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मैटरनिटी लीव के लिए 5 साल लगाए कोर्ट के चक्कर, अब मिला इंसाफ - MP Maternity leave

ये कहानी उस संविदा कर्मचारी की है जिसे मैटरनिटी लीव का हक हासिल करने के लिए उसे कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी. इसे केवल खबर की तरह नहीं पढ़ा जाना चाहिए. इसे आप इस सवाल के साथ पढ़िए कि खुद की माता-बहन के लिए संवेदनशील सरकारों में मां बनने जा रही किसी स्त्री के लिए संवेदना के सूचकांक का स्तर क्या है. इसकी हकीकत क्या है. सरकार कोई दावे करे धरातल पर स्थिति ये है कि, मां बनने जा रही महिला कर्मचारी को मातृत्व की सुविधा भी इस पैमाने पर तय होती है कि वो नियमित है या संविदा पर. सुषमा द्विवेदी को भी जानिए जो इस सुविधा के लिए अदालत तक लड़ने के लिए पहुंच गईं.

MP maternity leave
मैटरनिटी लीव के लिए अदालत तक लड़ाई
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Published : Mar 2, 2023, 8:38 PM IST

भोपाल। क्या नियमित होने से मां की दिक्कतें बच्चे को पालने की चुनौती बदल जाती है. क्या नियमित कर्मचारी के तौर पर काम कर रही मां अलग होती है और संविदा पर काम कर रही मां अलग. ये सवाल इसलिए उठा कि 5 जून 2018 को जो संविदा नीति जारी की गई उसमें संविदा कर्मचारी को प्रसूति अवकाश तीन महीने ही तय किया गया. जबकि भारत सरकार ने ये प्रावधान किया है कि मजदूरों को भी 6 महीने का प्रसूति अवकाश दिया जाएगा. फिर चाहे वो महिला कर्मचारी किसी प्राइवेट संस्थान में हो या शासकीय संस्थान में. सर्व शिक्षा आभियान विभाग और पर्यावरण ये दो ऐसे विभाग हैं जहां महिला कर्मचारियों को 6 महीने का प्रसूति अवकाश मिलता है. बाकी सभी में केवल तीन महीने का अवकाश है.

एक साल अटकी फाईल: चुनाव के दौरान जिस साइलेंट वोटर को गेम चेंजर की तरह इस्तेमाल किया जाता है. उस महिला वोटर से जुड़ी समस्याओं के लिए सिस्टम में कितनी संवेदनशीलता है. ये भी जान लीजिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ये घोषणा कर चुके हैं कि, संविदा महिला कर्मचारियों को नियमित कर्मचारियों की तरह ही 6 महने का प्रसूति अवकाश दिया जाए लेकिन घोषणा के अमल की स्थिति ये है कि इससे संबंधित फाईल एक साल से वित्त विभाग में अटकी हुई है. मध्यप्रदेश संविदा अधिकारी कर्मचारी संघ के प्रदेशाअध्यक्ष रमेश राठौर बताते हैं सिस्टम में मां बनने जा रही स्त्री के लिए कितनी संवेदनशीलता है इसकी मिसाल देखिए आपकि अफसरों को इस बात की चिंता ही नहीं है कि, घोषणा के बावजूद अमल में नहीं आने से कितनी संविदा महिला कर्मचारी अपने अधिकार से वंचित हैं. मातृत्व अवकाश को लेकर पूरे सिस्टम में बड़ी विसंगति है.

संविदा पर होने से मां बदल जाती है क्या: मातृत्व अवकाश के लिए सुषमा द्विवेदी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ चुकी हैं. वे सवाल करती है कि संविदा कर्मचारी होने से क्या मां के दायित्व उसकी कठिनाईयां उसके शरीर को गर्भधारण के साथ होने वाला नुकसान ये सब बदल जाता है क्या. ये विज्ञान कहता है कि किसी भी मां को बच्चे के जन्म के बाद सामान्य शक्ति से काम करने में 6 महीने का समय लगता है. ये तो हर मां के लिए है. जबकि भारत का संविधान हर कामकाजी मां को 6 महीने के मातृत्व अवकाश की सुविधा देता है. लोकस्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में कार्य करती रहीं संविदा कर्मचारी सुषमा ने मातृत्व अवकाश के लिए कानूनी लड़ाई उन्होंने लड़ी.

महिला की हिम्मत: उमरिया में पीएचई कार्यालय में संविदा कर्मचारी के रुप में काम करते समय सुषमा का दिसंबर 2016 से मई 2017 तक की समयावधि का प्रसूति अवकाश केवल इस वजह से मंजूर नहीं किया गया कि, वो नियमित कर्मचारी नहीं हैं. इसके साथ ही संविदा कर्मचारी के तौर पर उनका जो कॉन्ट्रेक्ट है. उसमे प्रसूतिव अवकाश का कॉलम ही नहीं है. सुषमा ने यह लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. वे कहती हैं जब मेरा बच्चा 6 महीने का था तब मैं अपनी नौकरी के साथ अदालत के चक्कर लगा रही थी. ये समय किसी भी स्त्री के लिए काफी मुश्किल समय होता है. लेकिन मैनें हिम्मत से लडाई लड़ी कि मेरे बाद आने वाली महिला कर्मचारियों के मां बनने का रास्ता संविदा कर्मचारी के तौर पर आसान हो सके. सुषमा बताती हैं समय लगा मेरा 6 महीने का बच्चा पांच साल का हो गया. लेकिन इंसाफ तो मिला.

