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महंगे खाद से मिलेगी निजात, किसानों के काम आएगी यह शोध, जानें कितना होगा फायदा

यूरिया की कमी आए दिन किसानों को परेशान करती है. यूरिया-डीएपी (Urea-DAP) की वजह से बड़ी तादाद में राजस्व का भी नुकसान होता है. भारत को विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है. जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने किसानों को महंगे खाद से निजात दिलाने की तरकीब निकाल ली है.

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Published : Sep 18, 2021, 12:26 PM IST

Jawaharlal Nehru Agricultural University Jabalpur
जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय

जबलपुर। आपने अक्सर किसानों को रासायनिक खाद (chemical fertilizer) को लेकर परेशान होते हुए सुना होगा. डीएपी के रेट अगर 100 रुपये भी बढ़ जाते हैं, तो यह एक राजनीतिक मुद्दा बन जाता है. यूरिया की कमी आए दिन किसानों को परेशान करती है. यूरिया-डीएपी (Urea-DAP) की वजह से बड़ी तादाद में राजस्व का भी नुकसान होता है. भारत को विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है. जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय (Jawaharlal Nehru Agricultural University Jabalpur) के वैज्ञानिकों ने किसानों को महंगे खाद से निजात दिलाने की तरकीब निकाल ली है.

वैज्ञानिकों ने किसानों को महंगे खाद से निजात दिलाने की तरकीब निकाल ली है.

डीएपी की जगह पीएसबी
किसानों को सबसे महंगा खाद डीएपी मिलता है. इसमें नाइट्रोजन (Nitrogen) और फास्फोरस (Phosphorus) होता है. बाजार में इसकी कीमत 1300 से 1500 रुपये प्रति 50 किलो होती है. किसान कई वर्षों से इस खाद का उपयोग कर रहा है. वैज्ञानिकों का मानना है कि डीएपी खाद का मात्र 30% फास्फोरस ही पौधा ले पाता है, बाकी फास्फोरस जमीन में निष्क्रिय अवस्था में पड़ा रहता है. इसी निष्क्रिय फास्फोरस को सक्रिय करने के लिए पीएसबी नाम का एक कल्चर बनाया गया है, जिसमें एक बैक्टीरिया होता है, जो जमीन में पड़े हुए अनुपयोगी फास्फोरस को आयोनाइस (Ionais) करके सक्रिय कर देता है. इसके बाद पौधा इसे ग्रहण कर लेता है. इस फास्फोरस की वजह से किसानों की फसल लहलहाने लगती है.

नाइट्रोजन स्थिरीकरण बैक्टीरिया
राइजोबियम कल्चर (Rhizobium Culture) वह पहला कल्चर था, जिसे सरकार ने बांटा था. यह किसानों तक पहुंचा था. इसके जरिए समझाने की कोशिश की गई थी कि इससे नाइट्रोजन का स्तरीकरण होता है. इससे जमीन में मौजूद नाइट्रोजन के अलावा वातावरण में फैली हुई नाइट्रोजन भी पौधे ग्रहण करते हैं. बिना नाइट्रोजन के पेड़ पौधों की ग्रोथ संभव नहीं है. इसके लिए रासायनिक खाद में यूरिया दिया जाता है.

यूरिया सिंथेटिक (Synthetic Urea) तरीके से बनता है और अभी भी भारत यूरिया के मामले में विदेशों पर निर्भर है, लेकिन नाइट्रोजन स्थिरीकरण बैक्टीरिया राइजोबियम (Bacteria Rhizobium) अब अलग-अलग फसलों के लिए तैयार कर लिए गए हैं. मतलब गेहूं, दलहन, तिलहन यहां तक कि गन्ने जैसी फसल के लिए भी अलग-अलग किस्म के बैक्टीरिया तैयार किए है. यदि इन बैक्टीरिया के कल्चर को फसल के साथ जमीन में छोड़ा जाता है, तो अलग से यूरिया देने की जरूरत न के बराबर होती है.

पेड़-पौधों के लिए जिंक है जरूरी
जिंक पेड़ पौधों के लिए एक बहुत जरूरी माइक्रोन्यूट्रिएंट (Micronutrient) है. किसान जिंक खेत में डालते हैं ताकि फसल अच्छी आए. अब एक ऐसा बैक्टीरिया खोजा गया है, जो मिट्टी में सामान्य तौर पर पाए जाने वाले जिंक को एक्टिवेट कर देता है. पौधे इसे ग्रहण कर लेते हैं. इसी तरीके से पोटाश के लिए भी एक कल्चर तैयार किया गया है.

हर साल नहीं होती खाद की जरूरत
रासायनिक खादों की जरूरत किसान को हर साल पड़ती है. प्रगतिशील किसान अच्छी फसलों के लिए हर साल लागत लगाते हैं, लेकिन फसल बिगड़ जाए तो किसान इसी महंगे खाद की वजह से घाटे में चला जाता है. अगर bio-fertilizer सही तरीके से इस्तेमाल किए जाएं तो खेती लाभ का धंधा बन सकती है. जबलपुर जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के माइक्रोव रिसर्च एंड प्रोडक्शन सेंटर (Research and Production Center) में बेहद कम कीमत में यह बैक्टीरिया कल्चर किसानों को मुहैया करवाए जा रहे हैं.

बालाघाट को क्यों कहते मध्य प्रदेश का धान का कटोरा? देखिये Etv Bharat की विशेष रिपोर्ट

किसान को नाइट्रोजन, पोटेशियम, फास्फोरस, जिंक, पोटाश जैसे तमाम रासायनिक खाद की जरूरत नहीं है. यदि खेत में बैक्टीरिया और वायरस का सही तरीके से खेत में स्थापित कर दिया जाए, तो स्थाई रूप से किसान को खाद मिलता रहेगा और खेत आत्म निर्भरता की तरफ चला जाएगा. यही नहीं जैविक फसल करने से का बाजार में दाम भी अधिक मिलेगा.

