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गल और चूल त्योहार से मन्नतधारियों ने पूरी की मन्नत - gal and chool celebrated in jhabua

एमपी के झाबुआ में सोमवार को धूमधाम से होली मनाई गई. इस दौरान आदिवासियों ने अपना पारंपरिक त्योहार गल और चूल भी मनाया.

gal and chool in jhabua
झाबुआ
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Published : Mar 29, 2021, 7:00 PM IST

झाबुआः जनजाति बाहुल्य झाबुआ जिले में धुलेंडी के दिन आदिवासी समुदाय ने परंपरागत त्योहार गल और चूल मनाकर मनौतियां (मन्नत) पूरी की. जिले में दो दर्जन से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में इन पर्वों का आयोजन किया गया. इस दौरान मुर्गों और बकरों की बलियां भी दी जाती हैं. गल और चूल मनाए जाने वाले स्थानों पर भारी भीड़ जुटी.

गल और चूल में मुर्गों और बकरों की बलियां भी दी जाती हैं.

एक सप्ताह तक व्रत रखता है मन्नतधारी
होलिका दहन के दूसरे दिन धुलेंडी की शाम को आदिवासी समाज में गल घूमने की प्रथा है, जिसके तहत आदिवासी मन्नतधारी व्यक्ति एक सप्ताह पूर्व से व्रत रखता है और अपने शरीर पर हल्दी लगाकर लाल वस्त्र पहनता है. इसके अलावा सिर पर सफेद पगड़ी, हाथों में नारियल और कांच रहता है. मन्नतधारी के गाल पर काला निशान भी होता है. आदिवासी धुलेंडी के दिन गल देवरा घूमते हैं.

gal and chool
मचान

25 फिट ऊंचे मचान पर लटकाया जाता है मन्नतधारी
गल 20 से 25 फिट ऊंचा लकड़ी का मचान होता है. मचान गेरू के लाल कलर से रंगा होता है. यह अक्सर गांव और फलिये के बहार स्थित रहता है. इस मचान पर एक लंबा लकड़ी का मजबूत डंडा बहार निकला होता है, जिस पर मन्नतधारी व्यक्ति को लटका कर बांधा जाता है. इसके बाद नीचे से उसे रस्सी से चारों ओर घुमाया जाता है. यह प्रक्रिया चार से पांच बार की जाती है. गल देवरा के नीचे पुजारी, बड़वा बकरे की बलि देता है और शराब की धार गल देवता को दी जाती है.

jhabua
मन्नतधारी

शरीर पर हल्दी और कुमकुम लगाकर घूमते हैं मन्नतधारी
धुलेंडी की शाम को आदिवासी समाज में गल घुमने की प्रथा है. मन्नत पूरी करने से पहले आदिवासी समुदाय के मन्नतधारी व्यक्ति एक सप्ताह तक व्रत रख भक्ति करता है. इस दौरान आदिवासियों की भीड़ इकट्ठा होती है. कई जगहों पर झूले, चकरी भी लगते हैं. आदिवासी लोग ढोल बजाते हैं, नाचते और गाते हैं. बकरे का सिर पुजारी लेता हैं और धड़ मन्नतधारी का परिवार ले जाता है. फिर गांव में खाने पीने की दावत होती है.

यह भी पढ़ेंः होली के अनोखे रंग, PPE किट में मेडिकल छात्रों ने खेली होली

त्योहार की हैं अलग मान्यताएं
माना जाता है कि घर में किसी प्रकार की बीमारी न हो, देवता गांव और परिवार के लोगों पर प्रसन्न रहे इसलिये इस पर्व को मनाया जाता है. जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गल के साथ ही चूल भी वनवासी चलते हैं, जिसके तहत दहकते अंगारों पर महिला, पुरुष, बच्चे नंगे पांव चलते हैं. चूल चलने के पीछे भी मान्यताएं हैं. माना जाता है कि ऐसा करने से बीमारियां दूर रहती हैं.

अंगारों पर चलने की मन्नत को कहते हैं चूल
गल के अलावा जिले में चूल का मेला पेटलावद इलाके में मनाया जाता है. इस दौरान जनजाति समुदाय की भीड़ इन मन्नत को देखने के लिए जमा होती है. कयडावद, रायपुरिया, करवड़ में झूले, चकरी ओर मेले जैसा माहौल रहता है. आदिवासी लोग ढोल बजाते हैं, नाचते और गाते हैं. जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गल के साथ ही चूल का पर्व भी मनाया जाता है. चूल में 10 से 20 फिट की खंती बनाई जाती है, जिसमें दहकते अंगारों को डाला जाता है. इन अंगारों पर महिला, पुरुष और बच्चे नंगे पांव चलते हैं.

