दतिया। चैत्र नवरात्रि का त्योहार चल रहा है, ऐसे में मां भगवती के दरबार में श्रद्धालुओं और भक्तों का तांता लगा हुआ है. लोग प्रतिदिन माता के दरबार में माथा टेकने पहुंच रहे हैं. Etv Bharat आपको दतिया जिले के एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने वाला है, जो रतनगढ़ में विंध्याचल पर्वत पर विराजमान हैं. आइए इस चैत्र नवरात्रि में हम आपको रूबरू कराते हैं इस मंदिर के इतिहास और इससे जुड़ी मान्यताओं से.
डकैतों का भी आराध्य स्थल: रतनगढ़ वाली माता का मंदिर जिला मुख्यालय से करीब 65 किलोमीटर और ग्वालियर से 75 किलोमीटर की दूरी पर सिंध नदी के पास विंध्याचल पर्वत पर विराजमान है. इस मंदिर में मां रतनगढ़ वाली माता के दर्शन के लिए भक्त दूर-दूर से पहुंचते हैं. नवरात्रि और दीपावली की भाई दूज पर यहां मेला भी लगता है. विंध्याचल पर्वत पर बना मातारानी का यह मंदिर धार्मिक वैभव और भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक होने के साथ डकैतों के आराध्य स्थल के रूप में भी जाना जाता है.
रतनगढ़ का इतिहासः इस मंदिर को लेकर अलग-अलग मान्यताएं और कहानियां हैं. इतिहास की जानकारी रखने वाले और लोकदेव कुंवर बाबा के सेवक देवेंद्र श्रीवास्तव बताते हैं, ''कुंवर बाबा और उनकी बहन माण्डुला बाई उर्फ बेटी बाई एक-दूसरे से बेहद प्रेम करते थे. भाई-बहन का अटूट प्रेम का रिश्ता उनकी अंतिम सांस तक दिखाई दिया. दोनों भाई-बहन माता के भी अनन्य भक्त थे, जिस वजह से कुंवर बाबा पूजा स्थल पर नवरात्रि में नौ दिनों तक अखंड ज्योति जलाते थे. साथ ही नवरात्रि में वे हथियार भी नहीं उठाते थे. वे दोबारा दशहरे पर ही अपने अस्त्र-शस्त्र धारण करते थे. कुंवर बाबा बहुत पराक्रमी राजकुमार थे. कई बार दुश्मनों ने उन पर हमला किया, लेकिन कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सका था. किसी गद्दार ने नवरात्रि में उनके हथियार न उठाने की जानकारी दुश्मन राजा को दे दी. इसका फायदा उठाते हुए वह उनके पास पहुंचा. उस दौरान कुंवर बाबा पूजा कर रहे थे. उन्होंने अपना बचाव नहीं किया और दुश्मन ने उनके दोनों हाथ कलम कर उन्हें वीरगति दे दी.
मरने से पहले मां दुर्गा ने दिया था आशीर्वादः नवमी पर बेटी बाई अपने भाई से मिलने हिड़ायला पहुंचीं तो ज्योति न जलती देख समझ गईं कि कुछ हुआ है. जब वे अंदर पहुंचीं तो अपने भाई कुंवर बाबा को मरा देख उसी कटार को उन्होंने खुद की जान देने के लिए घोंप लिया. ऐसा करने पर मां दुर्गा ने उन्हें दर्शन दिए और पूछा कि इस तरह क्यों मारना चाहती हैं तो बेटी बाई ने कहा कि उनका भाई अब इस दुनिया में नहीं रहा तो वे जीवित कर क्या करेंगी. उनकी बात सुनकर मां दुर्गा ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि आने वाले समय में लोग उन्हें रतनगढ़ वाली माता के नाम से जानेंगे. उन्होंने यह भी वरदान दिया कि भविष्य में जैसा कुंवर बाबा कहेंगे, वह सत्य हो जाएगा. इसके बाद कुंवरबाबा लोकदेवता के रूप में पूजे जाने लगे. उनका स्थान वैसे तो हिड़ायला में है लेकिन रतनगढ़ माता मंदिर में भी उनका मंदिर बना हुआ है. जहां भक्त रतनगढ़ वाली माता के दर्शन के बाद उनके दर्शन करने भी पहुंचते हैं. भाई-बहन के अटूट प्रेम के प्रतीक इस मंदिर पर भाई दूज के दिन हजारों श्रद्धालु दर्शन करने आते हैं. यहां विशाल मेले का भी आयोजन होता है.