जबलपुर। आपने अक्सर किसानों को रासायनिक खाद (chemical fertilizer) को लेकर परेशान होते हुए सुना होगा. डीएपी के रेट अगर 100 रुपये भी बढ़ जाते हैं, तो यह एक राजनीतिक मुद्दा बन जाता है. यूरिया की कमी आए दिन किसानों को परेशान करती है. यूरिया-डीएपी (Urea-DAP) की वजह से बड़ी तादाद में राजस्व का भी नुकसान होता है. भारत को विदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है. जबलपुर के जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय (Jawaharlal Nehru Agricultural University Jabalpur) के वैज्ञानिकों ने किसानों को महंगे खाद से निजात दिलाने की तरकीब निकाल ली है.

वैज्ञानिकों ने किसानों को महंगे खाद से निजात दिलाने की तरकीब निकाल ली है.

डीएपी की जगह पीएसबी
किसानों को सबसे महंगा खाद डीएपी मिलता है. इसमें नाइट्रोजन (Nitrogen) और फास्फोरस (Phosphorus) होता है. बाजार में इसकी कीमत 1300 से 1500 रुपये प्रति 50 किलो होती है. किसान कई वर्षों से इस खाद का उपयोग कर रहा है. वैज्ञानिकों का मानना है कि डीएपी खाद का मात्र 30% फास्फोरस ही पौधा ले पाता है, बाकी फास्फोरस जमीन में निष्क्रिय अवस्था में पड़ा रहता है. इसी निष्क्रिय फास्फोरस को सक्रिय करने के लिए पीएसबी नाम का एक कल्चर बनाया गया है, जिसमें एक बैक्टीरिया होता है, जो जमीन में पड़े हुए अनुपयोगी फास्फोरस को आयोनाइस (Ionais) करके सक्रिय कर देता है. इसके बाद पौधा इसे ग्रहण कर लेता है. इस फास्फोरस की वजह से किसानों की फसल लहलहाने लगती है.

नाइट्रोजन स्थिरीकरण बैक्टीरिया
राइजोबियम कल्चर (Rhizobium Culture) वह पहला कल्चर था, जिसे सरकार ने बांटा था. यह किसानों तक पहुंचा था. इसके जरिए समझाने की कोशिश की गई थी कि इससे नाइट्रोजन का स्तरीकरण होता है. इससे जमीन में मौजूद नाइट्रोजन के अलावा वातावरण में फैली हुई नाइट्रोजन भी पौधे ग्रहण करते हैं. बिना नाइट्रोजन के पेड़ पौधों की ग्रोथ संभव नहीं है. इसके लिए रासायनिक खाद में यूरिया दिया जाता है.

यूरिया सिंथेटिक (Synthetic Urea) तरीके से बनता है और अभी भी भारत यूरिया के मामले में विदेशों पर निर्भर है, लेकिन नाइट्रोजन स्थिरीकरण बैक्टीरिया राइजोबियम (Bacteria Rhizobium) अब अलग-अलग फसलों के लिए तैयार कर लिए गए हैं. मतलब गेहूं, दलहन, तिलहन यहां तक कि गन्ने जैसी फसल के लिए भी अलग-अलग किस्म के बैक्टीरिया तैयार किए है. यदि इन बैक्टीरिया के कल्चर को फसल के साथ जमीन में छोड़ा जाता है, तो अलग से यूरिया देने की जरूरत न के बराबर होती है.

पेड़-पौधों के लिए जिंक है जरूरी
जिंक पेड़ पौधों के लिए एक बहुत जरूरी माइक्रोन्यूट्रिएंट (Micronutrient) है. किसान जिंक खेत में डालते हैं ताकि फसल अच्छी आए. अब एक ऐसा बैक्टीरिया खोजा गया है, जो मिट्टी में सामान्य तौर पर पाए जाने वाले जिंक को एक्टिवेट कर देता है. पौधे इसे ग्रहण कर लेते हैं. इसी तरीके से पोटाश के लिए भी एक कल्चर तैयार किया गया है.

हर साल नहीं होती खाद की जरूरत
रासायनिक खादों की जरूरत किसान को हर साल पड़ती है. प्रगतिशील किसान अच्छी फसलों के लिए हर साल लागत लगाते हैं, लेकिन फसल बिगड़ जाए तो किसान इसी महंगे खाद की वजह से घाटे में चला जाता है. अगर bio-fertilizer सही तरीके से इस्तेमाल किए जाएं तो खेती लाभ का धंधा बन सकती है. जबलपुर जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के माइक्रोव रिसर्च एंड प्रोडक्शन सेंटर (Research and Production Center) में बेहद कम कीमत में यह बैक्टीरिया कल्चर किसानों को मुहैया करवाए जा रहे हैं.

बालाघाट को क्यों कहते मध्य प्रदेश का धान का कटोरा? देखिये Etv Bharat की विशेष रिपोर्ट

किसान को नाइट्रोजन, पोटेशियम, फास्फोरस, जिंक, पोटाश जैसे तमाम रासायनिक खाद की जरूरत नहीं है. यदि खेत में बैक्टीरिया और वायरस का सही तरीके से खेत में स्थापित कर दिया जाए, तो स्थाई रूप से किसान को खाद मिलता रहेगा और खेत आत्म निर्भरता की तरफ चला जाएगा. यही नहीं जैविक फसल करने से का बाजार में दाम भी अधिक मिलेगा.

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