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जाति प्रमाण पत्र के लिए कहां से लाएं 'बाप' का नाम, मजूरी में मां बनीं बेड़नियों की बेड़ियां - Raisen Dry Precipitation Village

नाम-ग्राहकों से हर दिन नए मिल जाते हैं. काम-जब तक पैसे उड़ते रहें..नाचना है इन्हें. समुदाय को बेड़िया कहा जाता है, लेकिन मजबूरी में मां बन जाने वाली इन महिलाओं का सम्मानजनक जिंदगी में लौटना एक सवाल पर अटक गया है. सवाल ये कि, पहले अपने बच्चों के पिता का नाम बताएं. देखिए बेड़िया समुदाय के गांव सुखा करारा से ईटीवी भारत की ग्राउंड रिपोर्ट.

MP Bediya Samaj women
एमपी बेड़िया समाज महिला डांस
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Published : Feb 25, 2023, 10:35 PM IST

Updated : Feb 26, 2023, 12:27 PM IST

मजूरी में मां बनीं बेड़नियों की बेड़ियां

भोपाल। रात की मल्लिका..नाचने वाली..हसीना और धड़कन जैसे कई नाम तो दे दिए..लेकिन बेड़िया समाज की ये औरतें समाज में लौटना चाहें तो सम्मान की जिंदगी में रास्ता नहीं इन्हें बेड़ियां ही मिली है. जो पहचान इन्हें मिली है. वो इनके बच्चों तक न पहुंचे इसलिए झूमते-झूमते थक चुकी बेड़िया जाति की ये महिलाएं अपने लिए भी अब सुकून और सम्मान का काम चाहती हैं. बच्चों के लिए सम्मानजनक नौकरी चाहती हैं, लेकिन इसके पीछे नाम की पहचान काफी मुश्किल है. समाज से मिले और सिस्टम में खड़े इस मुश्किल सवाल का इनके पास कोई जवाब नहीं है.

कहां से लाएं पिता का रिकॉर्ड: बलिया बाई (परिवर्तित नाम) शुरुआत इसी सवाल से करती हैं. कौन चाहता है रात भर नाचना? कौन चाहता है इस उम्र में भी छेड़छाड़ हो? मैने HIV के कार्यक्रम में एजुकेटर की ट्रेनिंग ली थी. पंद्रह सौ रुपये मिलते थे. इसी के दम पर आशा कार्यकर्ता के लिए भी कोशिश की, लेकिन जाति प्रमाण पत्र में काम अटक गया. मेरे पास जाति का कोई प्रमाण नहीं है. मैने यहीं काम करके अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. अब उनकी सरकारी नौकरी लगवानी है. उनके भी जाति प्रमाण-पत्र चाहिए. बनवाने जाओ तो कहते हैं पिता का रिकॉर्ड लाओ. बाप का नाम निकलवाओ. हम कहां से और कितने बाप का नाम दे दें. वो तो छोड़ जाते हैं. और कह देते हैं तुम बच्चों के साथ रहना हम आएंगे. जाने के बाद भला कौन लौट के आता है?

नर्सिंग का कोर्स अटका: सुशीला बाई (परिवर्तित नाम) मैं इस काम से थक चुकी हूं. छोड़ना चाहती हूं. मेरी मां नर्सिंग का कोर्स करवा रही थी कि नौकरी लग जाएगी तो रात रात भटकना नहीं पड़ेगा, लेकिन वहां जाति प्रमाण पत्र मांग रहे हैं. सुशीला को अपनी बेटी का नाम भी लाड़ली लक्ष्मी योजना में दर्ज करवाना है. वहां भी ये प्रमाण चाहिए. प्रमाण पत्र बनवाने जाओ तो पिता के नाम का सवाल पूछा जाता है. सुशीला कहती है, सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता. अब लाड़ली बहन में हजार रुपए मिलेंगे या नहीं वो भी पता नहीं. क्योंकि हमारे पास अपनी जाति का कोई प्रमाण नहीं.

जब तक नूर तब तक न्यौछावर: प्रिया (परिवर्तित नाम) अभी 18 साल की है. उसकी मां कहती है अभी इसकी मार्केट में काफी डिमांड है. लोग उसे रूप की मल्लिका कहते हैं. जब तक खूबसूरती रहती है तब तक खूब न्यौछावर होती है. नई नवेली और यौवन से खिली लड़कियों के लिए लाइन लगी रहती है. 40 साल के बाद फिर कोई नहीं पूछता है. उम्र ढलने के साथ धंधा ढलने लगता है. गांव में कई ऐसी महिलाएं हैं जो अब अपनी बेटियों के भरोसे हैं कि वो कमा के खिला दें या फिर काम धंधा ढूंढ़ रही हैं. एक रात के इन्हें 2 हजार से 4 हजार तक मिलते हैं. कई बार पूरी रात नाचना पड़ता है. न्यौछावर अलग से मिलती है. प्रिया कहती है कि, जब तक न्यौछावर चलती रहती है. तब तक हमारे पैर नहीं रुकते. नोट उड़ते रहतें हैं हम नाचते रहते हैं. फिर जो अच्छी लगती है उसे लेकर चले जाते हैं. जो छूट जाती हैं धीरे-धीरे उनको काम मिलना बंद हो जाता है.

