौरान लाला लाजपत राय की मौत अंग्रेजों की पिटाई से हो गई. जिसने आजाद को विचलित कर दिया. इसका बदला लेने के लिए उन्होंने दिल्ली की असेंबली में बम फेंककर आजादी की आवाज और बुलंद की. इस धमाके के आरोप में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई. उसके पहले आजाद अपने साथियों की सजा कम कराने के लिए 27 फरवरी 1931 को जवाहरलाल नेहरू से मिले थे. लेकिन बात नहीं बनी.
आखिरी गोली से आजाद ने दी प्राणों की आहुति
नेहरू से मिलकर लौटते समय आजाद अपनी साइकिल से अल्फ्रेड पार्क चले गए. जहां किसी भेदिये ने अंग्रेजों को आजाद के होने की सूचना दे दी और पुलिस आजाद और उनके साथियों को घेरकर गोलियां बरसाने लगी, आजाद ने भी दिलेरी के साथ मुकाबला किया. इस दौरान जब एक गोली बची तो उससे आजाद ने खुद को उड़ा लिया. आजाद हमेशा एक शेर कहा करते थे 'दुश्मनों की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे.
पीएम मोदी ने भी किया नमन
पूर्ववर्ती मध्यप्रदेश सरकार ने शहीद चंद्रशेखर आजाद के जन्म स्थल को एक संग्रहालय के रूप में विकसित किया है. जिसे आजाद की कुटिया के नाम से जाना जाता है, जहां 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नमन करने पहुंचे थे.