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जिद ने बदल दी किस्मत: कभी भीख मांगने वाले हाथ अब 'मायानगरी' को कर रहे रोशन

दमोह का तिंदौनी गांव कभी भीख मांगने के लिए बदनाम था. अब यहां के लोगों के बनाए गोबर के दीये दिल्ली, मुंबई तक लोगों के घर रोशन कर रहे हैं. देखिए, एक सरपंच की जिद ने कैसे बदल दिया पूरे गांव का भाग्य.

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जिद ने बदल दी दुनिया
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Published : Nov 4, 2021, 7:09 PM IST

दमोह। दमोह के एक छोटे से गांव में बने गोबर के दिए दिल्ली को भी रोशन कर रहे हैं. वोकल फॉर लोकल के स्वदेशी नारे के साथ ये अब चाइना के दीयों को टक्कर देकर उनके विकल्प के रूप में भी उभर रहे हैं.

वोकल फॉर लोकल की अनूठी मिसाल

दमोह मुख्यालय से मात्र 6 किलोमीटर दूर ग्राम तिंदोनी कभी भिक्षावृत्ति के लिए मशहूर था. यहां पर ज्यादातर नट जाति के लोग रहते हैं. उनका पेशा यही था कि वह करतब दिखाकर, भीख मांग कर या दान मांग कर अपने परिवार का गुजारा करते थे. लेकिन पिछले दो-तीन सालों में ही गांव में कुछ ऐसा हुआ कि भीख मांगने वाले बच्चे अब समाज की मुख्यधारा से जुड़ कर स्वावलंबी बन रहे हैं. यहां पर युवा सरपंच ने भिक्षावृत्ति करने वाले बच्चों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए एक नया काम शुरु किया और बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिए उसमें जोड़ दिया.

जिद ने बदल दी किस्मत: कभी भीख मांगने वाले हाथ अब 'मायानगरी' को कर रहे रोशन

कटोरा छोड़ हाथों ने सीखा हुनर

यहां के करीब 60 परिवार अब गाय के गोबर से दीयों, शुभ लाभ की आकृतियों, गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती जी की प्रतिमा सहित विभिन्न प्रकार की सामग्रियों का निर्माण कर रहे हैं. यहां के सरपंच सोमेश गुप्ता बताते हैं कि जब उन्होंने 6 साल पहले यहां की बागडोर संभाली तो समझ में ही नहीं आया कि इन बच्चों को आख़िर भिक्षावृत्ति और करतब दिखाने के काम से कैसे दूर किया जाए. मां बाप भी बच्चों से भीख मंगवाने में झिझकते नहीं थे. तब सोमेश के मन में यह विचार आया कि क्यों ना यहां पर कोई निर्माण इकाई डाली जाए, जिससे लोगों को रोजगार भी मिल सके और आमदनी भी होने लगे.सोमेश ने पहले सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटे, लेकिन जब सफलता नहीं मिली तो अपने ही खर्च से कुछ मशीनें लाए. बच्चों को गोबर से दीये बनाने की ट्रेनिंग दी. इसके बाद तो धीरे-धीरे लोग जुड़ते गए. अब इस काम में 60 परिवार के बच्चे अपना योगदान दे रहे हैं.

शुरु में लोगों को समझाना मुश्किल था

सोमेश बताते हैं कि शुरुआत में तो अच्छा नतीजा नहीं मिला. लेकिन जब लोगों को बताया गया कि यह गाय के गोबर से निर्मित पूरी तरह से हर्बल दीपक हैं. यह पूजन के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं, तब लोगों ने दीये खरीदना शुरू किया. इस तरह दीयों की मांग बढ़ती गई. अब आलम यह है कि दीयों की सप्लाई दमोह से निकलकर दिल्ली और अन्य प्रदेशों तक होने लगी है. हाल ही में दिल्ली और माइसेम सीमेंट फैक्ट्री से इस फिर दीयों का एक बड़ा ऑर्डर मिला. इसके अलावा जल शक्ति एवं फूड प्रोसेसिंग राज्य मंत्री प्रहलाद पटेल ने भी पंचायत में किए जा रहे इस कार्य की न केवल सराहना की बल्कि 5 सौ पैकेट दीयों की मांग भी की.

अनाथ बच्चों के बीच शिवराज: अपने हाथों से खिलाई पानीपुरी, कहा-इनका दर्द मेरा दर्द

कैसे बनते हैं गोबर से दीये

दीया बनाने वाली नन्ही कारीगर भागवती रजक बताती है कि पहले कंडों को तोड़कर उसे छन्ना में से छानते हैं. उसके बाद उसे मशीन में डालकर बिल्कुल बारीक पीस लेते हैं. जब वह पाउडर बन जाता है तो उसमें गोंद और बेल से बना पाउडर मिलाकर उसे आटे की तरह माढ़ लिया जाता है. फिर छोटी-छोटी लोई बनाकर उसे दिया बनाने वाली मशीन में रख दिया जाता है. उसके बाद उन दीयों में कलर किया जाता है. कलर होने के बाद दीपक से न तो तेल का रिसाव होता है और न ही वह आग में जलते हैं. भागवती कहती है कि पहले जो काम करते थे वह खराब था, लेकिन यह काम इज्जत वाला है.

