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Damoh MP तीन सौ वर्ष पुराना मराठाकालीन गणेश मंदिर खंडहर में तब्दील, प्रतिमा भी उपेक्षा का शिकार

दमोह जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर छतरपुर रोड पर स्थित नरसिंहगढ़ में सुनार नदी के तट पर बना ऐतिहासिक मराठाकालीन किला और वहां के मंदिर अब देखरेख के अभाव में खंडहर और वीरान होते जा रहे हैं. दमोह में करीब 300 वर्ष प्राचीन अतिशयकारी मराठाकालीन गणेश प्रतिमा अब सरकार भरोसे है. राजा रजवाड़ों के दौरान चहल पहल से आबाद रहने वाले मंदिर अब वीरान पड़े हैं. महज एक पुजारी और माली के भरोसे मंदिर की देखरेख हो रही है. Three hundred years old Temple, Old Ganesh idol in Damoh, Victim of neglect, Maratha carpet temple into ruins

Three hundred years old Ganesh idol
मराठाकालीन गणेश मंदिर खंडहर में तब्दील
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Published : Aug 30, 2022, 2:25 PM IST

Updated : Aug 30, 2022, 4:26 PM IST

दमोह। मराठाकालीन किले के ठीक सामने सुनार नदी के मुहाने पर ही ऐतिहासिक गणेश मंदिर भी अब खंडहर होने की कगार पर है तो दूसरी ओर उससे कुछ ऊपर बना सोमेश्वर महादेव का मंदिर अब पूरी तरह खंडहर हो चुका है. राम जानकी और हनुमान मंदिर का भी यही हाल है. 17 वीं शताब्दी में मराठा शासक पांडुरंग राव करमरकर द्वारा निर्मित यह सभी मंदिर अब वीरान पड़े हैं. सबसे प्राचीन और अतिशय कारी दक्षिणावर्ती सिंदूरी कमल दल पर विराजमान गणेश जी की प्रतिमा महज तीन फीट की छोटी सी मढ़िया में रखी हुई है और उसकी देखरेख एक माली और पूजा के लिए नियुक्त एक पुजारी के हाथ में है.

मराठाकालीन गणेश मंदिर खंडहर में तब्दील

बाजीराव के आदेश पर बना था : पांडुरंग राव के वंशज विजय करमरकर कहते हैं कि 1727 में जब मुगलों ने बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल पर आक्रमण किया तो उन्होंने बाजीराव पेशवा को खत भेजकर उनसे सहायता मांगी. तब बाजीराव पेशवा बगैर देरी किए महाराजा छत्रसाल की सहायता को पहुंच गए और मुगलों को खदेड़ दिया. वहां से लौटते हुए उन्होंने अपने खासम खास पांडुरंग राव करमरकर को नरसिंहगढ़ सूबे का सूबेदार बना दिया. साथ ही तत्कालीन नाम नसरतगढ़ को बदलकर नरसिंहगढ़ करने का आदेश दिया. तब सूबेदार पांडुरंग राव करमरकर ने किले के साथ ही श्री राम जानकी, श्री हनुमान, श्री सोमेश्वर महादेव तथा सुनार के तट पर श्री गणेश मंदिर की स्थापना करवाई. ब्रिटिश गजेटियर के लेखक आरवी रसल ने भी अपने लेख में विस्तार से मराठा शासनकाल का उल्लेख किया है.

सोला पद्धति से होती थी पूजा : इतिहासकार बताते हैं कि मराठा शासन में गणेश पूजन को विशेष महत्व दिया जाता था. बड़े-बड़े थालों में आरतियां सजाई जाती थीं. दुंदुभी और बड़े-बड़े ढोल एवं नगाड़ों के साथ सोला पद्धति से गणेश जी का पूजन अर्चन किया जाता था. जब संध्याकालीन आरती होती थी, तब हजारों की संख्या में लोग वहां उपस्थित रहते थे. सूबेदार अपनी राजसी पोशाक में पूजन अर्चन किया करते थे. विशेष उत्सव पर यह छठा और भी भव्य हो जाती थी. इसके ठीक उलट अब यहां पर मंदिर की देखरेख एवं सफाई के लिए महज एक चौकीदार तथा पूजा के लिए एक पुजारी नियुक्त है.