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मां बनना मजूरी: जिस रात के लिए इनको ले जाना होता है. उस रात के लिए इन्हें पहले से गांव में तैयार किया जाता है. सुशीला कहती हैं जो नथ उतारता है. उसी का सिंदूर जिंदगी भर के लगाते हैं. बाद में चाहे हमारे साथ जो भी हो. चाहे जिसके बच्चे हों. बड़ी बात ये है कि, इनका मां बन जाना भी इनकी मजूरी का हिस्सा होता है. फिर भी ये बच्चों को नहीं छोड़ती. बावजूद इसके कि, मां बन जाने के बाद कई साल काम करना मुश्किल होता है.

कमाई का सीजन होली: होली के 10-15 दिन पहले से इनकी बुकिंग शुरु हो जाती है. इस दौरान गांव देहात में लगने वाले मेले और शादी ब्याह में इन्हें नाचने के लिए ले जाया जाता है. बेदू बाई अब ये काम छोड़ चुकी हैं, वे बताती हैं कि, होली पर साल भर की कमाई कर लेते हैं. इन्हीं दिनों सबसे ज्यादा पार्टियां लेकर जाती हैं. शादी ब्याह में ले जाते हैं और होली का प्रोग्राम जहां होता है उसमें नचाते हैं.

सूखा करारा की पहचान बेड़िया: रायसेन जिले के सूखा करारा और दुलई समेत 3 गांव हैं. जिन गांवों की शिनाख्त ही बेड़िया समाज से कर दी गई है. क्योंकि इन गांवों में इसी समाज की बड़ी आबादी है. इसी पेशे में हरबो बाई की उम्र गुजर गई. वो कहती है अब गांव को तो बदनाम नहीं करना चाहिए. जो लड़कियां नहीं जा रही इस धंधे में वो भी बदनाम हो जाती हैं. इस गांव में किसी के आने का मतलब ये निकाल लिया जाता है कि, हमारे यहां भी सब यही करते हैं. जिनकी शादी करनी है, वो लड़कियां फिर नाचने नहीं जातीं, न बहूएं जातीं, लेकिन पूरे गांव को एक नजर से लोग देखते हैं. हालत ये हो जाती है कि, बेटा बदनामी के डर से मां के साथ नहीं चलता.

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हम भी इंसान हैं: संतो बाई (परिवर्तित नाम) दसवीं तक पढ़ी हैं. बुनियादी सवाल उठाती है. मीडिया से पूछती है कि, लोग क्यों आते हैं हमारी स्टोरी कवर करने. क्या हम अजूबे हैं. हम क्यों समाज से अलग है. क्यों हमको बेड़िया कहते हैं. हम भी आप लोगों की तरह हाड़ मांस के इंसान हैं. हमसे ऐसा भेदभाव क्यों किया जाता है. क्यों हमें अलग नजर से देखा जाता है.

मजूरी में मां बनीं बेड़नियों की बेड़ियां

भोपाल। रात की मल्लिका..नाचने वाली..हसीना और धड़कन जैसे कई नाम तो दे दिए..लेकिन बेड़िया समाज की ये औरतें समाज में लौटना चाहें तो सम्मान की जिंदगी में रास्ता नहीं इन्हें बेड़ियां ही मिली है. जो पहचान इन्हें मिली है. वो इनके बच्चों तक न पहुंचे इसलिए झूमते-झूमते थक चुकी बेड़िया जाति की ये महिलाएं अपने लिए भी अब सुकून और सम्मान का काम चाहती हैं. बच्चों के लिए सम्मानजनक नौकरी चाहती हैं, लेकिन इसके पीछे नाम की पहचान काफी मुश्किल है. समाज से मिले और सिस्टम में खड़े इस मुश्किल सवाल का इनके पास कोई जवाब नहीं है.

कहां से लाएं पिता का रिकॉर्ड: बलिया बाई (परिवर्तित नाम) शुरुआत इसी सवाल से करती हैं. कौन चाहता है रात भर नाचना? कौन चाहता है इस उम्र में भी छेड़छाड़ हो? मैने HIV के कार्यक्रम में एजुकेटर की ट्रेनिंग ली थी. पंद्रह सौ रुपये मिलते थे. इसी के दम पर आशा कार्यकर्ता के लिए भी कोशिश की, लेकिन जाति प्रमाण पत्र में काम अटक गया. मेरे पास जाति का कोई प्रमाण नहीं है. मैने यहीं काम करके अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. अब उनकी सरकारी नौकरी लगवानी है. उनके भी जाति प्रमाण-पत्र चाहिए. बनवाने जाओ तो कहते हैं पिता का रिकॉर्ड लाओ. बाप का नाम निकलवाओ. हम कहां से और कितने बाप का नाम दे दें. वो तो छोड़ जाते हैं. और कह देते हैं तुम बच्चों के साथ रहना हम आएंगे. जाने के बाद भला कौन लौट के आता है?