दमोह। दमोह के एक छोटे से गांव में बने गोबर के दिए दिल्ली को भी रोशन कर रहे हैं. वोकल फॉर लोकल के स्वदेशी नारे के साथ ये अब चाइना के दीयों को टक्कर देकर उनके विकल्प के रूप में भी उभर रहे हैं.

वोकल फॉर लोकल की अनूठी मिसाल

दमोह मुख्यालय से मात्र 6 किलोमीटर दूर ग्राम तिंदोनी कभी भिक्षावृत्ति के लिए मशहूर था. यहां पर ज्यादातर नट जाति के लोग रहते हैं. उनका पेशा यही था कि वह करतब दिखाकर, भीख मांग कर या दान मांग कर अपने परिवार का गुजारा करते थे. लेकिन पिछले दो-तीन सालों में ही गांव में कुछ ऐसा हुआ कि भीख मांगने वाले बच्चे अब समाज की मुख्यधारा से जुड़ कर स्वावलंबी बन रहे हैं. यहां पर युवा सरपंच ने भिक्षावृत्ति करने वाले बच्चों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए एक नया काम शुरु किया और बच्चों को स्वावलंबी बनाने के लिए उसमें जोड़ दिया.

जिद ने बदल दी किस्मत: कभी भीख मांगने वाले हाथ अब 'मायानगरी' को कर रहे रोशन

कटोरा छोड़ हाथों ने सीखा हुनर

यहां के करीब 60 परिवार अब गाय के गोबर से दीयों, शुभ लाभ की आकृतियों, गणेश, लक्ष्मी, सरस्वती जी की प्रतिमा सहित विभिन्न प्रकार की सामग्रियों का निर्माण कर रहे हैं. यहां के सरपंच सोमेश गुप्ता बताते हैं कि जब उन्होंने 6 साल पहले यहां की बागडोर संभाली तो समझ में ही नहीं आया कि इन बच्चों को आख़िर भिक्षावृत्ति और करतब दिखाने के काम से कैसे दूर किया जाए. मां बाप भी बच्चों से भीख मंगवाने में झिझकते नहीं थे. तब सोमेश के मन में यह विचार आया कि क्यों ना यहां पर कोई निर्माण इकाई डाली जाए, जिससे लोगों को रोजगार भी मिल सके और आमदनी भी होने लगे.सोमेश ने पहले सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटे, लेकिन जब सफलता नहीं मिली तो अपने ही खर्च से कुछ मशीनें लाए. बच्चों को गोबर से दीये बनाने की ट्रेनिंग दी. इसके बाद तो धीरे-धीरे लोग जुड़ते गए. अब इस काम में 60 परिवार के बच्चे अपना योगदान दे रहे हैं.

शुरु में लोगों को समझाना मुश्किल था

सोमेश बताते हैं कि शुरुआत में तो अच्छा नतीजा नहीं मिला. लेकिन जब लोगों को बताया गया कि यह गाय के गोबर से निर्मित पूरी तरह से हर्बल दीपक हैं. यह पूजन के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं, तब लोगों ने दीये खरीदना शुरू किया. इस तरह दीयों की मांग बढ़ती गई. अब आलम यह है कि दीयों की सप्लाई दमोह से निकलकर दिल्ली और अन्य प्रदेशों तक होने लगी है. हाल ही में दिल्ली और माइसेम सीमेंट फैक्ट्री से इस फिर दीयों का एक बड़ा ऑर्डर मिला. इसके अलावा जल शक्ति एवं फूड प्रोसेसिंग राज्य मंत्री प्रहलाद पटेल ने भी पंचायत में किए जा रहे इस कार्य की न केवल सराहना की बल्कि 5 सौ पैकेट दीयों की मांग भी की.

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कैसे बनते हैं गोबर से दीये

दीया बनाने वाली नन्ही कारीगर भागवती रजक बताती है कि पहले कंडों को तोड़कर उसे छन्ना में से छानते हैं. उसके बाद उसे मशीन में डालकर बिल्कुल बारीक पीस लेते हैं. जब वह पाउडर बन जाता है तो उसमें गोंद और बेल से बना पाउडर मिलाकर उसे आटे की तरह माढ़ लिया जाता है. फिर छोटी-छोटी लोई बनाकर उसे दिया बनाने वाली मशीन में रख दिया जाता है. उसके बाद उन दीयों में कलर किया जाता है. कलर होने के बाद दीपक से न तो तेल का रिसाव होता है और न ही वह आग में जलते हैं. भागवती कहती है कि पहले जो काम करते थे वह खराब था, लेकिन यह काम इज्जत वाला है.

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