ग्वालियर। आज से 50 साल पहले जौरा तहसील के धौरेरा गांव में बागियों ने समर्पण के समय अपनी छावनी बना ली थी. गांव के पक्के मकानों को अपनी शरणगाह बनाया था. यहां अब स्कूल हैं, सड़के हैं, बिजली है. जिस इलाके में बागियों के डर से कोई विकास कार्य नहीं होता था, अब उस इलाके में पगारा डैम पर गर्मियों में सैलानियों का तांता लगता है. यहां पेयजल परियोजना संचालित हो रही है. यहां वह पगारा कोठी भी है, जहां जेपी आकर रहे थे. लेकिन कोठी जीर्ण-शीर्ण और अनुपयोगी है.
डकैतों के शरणगाह बने गांव में अब विकास की इबारत : गांव के वयोवृद्ध रामेश्वर बताते हैं कि वह उस समय 13 साल के थे. गांव को डकैतों ने खाली करवा लिया था. गांव के दो पक्के मकानों में से एक को माधौ सिंह और दूसरे को मोहर सिंह के गिरोह ने अपना ठिकाना बना लिया. गांव में डकैतों के ही डेरे थे. उन्हें याद है कि जौरा से गांव में पानी के टैंकर आते थे और बड़े-बड़े टेंट लगाकर यहां डाकुओं के लिए खाना बनता था. डाकुओं को देखने के लिए इतनी भीड़ आती थी कि सारा खाना खत्म हो जाता था. इसके बाद शांति मिशन के लोग वायरलेस सेट पर नगर पालिका को और टैंकर भिजवाने के संदेश देते थे. धौरेरा के रहने वाले वयोवृद्ध परिमाल ने बताया कि तब गांव में पक्की सड़क नहीं थी. नीचे डकैतों के कैंप थे, ऊपर पहाड़ी पर पगारा कोठी में जयप्रकाश नारायण रहते थे. डकैत गाड़ियों में भरकर गांधी जिंदाबाद, जेपी जिंदाबाद के नारे लगाते हुए जेपी से मिलने जाते थे. अब गांव बदल गया है. यहां स्कूल बन गए हैं. पक्की सड़कें हैं.
उस समय पुलिस को मिले थे विशेष निर्देश : ग्रामीण बताते हैं कि आज भी 50 घरों की बस्ती यहां है. पगारा कोठी के ठीक बगल से वाटर प्लांट लग गया है. हालांकि गांव में या पगारा कोठी पर समर्पण की घटना से जुड़ी कोई भी चीज संरक्षित नहीं है. करीब 85 साल के श्रीकृष्ण सिंह सिकरवार रिटायर्ड पुलिस प्रधान आरक्षक हैं. वे 1972 में आरक्षक हुआ करते थे और मुरैना मुख्यालय पर पदस्थ थे. उनकी ड्यूटी जौरा में लगई गई. वे कहते हैं कि यह इलाका शांति क्षेत्र घोषित किया गया था. यहां पर किसी बागी की गिरफ्तारी न करने के आदेश उनके अधिकारियों को मिल चुके थे. सिकरवार के मुताबिक उन्हें और बाकी पुलिस कर्मियों को कहा गया था कि वे वर्दी पहनकर शांति क्षेत्र और समर्पण स्थल पर मौजूद न रहें. पुलिस यहां सादा कपड़ों में ही जाती थी. जौरा के पगारा रोड पर जहां दस्यु समर्पण हुआ, वहां आज भी वह चबूतरा है जहां गांधी की तस्वीर के सामने दस्युओं ने हथियार डाले थे.
1995 में जयप्रकाश नारायण डिग्री कॉलेज खुला : ईटीवी भारत के स्थानीय सहयोगी जगदीश शुक्ला ने बताया कि 1995 में यहां पर शासन ने जयप्रकाश नारायण डिग्री कॉलेज खोला था. समर्पण की स्मृति में इस कॉलेज की स्थापना उसी मैदान पर की गई, जहां समर्पण हुआ. शुक्ला कहते हैं कि यह दुर्भाग्य है कि कुछ समय पहले इस कॉलेज का नाम बदल दिया गया है. अब इसे जौरा डिग्री कॉलेज नाम दिया गया है. समर्पण की याद में बने इस कॉलेज से बागियों के बच्चे, उनसे पीड़ित लोगों के बच्चों सहित इलाके के लाखों बच्चे डिग्रीधारी बन चुके हैं. एकता परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष रन सिंह परमार ने बताया कि गांधी आश्रम की स्थापना के समय वे 16 साल के थे. सुब्बाराव जी उनके मार्गदर्शक थे. सुब्बाराव जी ने पहले बुधारा पोरसा में आश्रम शुरू किया. इसे बाद में जौरा की पगारा रोड पर स्थित दो पुराने कमरों में स्थानांतरित किया गया. इन कमरों में पहले चमड़े का काम होता था.
बागियों के समर्पण के दौरान घर-घर से अनाज मांगा :आश्रम की गतिविधि चलाने के लिए रन सिंह, राजगोपाल अन्य कार्यकर्ताओं के साथ घर-घर अनाज व दान मांगने जाते थे. बागियों के समर्पण के समय वे लोग स्वयंसेवक के तौर पर सारी व्यवस्था देखते थे. परमार कहते हैं कि 14 अप्रैल को जौरा के बागी समर्पण के 50 साल पूरे हो रहे हैं. इस अवसर पर एक कार्यक्रम आयोजित होगा. कार्यक्रम में समर्पित दस्यु, उनके परिवार और इन दस्युओं से पीड़ित रहे परिवारों के सदस्य एक मंच पर होंगे. यह कार्यक्रम साबित करेगा कि किस तरह अहिंसा और सत्याग्रह के रास्ते पर चलकर बैर भुलाए जा सकते हैं. लोग किस तरह अपना बाकी जीवन शांति से जी सकते हैं. राजगोपाल समर्पण के गवाह रहे स्वयंसेवकों में से एक हैं. वे कहते हैं कि समर्पण का काम बहुत बड़ा था. इसका उद्देश्य केवल यह नहीं था कि डकैत समर्पण कर दें और काम खत्म. बड़ी चुनौती यह थी कि समर्पण के बाद शांति भी कायम रहे.
सुब्बाराव ने बिना सरकारी मदद के बदली गांव की तस्वीर : राजगोपाल ने बताया कि इस तरह के 500 से ज्यादा परिवार हैं, जो आसपास के इलाके में रहते हैं और आश्रम से खादी निर्माण, शहद उत्पादन जैसे कार्यों से रोजगार प्राप्त कर रहे हैं. राजगोपाल ने बताया है कि इलाके के बागियों के परिवारों और आश्रम से जुड़े इलाके के लोगों की मदद से सुब्बाराव ने यहां कई ऐसे काम किए, जिन्हें चमत्कार ही कहा जा सकता है. बिना सरकारी मदद के सुब्बाराव ने इन लोगों के साथ मिलकर 23 गांवों में स्टाप डैम बनाए. बागचीनी गांव में क्वारी नदी पर पुल का निर्माण हुआ. कुपोषण को दूर करने के लिए अभियान चला. लोगों को चरखा, कढ़ाई- बुनाई का प्रशिक्षण देकर रोजी कमाने लायक बनाया गया.