कोर्ट से मिला मां को इंसाफ: सुषमा कहती हैं, मेरा संविधान पर भरोसा था. अदालत पर भरोसा था. उसी भरोसे के दम पर इस लडाई में मैं हारी नहीं. आखिरी में हुआ भी यही अदालत ने अपने आदेश में ये स्पष्ट कहा कि संविदा महिला कर्मचारी को प्रसूति अवकाश का समान लाभ नहीं देने की कोई वजह नहीं दिखती. जस्टिस विशाल धगत की एकल पीट की ओर से मातृत्व अवकाश का लाभ देने के निर्देश हो गए. सुषमा बताती हैं आसान तो कुछ नहीं था इस कानूनी लड़ाई में पचास हजार के करीब खर्चा हुआ. आर्थिक लडाई अपनी जगह थी. शारीरिक और मानसिक संघर्ष अलग था, लेकिन अदालत से मिली जीत ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया. ये हिम्मत दी कि मैंने लड़ाई लड़कर सही किया.

सिस्टम में दिक्कत: सुषमा कहती हैं सबसे बड़ी दिक्कत ये है सिस्टम में कि लोग अपने ही खिलाफ होने वाली नाइंसाफी पर बोलने तैयार नहीं होते. डर जाते हैं कि जो है वो भी ना छिन जाए. आस-पास अब भी महिलाएं हैं जो संविदा पर काम कर रही हैं और प्रसूति अवकाश से वंचित हैं. लड़ना नहीं जानती. सुषमा सवाल करती हैं कि, हैरत की बात नहीं है ये कि सरकार की निगाह में नियमित कर्मचारी अलग मां है और संविदा पर काम कर रही कर्मचारी अलग है. फर्क है तभी तो सुविधा में भी फर्क किया गया है. क्या वजह है कि संविदा पर काम कर रही महिला कर्मचारी को 3 महीने अवकाश मुश्किल से मिल रहा है. नियमित कर्मचारी को चाईल्ड केयर के लिए 2 साल का अवकाश अलग से मिलता है.

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संविधान में सुरक्षित मां के अधिकार: संविधान के अनुच्छेद 42 में मातृत्व के लिए सुविधा और राहत प्रदान करने का प्रावधान किया गया है. 1961 मे आए मातृत्व लाभ अधिनियम मे ये प्रावधान किया गया है कि जो भी महिला कर्मचारी 80 दिन तक कार्यरत रही है. वह मातृत्व लाभ के दायरे में आएगी. फिर चाहे उसकी नियुक्ति संविदा कर्मचारी के तौर पर हुई हो या किसी और रुप में.

भोपाल। क्या नियमित होने से मां की दिक्कतें बच्चे को पालने की चुनौती बदल जाती है. क्या नियमित कर्मचारी के तौर पर काम कर रही मां अलग होती है और संविदा पर काम कर रही मां अलग. ये सवाल इसलिए उठा कि 5 जून 2018 को जो संविदा नीति जारी की गई उसमें संविदा कर्मचारी को प्रसूति अवकाश तीन महीने ही तय किया गया. जबकि भारत सरकार ने ये प्रावधान किया है कि मजदूरों को भी 6 महीने का प्रसूति अवकाश दिया जाएगा. फिर चाहे वो महिला कर्मचारी किसी प्राइवेट संस्थान में हो या शासकीय संस्थान में. सर्व शिक्षा आभियान विभाग और पर्यावरण ये दो ऐसे विभाग हैं जहां महिला कर्मचारियों को 6 महीने का प्रसूति अवकाश मिलता है. बाकी सभी में केवल तीन महीने का अवकाश है.

एक साल अटकी फाईल: चुनाव के दौरान जिस साइलेंट वोटर को गेम चेंजर की तरह इस्तेमाल किया जाता है. उस महिला वोटर से जुड़ी समस्याओं के लिए सिस्टम में कितनी संवेदनशीलता है. ये भी जान लीजिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी ये घोषणा कर चुके हैं कि, संविदा महिला कर्मचारियों को नियमित कर्मचारियों की तरह ही 6 महने का प्रसूति अवकाश दिया जाए लेकिन घोषणा के अमल की स्थिति ये है कि इससे संबंधित फाईल एक साल से वित्त विभाग में अटकी हुई है. मध्यप्रदेश संविदा अधिकारी कर्मचारी संघ के प्रदेशाअध्यक्ष रमेश राठौर बताते हैं सिस्टम में मां बनने जा रही स्त्री के लिए कितनी संवेदनशीलता है इसकी मिसाल देखिए आपकि अफसरों को इस बात की चिंता ही नहीं है कि, घोषणा के बावजूद अमल में नहीं आने से कितनी संविदा महिला कर्मचारी अपने अधिकार से वंचित हैं. मातृत्व अवकाश को लेकर पूरे सिस्टम में बड़ी विसंगति है.

