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इंदौर का अनोखा मंदिर जहां घंटियों के साथ सुनाई देती है मुर्गों की बांग, यह है मान्यता

इंदौरा का मां कालका धाम मंदिर एक ऐसा अनोखा मंदिर है जहां घंटियों और आरती के साथ मुर्गों की बांग भी सुनाई देती है. मंदिर से जुड़ी एक मान्यता के मुताबित जब किसी भक्त की मानोकामना पूरी होती है, वह मंदिर में माता के समक्ष मुर्गे चढ़ाता है.

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Published : Jun 15, 2020, 9:06 AM IST

इंदौर। यूं तो मंदिर की घंटियों और मुर्गों की बांग का कोई तालमेल नहीं है, लेकिन इंदौर में एक ऐसा भी मंदिर है. जहां भक्तों की मन्नतें मुर्गों के बिना अधूरी रहती हैं. यही वजह है कि मन्नत पूरी होते ही कोई ना कोई भक्त मंदिर में मुर्गा छोड़ जाता है. इसके बाद संबंधित मुर्गे को माता का भक्त या गण मान लिया जाता है. जिसे मंदिर में ही रखा जाता है. अब आलम यह है कि माता के मंदिर में सुबह और शाम की आरती के साथ मुर्गों की बांग भी गूंजती है.

इंदौर का अनोखा मंदिर

दरअसल इंदौर वायर चौराहे पर मौजूद मां कालका धाम मंदिर की मान्यता है कि जिस किसी भक्त की मन्नत मां काली पूरी करती हैं, वे चढ़ावा के रुप में माता को एक जीवित मुर्गा माता की विशाल मूर्ति के समक्ष अर्पित करता है. प्रार्थना और मन्नतें पूरी होने का यह सिलसिला यहां तीन दशकों से चल रहा है. इस दौरान सैकड़ों भक्त ऐसे आए जो अपनी प्रार्थना के पूर्ण होने पर यहां मुर्गे छोड़ गए. मंदिर में एक दौर ऐसा आया जब मुर्गों की संख्या 50 से ज्यादा हो गई. नतीजतन मुर्गों के रहने की व्यवस्था मंदिर के तलघर में करनी पड़ी. हालांकि अभी भी सभी मुर्गे मंदिर के तलघर में ही रहते हैं.

मन्नत पूरी होने पर चढ़ावे में आते हैं मुर्गें

मन्नत के मुर्गे होने के कारण माता के प्रकोप के डर से कोई भी इन्हें नहीं छोड़ता शहर में यही एकमात्र जगह ऐसी है जहां कई कई साल पुराने मुर्गे मौजूद हैं. जिनके दाना पानी की व्यवस्था भक्तों के अलावा स्थानीय दुकानदार करते हैं. फिलहाल मंदिर परिसर में 20 मुर्गे हैं. हालांकि यहां जितने भी मुर्गे मारे गए वे किसी न किसी बीमारी अथवा बाहरी कुत्तों या बिल्लियों का शिकार बने लेकिन जितने बचे हैं वह सभी माता के भक्त के बतौर मां कालका के गण भी माने जाते हैं. जो कई सालों से मंदिर परिसर में मंदिर की घंटियों के साथ बांग देते नजर आते हैं.

मुर्गों की खासियत

कड़कनाथ और देसी मुर्गे इन लोगों की खासियत यह है कि इनमें से कोई भी मुर्गा ब्रायलर या विदेशी ब्रीड का नहीं है. जितने मुर्गे हैं वे सभी कड़कनाथ और देसी प्रजाति के हैं, क्योंकि ग्रामीण अंचल में देसी मुर्गे चढ़ाने की ही परंपरा है. इसलिए ब्रायलर या चिकन के लिए उपयोग किए जाने वाले मुर्गे चढ़ाना यहां प्रतिबंधित है.

प्रसाद के साथ चढ़ता है मुर्गों को दाना पानी

कई सालों से मंदिर में रहने वाले मुर्गों के लिए मंदिर के पुजारी सामान्य तौर पर भोजन की व्यवस्था करते हैं. इसके अलावा मंदिर में जो अनाज चढ़ावे में आता है उससे भी मुर्गों को भोग लग जाता है. मंदिर में प्रतिदिन माथा टेकने आने वाले कई नियमित भक्त ऐसे भी हैं जो प्रतिदिन के हिसाब से मुर्गो की आते जाते देखभाल भी करते हैं. लिहाजा माता की भक्ति के साथ उनके गण मुर्गो की सेवा का सिलसिला भक्तों के लिए भी भक्ति का अनूठा जरिया बन चुका है.