छत्रपति शिवाजी ने गुरु संग कराया था मंदिर का निर्माणः इस स्थान का इतिहास 13वीं शताब्दी से जुड़ा है. मंदिर ट्रस्ट के पुजारी पंडित राजेश कटारे कहते हैं कि इस मंदिर का निर्माण 17वीं शताब्दी में करीब 400 वर्ष पहले हुआ था, जो वीर मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके गुरू समर्थ रामदास ने कराया था. इससे जुड़ी गाथा यह है कि छत्रपति शिवाजी के गुरू समर्थ रामदास को रतनगढ़ वाली माता और उनके भाई कुंवर बाबा ने देवगढ़ किले में स्वप्न में दर्शन देकर मुगलों से युद्ध के लिए प्रेरित किया था. इसके बाद जब हिंदुस्तान पर फतह करने वाली मुगल सेना और वीर मराठा छत्रपति शिवाजी की सेना रणभूमि में आईं तो मुगलों को हार का मुंह देखना पड़ा. इसके बाद समर्थ रामदास और उनके शिष्य छत्रपति शिवाजी ने रतनगढ़ में दोनों भाई-बहन रतनगढ़ वाली माता और कुंवर बाबा के मंदिरों का निर्माण कराया.
माता ने छत्रपति शिवाजी को कराया था मुग़लों से आजादः एक कहानी यह भी है कि छत्रपति शिवाजी महाराज को मुगल शासक औरंगजेब ने षड्यंत्र के तहत आगरा के महल बुलाकर बंदी बना लिया था. उन्हें औरंगजेब की कैद से मुक्त कराने के लिए उनके गुरु समर्थ रामदास और दादा कोणदेव ग्वालियर से रतनगढ़ आए थे और माता के इसी मंदिर में ठहरे थे. शिवाजी को मुक्त कराने के लिए यहीं साधना करने के साथ रणनीति तैयार की थी. उस दौरान शहंशाह औरंगजेब को तोहफे भेजे जाते थे. समर्थ रामदास ने अपने शिष्य को आगे कर औरंगजेब का भरोसा जीता और फिर तोहफे में फलों की टोकरियां भिजवाना शुरू कीं. यह सिलसिला कई दिनों तक चला. फिर एक दिन गुप्तचर के जरिए शिवाजी तक अपनी योजना की जानकारी पहुंचाई, जिसके बाद फलों की बड़ी टोकरी में बैठाकर उन्हें जेल से आजाद करा लिया गया.
चढ़ाया गया देश का सबसे वजनी पीतल का घंटाः औरंगजेब की कैद से निकलने के बाद शिवाजी ग्वालियर पहुंचे. वहां से अपने गुरू के साथ रतनगढ़ माता मंदिर के दर्शन करने आए थे और पूजा-अर्चना के साथ घंटा चढ़ाया था. तभी से इस मंदिर में मन्नत पूरी होने पर घंटा चढ़ाने की प्रथा शुरू हुई. जब भी कोई भक्त विशेष मन्नत के लिए माता के दरबार में अर्जी लगाता है तो मन्नत पूरी होने के बाद यहां घंटा चढ़ाने जरूर आता है. करीब 7 वर्ष पहले मंदिर में इतने घंटे हो चुके थे कि प्रशासन ने इन घंटों की नीलामी भी कराई थी. 2015 में शक्तिपीठ की समिति के साथ मिलकर प्रशासन ने इन घंटों को गलाकर एक बड़ा घंटा बनवाने का निर्णय लिया था. ऐसा करने पर करीब दो टन वजनी विशाल घंटा तैयार हुआ था. ये देश का सबसे भारी घंटा है, जिसमें अष्टधातुओं को समाहित किया गया था. इसका उद्घाटन प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह के कर कमलों द्वारा किया गया था. अब भी नवरात्रि में लाखों श्रद्धालु विंध्याचल पर्वत श्रृंखला पर बने रतनगढ़ माता के मंदिर में अपनी मन्नतों के लिए घंटा चढ़ाने आते हैं.
रतनगढ़ वाली माता से जुड़ी खबरें... |
माता में थी डकैतों की गहरी आस्थाः एक समय था, जब चंबल क्षेत्र में डकैतों का आतंक था. डकैत और बागी भी मां भगवती के बड़े भक्त हुआ करते थे. रतनगढ़ माता मंदिर पर दर्शन के लिए आकर वे पुलिस को चैलेंज करते थे. पुलिस को उन्हें पकड़ने में कभी सफलता हासिल नहीं हुई. मोहर सिंह, माधव सिंह, मलखान सिंह जैसे कुख्यात डाकू यहां माथा टेकते थे लेकिन उन्होंने दर्शन के दौरान किसी भक्त को मंदिर में कभी परेशान नहीं किया.