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हल्की बारिश के बीच जंगलों में मिलता है पिहरी, देसी मशरूम की है अलग पहचान

मशरूम की ऐसी प्रजाती है जो घने जंगलों में पाई जाती है. इसको वनस्पति मांस का सबसे अच्छा विकल्प कहा जाता है. जानें पिहरी के बार में...

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Published : Aug 13, 2020, 8:04 PM IST

pihri
पिहरी

जबलपुर। देश के कई इलाकों में सदियों से मशरूम की एक प्रजाति लागों के पसंदिदा भोजन में शामिल है. लेकिन इस प्रजाति के बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं. मशरूम की प्रजाति पिहरी एक शत-प्रतिशत प्राकृतिक उपज है, जो बांस के पेड़ों की जड़ों में बारिश के मौसम में अपने आप पैदा हो जाती है. इसको वनस्पति मांस का सबसे अच्छा विकल्प कहा जाता है. वहीं पिहरी के बारे में कहा जाता है कि ये न सिर्फ मांस से ज्यादा पौष्टिक और फायदेमंद है बल्कि उससे कहीं ज्यादा लजीज भी है. वहीं डॉक्टर्स भी शाकाहारियों को मांस के मिलने वाली पौष्टिक्ता के लिए इसे खाने की सलाह देते हैं.

देसी मशरूम पिहरी

आदिवासियों को होती है अच्छी पहचान

देश के कई इलाकों में यह सदियों से लोगों का पसंदीदा खाद्य रहा है. बाजार में यह करीब पांच सौ से छह सौ रुपए किलो तक बेहद मुश्किल से मिलता है. एक और खास बात यह है कि इसकी पहचान आदिवासी समुदाय को ही बेहतर होती है, जिससे उन्हें रोजगार भी मिलता है.

मध्यप्रदेश में जबलपुर, सिवनी, बालाघाट, डिंडौरी और सर्वाधिक वनों से अच्छादित वाले जिले है जिनके एक बड़े भू-भाग पर घने जंगलों में होते हैं. घने जंगलों से बहुत प्रकार की वनोपज भी उपलब्ध होती है, जिनसे जंगलों और आसपास रहने वाले आदिवासियों के जीवनयापन और रोजगार का प्रमुख आधार बनी है. ऐसी ही एक वनोपज जिसे पिहरी कहा जाता है, मशरूम की एक प्रजाति है. इन दिनों बहुतायत में जंगलों से संग्रह कर आदिवासी बेचने के लिए इसे शहर लेकर आते हैं.

forest
अलसुबह से जंगल पहुंच जाते हैं आदिवासी

स्वाद प्रेमी इसे बहुत ज्यादा पंसद करते हैं. स्थानीय बोलचाल में इसे भमोड़ी भी कहा जाता है. बरसात के दिनों में बांस के झूरमुटों के बीच मशरूम की यह प्रजाति पिहरी अपने आप उग जाती है. यह एक पौष्टीक आहार है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है. पिहरी में बहुत सारे खनिज, लवण और प्रोटीन पाया जाता है. लेकिन इसे खोजने आदिवासियों को बहुत जोखिम भी उठाना पड़ता है.

ये भी पढ़ें- डिंडौरी में आसमान पर देशी मशरूम के दाम, रहवासियों के बीच फिर भी ऑन डिमांड

बता दें, जबलपुर से बालाघाट मार्ग और मंडला मार्ग पर सड़क किनारे पिहरी बेचने वाले की बहुतायत दिखाई देती है. घने और सुनसान जंगलों के बीच सड़क किनारे यह पिहरी बेचने वाले यहां से गुजरने वाले राहगीरों को इसे बेचते हैं, जिनमें से कुछ व्यापारी इसे शहर में लाकर ऊंचे दामों पर भी बेचते हैं. ऐसे में यह इन दिनों आदिवासी के लिए यह रोजगार का प्रमुख साधन बना हुआ है. आदिवासी इसे संग्रह करने के लिए अलसुबह ही जंगल पहुंच जाते हैं और बांस के झूरमुट से इसका संग्रह करते हैं.

pihri
पिहरी

पिहरी बांस के पेड़ों के नीचे पत्तियों और अन्य वनस्पतियों की सड़न के कारण एक विशेष प्रकार के सुक्ष्म जीवों की क्रिया द्वारा बनती है. बरसात के दिनों में इसकी उपलब्धता लगभग एक माह तक रहती है. वहीं शाकाहारी और मांसाहारी दोनों इसे लजीज सब्जी के रूप में पंसद करते हैं.