नर्सिंग का कोर्स अटका: सुशीला बाई (परिवर्तित नाम) मैं इस काम से थक चुकी हूं. छोड़ना चाहती हूं. मेरी मां नर्सिंग का कोर्स करवा रही थी कि नौकरी लग जाएगी तो रात रात भटकना नहीं पड़ेगा, लेकिन वहां जाति प्रमाण पत्र मांग रहे हैं. सुशीला को अपनी बेटी का नाम भी लाड़ली लक्ष्मी योजना में दर्ज करवाना है. वहां भी ये प्रमाण चाहिए. प्रमाण पत्र बनवाने जाओ तो पिता के नाम का सवाल पूछा जाता है. सुशीला कहती है, सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता. अब लाड़ली बहन में हजार रुपए मिलेंगे या नहीं वो भी पता नहीं. क्योंकि हमारे पास अपनी जाति का कोई प्रमाण नहीं.

जब तक नूर तब तक न्यौछावर: प्रिया (परिवर्तित नाम) अभी 18 साल की है. उसकी मां कहती है अभी इसकी मार्केट में काफी डिमांड है. लोग उसे रूप की मल्लिका कहते हैं. जब तक खूबसूरती रहती है तब तक खूब न्यौछावर होती है. नई नवेली और यौवन से खिली लड़कियों के लिए लाइन लगी रहती है. 40 साल के बाद फिर कोई नहीं पूछता है. उम्र ढलने के साथ धंधा ढलने लगता है. गांव में कई ऐसी महिलाएं हैं जो अब अपनी बेटियों के भरोसे हैं कि वो कमा के खिला दें या फिर काम धंधा ढूंढ़ रही हैं. एक रात के इन्हें 2 हजार से 4 हजार तक मिलते हैं. कई बार पूरी रात नाचना पड़ता है. न्यौछावर अलग से मिलती है. प्रिया कहती है कि, जब तक न्यौछावर चलती रहती है. तब तक हमारे पैर नहीं रुकते. नोट उड़ते रहतें हैं हम नाचते रहते हैं. फिर जो अच्छी लगती है उसे लेकर चले जाते हैं. जो छूट जाती हैं धीरे-धीरे उनको काम मिलना बंद हो जाता है.

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मां बनना मजूरी: जिस रात के लिए इनको ले जाना होता है. उस रात के लिए इन्हें पहले से गांव में तैयार किया जाता है. सुशीला कहती हैं जो नथ उतारता है. उसी का सिंदूर जिंदगी भर के लगाते हैं. बाद में चाहे हमारे साथ जो भी हो. चाहे जिसके बच्चे हों. बड़ी बात ये है कि, इनका मां बन जाना भी इनकी मजूरी का हिस्सा होता है. फिर भी ये बच्चों को नहीं छोड़ती. बावजूद इसके कि, मां बन जाने के बाद कई साल काम करना मुश्किल होता है.

कमाई का सीजन होली: होली के 10-15 दिन पहले से इनकी बुकिंग शुरु हो जाती है. इस दौरान गांव देहात में लगने वाले मेले और शादी ब्याह में इन्हें नाचने के लिए ले जाया जाता है. बेदू बाई अब ये काम छोड़ चुकी हैं, वे बताती हैं कि, होली पर साल भर की कमाई कर लेते हैं. इन्हीं दिनों सबसे ज्यादा पार्टियां लेकर जाती हैं. शादी ब्याह में ले जाते हैं और होली का प्रोग्राम जहां होता है उसमें नचाते हैं.

सूखा करारा की पहचान बेड़िया: रायसेन जिले के सूखा करारा और दुलई समेत 3 गांव हैं. जिन गांवों की शिनाख्त ही बेड़िया समाज से कर दी गई है. क्योंकि इन गांवों में इसी समाज की बड़ी आबादी है. इसी पेशे में हरबो बाई की उम्र गुजर गई. वो कहती है अब गांव को तो बदनाम नहीं करना चाहिए. जो लड़कियां नहीं जा रही इस धंधे में वो भी बदनाम हो जाती हैं. इस गांव में किसी के आने का मतलब ये निकाल लिया जाता है कि, हमारे यहां भी सब यही करते हैं. जिनकी शादी करनी है, वो लड़कियां फिर नाचने नहीं जातीं, न बहूएं जातीं, लेकिन पूरे गांव को एक नजर से लोग देखते हैं. हालत ये हो जाती है कि, बेटा बदनामी के डर से मां के साथ नहीं चलता.

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हम भी इंसान हैं: संतो बाई (परिवर्तित नाम) दसवीं तक पढ़ी हैं. बुनियादी सवाल उठाती है. मीडिया से पूछती है कि, लोग क्यों आते हैं हमारी स्टोरी कवर करने. क्या हम अजूबे हैं. हम क्यों समाज से अलग है. क्यों हमको बेड़िया कहते हैं. हम भी आप लोगों की तरह हाड़ मांस के इंसान हैं. हमसे ऐसा भेदभाव क्यों किया जाता है. क्यों हमें अलग नजर से देखा जाता है.

Last Updated : Feb 26, 2023, 12:27 PM IST
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