रोशनी के नाम पर एक झालर तक नहीं : बस्ती से दूर सुनार के तट पर होने के कारण यहां पूजा आरती में अब बमुश्किल 4-6 लोग ही एकत्र होते हैं. कल से गणेश पर्व शुरू हो रहा है लेकिन मंदिर में रोशनी के नाम पर एक झालर तक नहीं लगी है. आम दिनों की तरह ही यहां पर सुबह शाम मात्र आरती होती है. किसी तरह के उत्सव के कोई चिन्ह भी नहीं हैं. सबसे खास बात यह है कि दमोह जिले में इतनी प्राचीन दक्षिणावर्ती प्रतिमा यह अकेली है. कमल दल पर विराजमान सिंदूरी गणेश प्रतिमा दूसरी कहीं नहीं है. इसके बाद भी इतनी वैभव और अतिशय कारी प्रतिमा और मंदिरों को बचाने के लिए पुरातत्व विभाग की ओर से कोई कदम नहीं उठाए जा रहे हैं.

चंबल में मौजूद है विश्व का सबसे प्राचीन शनि मंदिर, जानें कैसे हुआ इसका निर्माण

सरकार हमारी विरासत हमें लौटाएं : सूबेदार पांडुरंग राव करमरकर के वंशज दिवाकर विजय करमरकर कहते हैं कि हमारे पुरखों ने मुगलों और अंग्रेजों से इतनी लड़ाइयां लड़ी, अपना बलिदान दिया. इसके बाद भी हमारी विरासत की यह हालत है. जब 1857 में अंग्रेजों ने पूरे गांव को वीरान कर दिया तब यह प्रतिमा मंदिर से उठाकर छोटी सी मढ़िया में रख दी गई लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा के कारण किला और मंदिर दोनों ही खंडहर होते जा रहे हैं. इस वैभवशाली विरासत को बचाने के लिए पुरातत्व विभाग और प्रशासन द्वारा कोई पहल नहीं की जा रही है. यदि सरकार इनकी देखरेख नहीं कर पा रही है तो हमें या हमारी समाज को ही हमारी विरासत वापस सौंप दें तो कम से कम हम ही उसकी साज सवार कर सकते हैं. अपने सामने पुरखों की विरासत मिटते हुए देखना बहुत पीड़ादायक है.

दमोह। मराठाकालीन किले के ठीक सामने सुनार नदी के मुहाने पर ही ऐतिहासिक गणेश मंदिर भी अब खंडहर होने की कगार पर है तो दूसरी ओर उससे कुछ ऊपर बना सोमेश्वर महादेव का मंदिर अब पूरी तरह खंडहर हो चुका है. राम जानकी और हनुमान मंदिर का भी यही हाल है. 17 वीं शताब्दी में मराठा शासक पांडुरंग राव करमरकर द्वारा निर्मित यह सभी मंदिर अब वीरान पड़े हैं. सबसे प्राचीन और अतिशय कारी दक्षिणावर्ती सिंदूरी कमल दल पर विराजमान गणेश जी की प्रतिमा महज तीन फीट की छोटी सी मढ़िया में रखी हुई है और उसकी देखरेख एक माली और पूजा के लिए नियुक्त एक पुजारी के हाथ में है.