संविदा पर होने से मां बदल जाती है क्या: मातृत्व अवकाश के लिए सुषमा द्विवेदी लंबी कानूनी लड़ाई लड़ चुकी हैं. वे सवाल करती है कि संविदा कर्मचारी होने से क्या मां के दायित्व उसकी कठिनाईयां उसके शरीर को गर्भधारण के साथ होने वाला नुकसान ये सब बदल जाता है क्या. ये विज्ञान कहता है कि किसी भी मां को बच्चे के जन्म के बाद सामान्य शक्ति से काम करने में 6 महीने का समय लगता है. ये तो हर मां के लिए है. जबकि भारत का संविधान हर कामकाजी मां को 6 महीने के मातृत्व अवकाश की सुविधा देता है. लोकस्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग में कार्य करती रहीं संविदा कर्मचारी सुषमा ने मातृत्व अवकाश के लिए कानूनी लड़ाई उन्होंने लड़ी.

महिला की हिम्मत: उमरिया में पीएचई कार्यालय में संविदा कर्मचारी के रुप में काम करते समय सुषमा का दिसंबर 2016 से मई 2017 तक की समयावधि का प्रसूति अवकाश केवल इस वजह से मंजूर नहीं किया गया कि, वो नियमित कर्मचारी नहीं हैं. इसके साथ ही संविदा कर्मचारी के तौर पर उनका जो कॉन्ट्रेक्ट है. उसमे प्रसूतिव अवकाश का कॉलम ही नहीं है. सुषमा ने यह लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी. वे कहती हैं जब मेरा बच्चा 6 महीने का था तब मैं अपनी नौकरी के साथ अदालत के चक्कर लगा रही थी. ये समय किसी भी स्त्री के लिए काफी मुश्किल समय होता है. लेकिन मैनें हिम्मत से लडाई लड़ी कि मेरे बाद आने वाली महिला कर्मचारियों के मां बनने का रास्ता संविदा कर्मचारी के तौर पर आसान हो सके. सुषमा बताती हैं समय लगा मेरा 6 महीने का बच्चा पांच साल का हो गया. लेकिन इंसाफ तो मिला.

कोर्ट से मिला मां को इंसाफ: सुषमा कहती हैं, मेरा संविधान पर भरोसा था. अदालत पर भरोसा था. उसी भरोसे के दम पर इस लडाई में मैं हारी नहीं. आखिरी में हुआ भी यही अदालत ने अपने आदेश में ये स्पष्ट कहा कि संविदा महिला कर्मचारी को प्रसूति अवकाश का समान लाभ नहीं देने की कोई वजह नहीं दिखती. जस्टिस विशाल धगत की एकल पीट की ओर से मातृत्व अवकाश का लाभ देने के निर्देश हो गए. सुषमा बताती हैं आसान तो कुछ नहीं था इस कानूनी लड़ाई में पचास हजार के करीब खर्चा हुआ. आर्थिक लडाई अपनी जगह थी. शारीरिक और मानसिक संघर्ष अलग था, लेकिन अदालत से मिली जीत ने मेरा आत्मविश्वास बढ़ाया. ये हिम्मत दी कि मैंने लड़ाई लड़कर सही किया.

सिस्टम में दिक्कत: सुषमा कहती हैं सबसे बड़ी दिक्कत ये है सिस्टम में कि लोग अपने ही खिलाफ होने वाली नाइंसाफी पर बोलने तैयार नहीं होते. डर जाते हैं कि जो है वो भी ना छिन जाए. आस-पास अब भी महिलाएं हैं जो संविदा पर काम कर रही हैं और प्रसूति अवकाश से वंचित हैं. लड़ना नहीं जानती. सुषमा सवाल करती हैं कि, हैरत की बात नहीं है ये कि सरकार की निगाह में नियमित कर्मचारी अलग मां है और संविदा पर काम कर रही कर्मचारी अलग है. फर्क है तभी तो सुविधा में भी फर्क किया गया है. क्या वजह है कि संविदा पर काम कर रही महिला कर्मचारी को 3 महीने अवकाश मुश्किल से मिल रहा है. नियमित कर्मचारी को चाईल्ड केयर के लिए 2 साल का अवकाश अलग से मिलता है.

मैटरनिटी से मिलती जुलती ये खबरें जरूर पढ़ें...

संविधान में सुरक्षित मां के अधिकार: संविधान के अनुच्छेद 42 में मातृत्व के लिए सुविधा और राहत प्रदान करने का प्रावधान किया गया है. 1961 मे आए मातृत्व लाभ अधिनियम मे ये प्रावधान किया गया है कि जो भी महिला कर्मचारी 80 दिन तक कार्यरत रही है. वह मातृत्व लाभ के दायरे में आएगी. फिर चाहे उसकी नियुक्ति संविदा कर्मचारी के तौर पर हुई हो या किसी और रुप में.

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