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दमोह ने हर बार निकाली 'जातिवाद' की हवा: इस बार क्या होगा ? - दमोह चुनाव

दमोह विधानसभा देश की उन चुनिंदा जगहों में से है, जहां जातिवाद कभी भी हावी नहीं रहा. यहां के वोटों का अंकगणित ऐसा है, कि कोई भी उम्मीदवार सिर्फ जाति का बखान करके जीत नहीं सकता.

no casteism in damoh
दमोह ने हर बार निकाली 'जातिवाद' की हवा
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Published : Apr 1, 2021, 11:56 AM IST

Updated : Apr 1, 2021, 12:24 PM IST

दमोह। विधानसभा उपचुनाव में जातिवाद के मुद्दे को लेकर ध्रुवीकरण तेज हो गया है. मध्य प्रदेश के गठन से लेकर अब तक खासकर दमोह विधानसभा में जातिवाद का मुद्दा कभी भी हावी नहीं रहा. दल चाहे कोई भी रहा हो जातिवाद के सहारे किसी की नैया पार नहीं लग पाई.

जनता ने निकाली जातिवाद की हवा

दमोह विधानसभा उन बिरले विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जहां जातिवाद की पतवार लेकर कोई भी चुनावी वैतरणी पार नहीं कर पाया. दमोह विधानसभा में जातिवाद की आग को कई बार भड़काने की कोशिश की गई, लेकिन जनता ने उस पर हर बार ठंडा पानी डाल दिया. मध्य प्रदेश के गठन से लेकर अब तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ, कि किसी भी दल का कोई प्रत्याशी जातिवाद के सहारे विधानसभा पहुंचा हो. इस चुनाव में ग्रामीण अंचलों में जातिवाद की हवा फिर से चल पड़ी है, लेकिन उसका कितना असर पड़ेगा इसका इंतजार करना होगा. दमोह विधानसभा के मतदाताओं ने हमेशा जातिवाद को नकारा है. सिर्फ 2018 के आम चुनाव में ऐसा हुआ कि जातिवाद के नाम पर कुछ ध्रुवीकरण देखने को मिला. वो भी सौ फीसदी कारगर नहीं रहा.

कौन कितना ताकतवर ?

2018 के आम चुनाव में दमोह विधानसभा में 1 लाख 21 हज़ार 430 पुरुष, 1 लाख 11 हज़ार 959 महिलाएं और 10 अन्य मतदाता थे. दो सालों में 5797 मतदाता और बढ़ गए. जातिगत समीकरण के हिसाब से देखा जाए करीब 40 हज़ार मतदाता अनुसूचित जाति वर्ग से हैं. करीब 27 हज़ार लोधी, 27 से 28 हज़ार ब्राह्मण, करीब 19 हज़ार मुस्लिम, 17 से 18 हजार जैन, करीब पांच हज़ार ईसाई, करीब पांच से सात हज़ार कायस्थ, चार हज़ार गुप्ता, आठ से 10 हज़ार यादव और चौरसिया, सिक्ख, असाटी, राजपूत लगभग 15 सौ से ढाई हजार के बीच हैं. वोटों के अंकगणित से साफ है कि कोई भी प्रत्याशी सिर्फ अपने समाज के वोटों के आधार पर जीत हासिल नहीं कर सकता.

कब-कब हारा जातिवाद ?

1962 में आनंद कुमार श्रीवास्तव, 1967 में प्रभु नारायण टंडन, 1972 में फिर से आनंद श्रीवास्तव, 1975 और 1977 में प्रभु नारायण टंडन, 1980 में चंद्र नारायण टंडन, 1984 में जयंत मलैया, 1985 में मुकेश नायक और 1990 से 2013 तक लगातार जयंत मलैया दमोह विधायक रहे. आनंद श्रीवास्तव और टंडन परिवार जितनी बार भी विजयी हुए उस समय उनके समाज के वोटों का हिस्सा सिर्फ दो से तीन फीसदी ही था. 1985 और 1990 से 2013 तक मुकेश नायक और जयंत मलैया जब-जब जीते, उस समय उनके समाज के वोटों का प्रतिशत पांच से 10 के बीच ही रहा. साफ है कि सिर्फ जाति के दम पर यहां जीतना संभव नहीं है.

बीजेपी की चुनाव आयोग से मांग, कांग्रेस प्रत्याशी का निरस्त हो नामांकन

ये चुनाव क्यों अहम है?