मराठाकालीन गणेश मंदिर खंडहर में तब्दील

बाजीराव के आदेश पर बना था : पांडुरंग राव के वंशज विजय करमरकर कहते हैं कि 1727 में जब मुगलों ने बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल पर आक्रमण किया तो उन्होंने बाजीराव पेशवा को खत भेजकर उनसे सहायता मांगी. तब बाजीराव पेशवा बगैर देरी किए महाराजा छत्रसाल की सहायता को पहुंच गए और मुगलों को खदेड़ दिया. वहां से लौटते हुए उन्होंने अपने खासम खास पांडुरंग राव करमरकर को नरसिंहगढ़ सूबे का सूबेदार बना दिया. साथ ही तत्कालीन नाम नसरतगढ़ को बदलकर नरसिंहगढ़ करने का आदेश दिया. तब सूबेदार पांडुरंग राव करमरकर ने किले के साथ ही श्री राम जानकी, श्री हनुमान, श्री सोमेश्वर महादेव तथा सुनार के तट पर श्री गणेश मंदिर की स्थापना करवाई. ब्रिटिश गजेटियर के लेखक आरवी रसल ने भी अपने लेख में विस्तार से मराठा शासनकाल का उल्लेख किया है.

सोला पद्धति से होती थी पूजा : इतिहासकार बताते हैं कि मराठा शासन में गणेश पूजन को विशेष महत्व दिया जाता था. बड़े-बड़े थालों में आरतियां सजाई जाती थीं. दुंदुभी और बड़े-बड़े ढोल एवं नगाड़ों के साथ सोला पद्धति से गणेश जी का पूजन अर्चन किया जाता था. जब संध्याकालीन आरती होती थी, तब हजारों की संख्या में लोग वहां उपस्थित रहते थे. सूबेदार अपनी राजसी पोशाक में पूजन अर्चन किया करते थे. विशेष उत्सव पर यह छठा और भी भव्य हो जाती थी. इसके ठीक उलट अब यहां पर मंदिर की देखरेख एवं सफाई के लिए महज एक चौकीदार तथा पूजा के लिए एक पुजारी नियुक्त है.

रोशनी के नाम पर एक झालर तक नहीं : बस्ती से दूर सुनार के तट पर होने के कारण यहां पूजा आरती में अब बमुश्किल 4-6 लोग ही एकत्र होते हैं. कल से गणेश पर्व शुरू हो रहा है लेकिन मंदिर में रोशनी के नाम पर एक झालर तक नहीं लगी है. आम दिनों की तरह ही यहां पर सुबह शाम मात्र आरती होती है. किसी तरह के उत्सव के कोई चिन्ह भी नहीं हैं. सबसे खास बात यह है कि दमोह जिले में इतनी प्राचीन दक्षिणावर्ती प्रतिमा यह अकेली है. कमल दल पर विराजमान सिंदूरी गणेश प्रतिमा दूसरी कहीं नहीं है. इसके बाद भी इतनी वैभव और अतिशय कारी प्रतिमा और मंदिरों को बचाने के लिए पुरातत्व विभाग की ओर से कोई कदम नहीं उठाए जा रहे हैं.

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सरकार हमारी विरासत हमें लौटाएं : सूबेदार पांडुरंग राव करमरकर के वंशज दिवाकर विजय करमरकर कहते हैं कि हमारे पुरखों ने मुगलों और अंग्रेजों से इतनी लड़ाइयां लड़ी, अपना बलिदान दिया. इसके बाद भी हमारी विरासत की यह हालत है. जब 1857 में अंग्रेजों ने पूरे गांव को वीरान कर दिया तब यह प्रतिमा मंदिर से उठाकर छोटी सी मढ़िया में रख दी गई लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा के कारण किला और मंदिर दोनों ही खंडहर होते जा रहे हैं. इस वैभवशाली विरासत को बचाने के लिए पुरातत्व विभाग और प्रशासन द्वारा कोई पहल नहीं की जा रही है. यदि सरकार इनकी देखरेख नहीं कर पा रही है तो हमें या हमारी समाज को ही हमारी विरासत वापस सौंप दें तो कम से कम हम ही उसकी साज सवार कर सकते हैं. अपने सामने पुरखों की विरासत मिटते हुए देखना बहुत पीड़ादायक है.

Last Updated : Aug 30, 2022, 4:26 PM IST
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