इंदौर। यूं तो मंदिर की घंटियों और मुर्गों की बांग का कोई तालमेल नहीं है, लेकिन इंदौर में एक ऐसा भी मंदिर है. जहां भक्तों की मन्नतें मुर्गों के बिना अधूरी रहती हैं. यही वजह है कि मन्नत पूरी होते ही कोई ना कोई भक्त मंदिर में मुर्गा छोड़ जाता है. इसके बाद संबंधित मुर्गे को माता का भक्त या गण मान लिया जाता है. जिसे मंदिर में ही रखा जाता है. अब आलम यह है कि माता के मंदिर में सुबह और शाम की आरती के साथ मुर्गों की बांग भी गूंजती है.

इंदौर का अनोखा मंदिर

दरअसल इंदौर वायर चौराहे पर मौजूद मां कालका धाम मंदिर की मान्यता है कि जिस किसी भक्त की मन्नत मां काली पूरी करती हैं, वे चढ़ावा के रुप में माता को एक जीवित मुर्गा माता की विशाल मूर्ति के समक्ष अर्पित करता है. प्रार्थना और मन्नतें पूरी होने का यह सिलसिला यहां तीन दशकों से चल रहा है. इस दौरान सैकड़ों भक्त ऐसे आए जो अपनी प्रार्थना के पूर्ण होने पर यहां मुर्गे छोड़ गए. मंदिर में एक दौर ऐसा आया जब मुर्गों की संख्या 50 से ज्यादा हो गई. नतीजतन मुर्गों के रहने की व्यवस्था मंदिर के तलघर में करनी पड़ी. हालांकि अभी भी सभी मुर्गे मंदिर के तलघर में ही रहते हैं.

मन्नत पूरी होने पर चढ़ावे में आते हैं मुर्गें

मन्नत के मुर्गे होने के कारण माता के प्रकोप के डर से कोई भी इन्हें नहीं छोड़ता शहर में यही एकमात्र जगह ऐसी है जहां कई कई साल पुराने मुर्गे मौजूद हैं. जिनके दाना पानी की व्यवस्था भक्तों के अलावा स्थानीय दुकानदार करते हैं. फिलहाल मंदिर परिसर में 20 मुर्गे हैं. हालांकि यहां जितने भी मुर्गे मारे गए वे किसी न किसी बीमारी अथवा बाहरी कुत्तों या बिल्लियों का शिकार बने लेकिन जितने बचे हैं वह सभी माता के भक्त के बतौर मां कालका के गण भी माने जाते हैं. जो कई सालों से मंदिर परिसर में मंदिर की घंटियों के साथ बांग देते नजर आते हैं.

मुर्गों की खासियत

कड़कनाथ और देसी मुर्गे इन लोगों की खासियत यह है कि इनमें से कोई भी मुर्गा ब्रायलर या विदेशी ब्रीड का नहीं है. जितने मुर्गे हैं वे सभी कड़कनाथ और देसी प्रजाति के हैं, क्योंकि ग्रामीण अंचल में देसी मुर्गे चढ़ाने की ही परंपरा है. इसलिए ब्रायलर या चिकन के लिए उपयोग किए जाने वाले मुर्गे चढ़ाना यहां प्रतिबंधित है.

प्रसाद के साथ चढ़ता है मुर्गों को दाना पानी

कई सालों से मंदिर में रहने वाले मुर्गों के लिए मंदिर के पुजारी सामान्य तौर पर भोजन की व्यवस्था करते हैं. इसके अलावा मंदिर में जो अनाज चढ़ावे में आता है उससे भी मुर्गों को भोग लग जाता है. मंदिर में प्रतिदिन माथा टेकने आने वाले कई नियमित भक्त ऐसे भी हैं जो प्रतिदिन के हिसाब से मुर्गो की आते जाते देखभाल भी करते हैं. लिहाजा माता की भक्ति के साथ उनके गण मुर्गो की सेवा का सिलसिला भक्तों के लिए भी भक्ति का अनूठा जरिया बन चुका है.

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