2021 का यह चुनाव एक बार फिर ऐतिहासिक होने वाला है. ग्रामीण अंचलों में जातिगत आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिशें तेज हो गई हैं. साथ ही जिताऊ बनाम टिकाऊ और विकास बनाम बंटाधार का मुद्दा भी चल रहा है. ऐसे में देखना होगा कि दमोह के जागरूक मतदाता विकास के मुद्दे पर अपना मत देते हैं या फिर जातिवाद की हवा में बहकर दमोह की राजनीति की दशा और दिशा तय करेंगे.

दमोह। विधानसभा उपचुनाव में जातिवाद के मुद्दे को लेकर ध्रुवीकरण तेज हो गया है. मध्य प्रदेश के गठन से लेकर अब तक खासकर दमोह विधानसभा में जातिवाद का मुद्दा कभी भी हावी नहीं रहा. दल चाहे कोई भी रहा हो जातिवाद के सहारे किसी की नैया पार नहीं लग पाई.

जनता ने निकाली जातिवाद की हवा

दमोह विधानसभा उन बिरले विधानसभा क्षेत्रों में से एक है जहां जातिवाद की पतवार लेकर कोई भी चुनावी वैतरणी पार नहीं कर पाया. दमोह विधानसभा में जातिवाद की आग को कई बार भड़काने की कोशिश की गई, लेकिन जनता ने उस पर हर बार ठंडा पानी डाल दिया. मध्य प्रदेश के गठन से लेकर अब तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ, कि किसी भी दल का कोई प्रत्याशी जातिवाद के सहारे विधानसभा पहुंचा हो. इस चुनाव में ग्रामीण अंचलों में जातिवाद की हवा फिर से चल पड़ी है, लेकिन उसका कितना असर पड़ेगा इसका इंतजार करना होगा. दमोह विधानसभा के मतदाताओं ने हमेशा जातिवाद को नकारा है. सिर्फ 2018 के आम चुनाव में ऐसा हुआ कि जातिवाद के नाम पर कुछ ध्रुवीकरण देखने को मिला. वो भी सौ फीसदी कारगर नहीं रहा.

कौन कितना ताकतवर ?

2018 के आम चुनाव में दमोह विधानसभा में 1 लाख 21 हज़ार 430 पुरुष, 1 लाख 11 हज़ार 959 महिलाएं और 10 अन्य मतदाता थे. दो सालों में 5797 मतदाता और बढ़ गए. जातिगत समीकरण के हिसाब से देखा जाए करीब 40 हज़ार मतदाता अनुसूचित जाति वर्ग से हैं. करीब 27 हज़ार लोधी, 27 से 28 हज़ार ब्राह्मण, करीब 19 हज़ार मुस्लिम, 17 से 18 हजार जैन, करीब पांच हज़ार ईसाई, करीब पांच से सात हज़ार कायस्थ, चार हज़ार गुप्ता, आठ से 10 हज़ार यादव और चौरसिया, सिक्ख, असाटी, राजपूत लगभग 15 सौ से ढाई हजार के बीच हैं. वोटों के अंकगणित से साफ है कि कोई भी प्रत्याशी सिर्फ अपने समाज के वोटों के आधार पर जीत हासिल नहीं कर सकता.

कब-कब हारा जातिवाद ?

1962 में आनंद कुमार श्रीवास्तव, 1967 में प्रभु नारायण टंडन, 1972 में फिर से आनंद श्रीवास्तव, 1975 और 1977 में प्रभु नारायण टंडन, 1980 में चंद्र नारायण टंडन, 1984 में जयंत मलैया, 1985 में मुकेश नायक और 1990 से 2013 तक लगातार जयंत मलैया दमोह विधायक रहे. आनंद श्रीवास्तव और टंडन परिवार जितनी बार भी विजयी हुए उस समय उनके समाज के वोटों का हिस्सा सिर्फ दो से तीन फीसदी ही था. 1985 और 1990 से 2013 तक मुकेश नायक और जयंत मलैया जब-जब जीते, उस समय उनके समाज के वोटों का प्रतिशत पांच से 10 के बीच ही रहा. साफ है कि सिर्फ जाति के दम पर यहां जीतना संभव नहीं है.

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ये चुनाव क्यों अहम है?

2021 का यह चुनाव एक बार फिर ऐतिहासिक होने वाला है. ग्रामीण अंचलों में जातिगत आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिशें तेज हो गई हैं. साथ ही जिताऊ बनाम टिकाऊ और विकास बनाम बंटाधार का मुद्दा भी चल रहा है. ऐसे में देखना होगा कि दमोह के जागरूक मतदाता विकास के मुद्दे पर अपना मत देते हैं या फिर जातिवाद की हवा में बहकर दमोह की राजनीति की दशा और दिशा तय करेंगे.

Last Updated : Apr 1, 2021, 12:24 PM IST
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