गुना। सियासत में जब भी राजे-रजवाड़ों की बात होती है, सिंधिया राजघराने के बगैर अधूरी मानी जाती है क्योंकि राजतंत्र के बाद प्रजातंत्र में भी इस परिवार का लोहा माना जाता है. मध्यप्रदेश के ग्वालियर-चंबल अंचल में सिंधिया परिवार की आज भी तूती बोलती है. ग्वालियर के बाद गुना ही ऐसी सीट हैं, जहां से जीतकर सिंधिया परिवार की तीन पीढ़ियां लोकसभा पहुंची हैं. अभी इस सीट का प्रतिनिधित्व ज्योतिरादित्य सिंधिया कर रहे हैं.
1957 में हुए पहले चुनाव में राजामाता विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतीं और वे गुना की पहली सांसद बनीं. 1962 में राजमाता की जगह कांग्रेस के रामसहाय पाण्डेय मैदान में उतरे, उन्होंने भी जीत का सिलसिला बरकरार रखा, लेकिन 1967 के चुनाव में गैर कांग्रेसी स्वतंत्रता पार्टी के जेबी कृपलानी ने जीत दर्ज की. पर उसी साल साल गुना में उपचुनाव हुआ और राजमाता कांग्रेस का दामन छोड़ जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़ीं और कांग्रेस प्रत्याशी डीके जाधव को करारी शिकस्त दीं.
1971 में माधवराव ने जनसंघ के टिकट पर गुना से चुनाव लड़ा और शानदार जीत के साथ सियासी पारी की शुरुआत की और 1977 में माधवराव ने बतौर निर्दलीय प्रत्याशी जीत दर्ज की, लेकिन 1980 में एक बार फिर गुना सीट पर कांग्रेस की वापसी कराई. 1984 में कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया के करीबी महेंद्र सिंह कालूखेड़ा को गुना से टिकट दिया तो उन्होंने भी जीत का क्रम बरकरार रखा. 1989 में विजयाराजे सिंधिया ने गुना से पहली बार बीजेपी का खाता खोला. जिसे 1996 तक जारी भी रखा.
1999 में कांग्रेस ने गुना में फिर माधवराव पर दांव लगाया और कांग्रेस की वापसी भी हुई. 2002 में माधवराज सिंधिया की मौत के बाद तीसरी पीढ़ी यानि उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने उपचुनाव में जीत दर्ज कर लोकसभा में दस्तक दी. उसके बाद 2004, 2009 और 2014 में ज्योतिरादित्य ने जीत दर्ज की. इस सीट पर पार्टी से ज्यादा सिंधिया परिवार का वर्चस्व रहा है क्योंकि गुना सीट पर राजघराने के सदस्य को कोई हरा नहीं सका है, फिर पार्टी चाहे कोई भी रही हो. यही वजह है कि 2014 की मोदी लहर में भी सिंधिया ने बीजेपी के दिग्गज नेता जयभान सिंह पवैया को करारी शिकस्त दी थी. यहां कांग्रेस को हराना बीजेपी के लिए लोहे के चने चबाने जैसा है.