झाबुआः जनजाति बाहुल्य झाबुआ जिले में धुलेंडी के दिन आदिवासी समुदाय ने परंपरागत त्योहार गल और चूल मनाकर मनौतियां (मन्नत) पूरी की. जिले में दो दर्जन से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में इन पर्वों का आयोजन किया गया. इस दौरान मुर्गों और बकरों की बलियां भी दी जाती हैं. गल और चूल मनाए जाने वाले स्थानों पर भारी भीड़ जुटी.

गल और चूल में मुर्गों और बकरों की बलियां भी दी जाती हैं.

एक सप्ताह तक व्रत रखता है मन्नतधारी
होलिका दहन के दूसरे दिन धुलेंडी की शाम को आदिवासी समाज में गल घूमने की प्रथा है, जिसके तहत आदिवासी मन्नतधारी व्यक्ति एक सप्ताह पूर्व से व्रत रखता है और अपने शरीर पर हल्दी लगाकर लाल वस्त्र पहनता है. इसके अलावा सिर पर सफेद पगड़ी, हाथों में नारियल और कांच रहता है. मन्नतधारी के गाल पर काला निशान भी होता है. आदिवासी धुलेंडी के दिन गल देवरा घूमते हैं.

gal and chool
मचान

25 फिट ऊंचे मचान पर लटकाया जाता है मन्नतधारी
गल 20 से 25 फिट ऊंचा लकड़ी का मचान होता है. मचान गेरू के लाल कलर से रंगा होता है. यह अक्सर गांव और फलिये के बहार स्थित रहता है. इस मचान पर एक लंबा लकड़ी का मजबूत डंडा बहार निकला होता है, जिस पर मन्नतधारी व्यक्ति को लटका कर बांधा जाता है. इसके बाद नीचे से उसे रस्सी से चारों ओर घुमाया जाता है. यह प्रक्रिया चार से पांच बार की जाती है. गल देवरा के नीचे पुजारी, बड़वा बकरे की बलि देता है और शराब की धार गल देवता को दी जाती है.

jhabua
मन्नतधारी

शरीर पर हल्दी और कुमकुम लगाकर घूमते हैं मन्नतधारी
धुलेंडी की शाम को आदिवासी समाज में गल घुमने की प्रथा है. मन्नत पूरी करने से पहले आदिवासी समुदाय के मन्नतधारी व्यक्ति एक सप्ताह तक व्रत रख भक्ति करता है. इस दौरान आदिवासियों की भीड़ इकट्ठा होती है. कई जगहों पर झूले, चकरी भी लगते हैं. आदिवासी लोग ढोल बजाते हैं, नाचते और गाते हैं. बकरे का सिर पुजारी लेता हैं और धड़ मन्नतधारी का परिवार ले जाता है. फिर गांव में खाने पीने की दावत होती है.

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त्योहार की हैं अलग मान्यताएं
माना जाता है कि घर में किसी प्रकार की बीमारी न हो, देवता गांव और परिवार के लोगों पर प्रसन्न रहे इसलिये इस पर्व को मनाया जाता है. जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गल के साथ ही चूल भी वनवासी चलते हैं, जिसके तहत दहकते अंगारों पर महिला, पुरुष, बच्चे नंगे पांव चलते हैं. चूल चलने के पीछे भी मान्यताएं हैं. माना जाता है कि ऐसा करने से बीमारियां दूर रहती हैं.

अंगारों पर चलने की मन्नत को कहते हैं चूल
गल के अलावा जिले में चूल का मेला पेटलावद इलाके में मनाया जाता है. इस दौरान जनजाति समुदाय की भीड़ इन मन्नत को देखने के लिए जमा होती है. कयडावद, रायपुरिया, करवड़ में झूले, चकरी ओर मेले जैसा माहौल रहता है. आदिवासी लोग ढोल बजाते हैं, नाचते और गाते हैं. जिले के कई ग्रामीण क्षेत्रों में गल के साथ ही चूल का पर्व भी मनाया जाता है. चूल में 10 से 20 फिट की खंती बनाई जाती है, जिसमें दहकते अंगारों को डाला जाता है. इन अंगारों पर महिला, पुरुष और बच्चे नंगे पांव चलते हैं.

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