जितनी चमकेगी बिजली उतनी होगी उपज
ऐसा माना जाता है कि आसमान में जितनी बिजली चमकती है उतनी ही यह वनोपज उगती है. बता दें, इसका चूर्ण भी बनता है जोकई बीमारियों को दूर करने में कारगर साबितो होता है.

जबलपुर। देश के कई इलाकों में सदियों से मशरूम की एक प्रजाति लागों के पसंदिदा भोजन में शामिल है. लेकिन इस प्रजाति के बारे में बहुत ही कम लोग जानते हैं. मशरूम की प्रजाति पिहरी एक शत-प्रतिशत प्राकृतिक उपज है, जो बांस के पेड़ों की जड़ों में बारिश के मौसम में अपने आप पैदा हो जाती है. इसको वनस्पति मांस का सबसे अच्छा विकल्प कहा जाता है. वहीं पिहरी के बारे में कहा जाता है कि ये न सिर्फ मांस से ज्यादा पौष्टिक और फायदेमंद है बल्कि उससे कहीं ज्यादा लजीज भी है. वहीं डॉक्टर्स भी शाकाहारियों को मांस के मिलने वाली पौष्टिक्ता के लिए इसे खाने की सलाह देते हैं.

देसी मशरूम पिहरी

आदिवासियों को होती है अच्छी पहचान

देश के कई इलाकों में यह सदियों से लोगों का पसंदीदा खाद्य रहा है. बाजार में यह करीब पांच सौ से छह सौ रुपए किलो तक बेहद मुश्किल से मिलता है. एक और खास बात यह है कि इसकी पहचान आदिवासी समुदाय को ही बेहतर होती है, जिससे उन्हें रोजगार भी मिलता है.

मध्यप्रदेश में जबलपुर, सिवनी, बालाघाट, डिंडौरी और सर्वाधिक वनों से अच्छादित वाले जिले है जिनके एक बड़े भू-भाग पर घने जंगलों में होते हैं. घने जंगलों से बहुत प्रकार की वनोपज भी उपलब्ध होती है, जिनसे जंगलों और आसपास रहने वाले आदिवासियों के जीवनयापन और रोजगार का प्रमुख आधार बनी है. ऐसी ही एक वनोपज जिसे पिहरी कहा जाता है, मशरूम की एक प्रजाति है. इन दिनों बहुतायत में जंगलों से संग्रह कर आदिवासी बेचने के लिए इसे शहर लेकर आते हैं.

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अलसुबह से जंगल पहुंच जाते हैं आदिवासी

स्वाद प्रेमी इसे बहुत ज्यादा पंसद करते हैं. स्थानीय बोलचाल में इसे भमोड़ी भी कहा जाता है. बरसात के दिनों में बांस के झूरमुटों के बीच मशरूम की यह प्रजाति पिहरी अपने आप उग जाती है. यह एक पौष्टीक आहार है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है. पिहरी में बहुत सारे खनिज, लवण और प्रोटीन पाया जाता है. लेकिन इसे खोजने आदिवासियों को बहुत जोखिम भी उठाना पड़ता है.

ये भी पढ़ें- डिंडौरी में आसमान पर देशी मशरूम के दाम, रहवासियों के बीच फिर भी ऑन डिमांड

बता दें, जबलपुर से बालाघाट मार्ग और मंडला मार्ग पर सड़क किनारे पिहरी बेचने वाले की बहुतायत दिखाई देती है. घने और सुनसान जंगलों के बीच सड़क किनारे यह पिहरी बेचने वाले यहां से गुजरने वाले राहगीरों को इसे बेचते हैं, जिनमें से कुछ व्यापारी इसे शहर में लाकर ऊंचे दामों पर भी बेचते हैं. ऐसे में यह इन दिनों आदिवासी के लिए यह रोजगार का प्रमुख साधन बना हुआ है. आदिवासी इसे संग्रह करने के लिए अलसुबह ही जंगल पहुंच जाते हैं और बांस के झूरमुट से इसका संग्रह करते हैं.

pihri
पिहरी

पिहरी बांस के पेड़ों के नीचे पत्तियों और अन्य वनस्पतियों की सड़न के कारण एक विशेष प्रकार के सुक्ष्म जीवों की क्रिया द्वारा बनती है. बरसात के दिनों में इसकी उपलब्धता लगभग एक माह तक रहती है. वहीं शाकाहारी और मांसाहारी दोनों इसे लजीज सब्जी के रूप में पंसद करते हैं.

जितनी चमकेगी बिजली उतनी होगी उपज
ऐसा माना जाता है कि आसमान में जितनी बिजली चमकती है उतनी ही यह वनोपज उगती है. बता दें, इसका चूर्ण भी बनता है जोकई बीमारियों को दूर करने में कारगर साबितो होता है.

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