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खासगी ट्रस्ट मामला: 8 साल पहले CM शिवराज के प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव ने की थी जांच, जानिए कैसे हुआ फर्जीवाड़ा

देवी अहिल्याबाई होलकर की संपत्ति बेचने को लेकर चल रहे विवाद में हाईकोर्ट के आदेश के बाद शिवराज सरकार ने EOW जांच के आदेश दिए हैं. लेकिन यह मामला शिवराज सरकार के संज्ञान में यह मामला 2012 में ही आ गया था. जानिए जांच में कैसे पाया था फर्जीवाड़ा.

Khasagi trust case
खासगी ट्रस्ट मामला
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Published : Oct 9, 2020, 2:04 PM IST

भोपाल। देवी अहिल्याबाई होलकर की संपत्ति बेचने को लेकर चल रहे विवाद में EOW जांच करने जा रही है. हाईकोर्ट के आदेश के बाद शिवराज सरकार ने EOW जांच के आदेश दिए हैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि शिवराज सरकार के संज्ञान में यह मामला 2012 में ही आ गया था. जब इंदौर की तत्कालीन सांसद सुमित्रा महाजन ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को पत्र लिखकर इस मामले की जानकारी दी थी. जिसके बाद सीएम शिवराज ने अपने प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव को जांच के आदेश दिए थे. मनोज श्रीवास्तव ने 2 नवंबर 2012 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी. इस रिपोर्ट को आधार माना जाए तो खासगी ट्रस्ट की संपत्तियों में गड़बड़ी की शुरुआत आज से करीब 50 साल पहले 1972 से हुई है.

खासगी ट्रस्ट मामला

करीब 12 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन, ढाई सौ से ज्यादा मंदिर और उनसे होने वाली रोजाना की आय से जुड़े इस मामले की तह में जाया जाए तो इंदौर के महाराजा यशवंत राव होलकर की हस्ताक्षरित प्रतिज्ञा पत्र के आधार पर 22 अप्रैल 1948 को मध्य भारत में समाहित होना स्वीकार किया था और 7 मई 1949 को भारत सरकार और मध्य भारत राज्य से सहमति जताई गई थी. 18 अगस्त 1948 तमाम खासगी संपत्ति और आय मध्य भारत सरकार में समाहित कर दी गई थी. इसके बदले 2 लाख 91 हजार 952 राजस्व प्रति वर्ष स्थानांतरित करने का फैसला किया गया था. इसके तहत एक ट्रस्ट बनाकर सभी संपत्तियों का संधारण संवहन और अनुरक्षण होना था. मनोज श्रीवास्तव की जांच रिपोर्ट का अध्ययन करें तो पता चलता है कि गड़बड़ी की शुरुआत 1 मार्च 1972 को एक सप्लीमेंट्री डीड ऑफ ट्रस्ट से हुई है, लेकिन इसकी शुरुआत 27 जुलाई 1962 एक राजपत्र के दावे के आधार पर की गई थी.

पढ़ें : देवी अहिल्याबाई की संपत्ति अब होगी प्रदेश सरकार के आधीन, कोर्ट के फैसले पर पाल समाज ने जताई खुशी

1 मार्च 1972 को पेश की गई सप्लीमेंट्री डीड के जरिए ट्रस्ट ने धारा 36 (1) ए से मुक्ति पा ली थी. धारा 36 (1) ए कहती है कि सार्वजनिक ट्रस्ट का प्रशासन किसी भी एजेंसी द्वारा राज्य स्थानीय प्रशासन के अंतर्गत होगा, लेकिन इस सप्लीमेंट्री डीड के जरिए ट्रस्ट ने स्वयं को राज्य सरकार से नियंत्रण से मुक्त कर लिया. मनोज श्रीवास्तव के अनुसार इस सप्लीमेंट्री डीड के जरिए ट्रस्ट को मनमानी का अधिकार नहीं मिल सकता है. ऐसी स्थिति में शासन द्वारा नियंत्रित ट्रस्टी की मनमानी पर निर्भर हो गया. लेकिन एक तरह से यह डीड गलत तरीके से मांग की गई थी, क्योंकि यह तभी मान्य हो सकती थी जब मध्य प्रदेश और भारत सरकार से इसकी अनुमति ली जाती.

ये भी पढ़ें: खासगी ट्रस्ट मामले में इंदौर कमिश्नर कार्यालय की भूमिका पर सवाल, RTI एक्टिविस्ट ने ETV BHARAT से की बातचीत

मनोज श्रीवास्तव 27 जुलाई 1962 के राजपत्र के अनुसार ट्रस्ट के उस दावे को भी उस घोटाले का आधार मानते हैं. 27 जुलाई 1962 के राज्य पत्र के आधार पर ट्रस्ट का दावा है कि डीड में सम्मिलित क्षेत्र, संस्थान प्रश्नों को हस्तांतरित करने की मान्यता प्रदान की गई है. मध्य भारत का निर्माण जब हुआ तब होलकर घराने की सभी संपत्तियों की कमिश्नर इंदौर कार्यालय देखरेख और व्यवस्था करता था. इस राजपत्र के आधार पर कमिश्नर कार्यालय से संबंधित संपत्ति खासगी और आलमपुर ट्रस्ट को हस्तांतरित करने की अनुमति दी गई. 16 जुलाई 1962 को हस्तांतरित भी की गई. लिहाजा इस रिपोर्ट के दो बड़े पहलू है, जो यह बताते है कि इन सप्लीमेंट्री डीड और राजपत्र के आधार पर ट्रस्ट की जमीनों की बंदरबांट की शुरुआत हुई है. उन्होंने तब शासन से इसकी विस्तृत जांच करने के लिए कहा था, लेकिन 2012 में रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई. इस रिपोर्ट पर अभी तक जांच शुरू नहीं हो पाई है. अब हाईकोर्ट के आदेश के बाद EOW इसकी जांच कर रहा है.

भोपाल। देवी अहिल्याबाई होलकर की संपत्ति बेचने को लेकर चल रहे विवाद में EOW जांच करने जा रही है. हाईकोर्ट के आदेश के बाद शिवराज सरकार ने EOW जांच के आदेश दिए हैं, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि शिवराज सरकार के संज्ञान में यह मामला 2012 में ही आ गया था. जब इंदौर की तत्कालीन सांसद सुमित्रा महाजन ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को पत्र लिखकर इस मामले की जानकारी दी थी. जिसके बाद सीएम शिवराज ने अपने प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव को जांच के आदेश दिए थे. मनोज श्रीवास्तव ने 2 नवंबर 2012 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी थी. इस रिपोर्ट को आधार माना जाए तो खासगी ट्रस्ट की संपत्तियों में गड़बड़ी की शुरुआत आज से करीब 50 साल पहले 1972 से हुई है.

खासगी ट्रस्ट मामला

करीब 12 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन, ढाई सौ से ज्यादा मंदिर और उनसे होने वाली रोजाना की आय से जुड़े इस मामले की तह में जाया जाए तो इंदौर के महाराजा यशवंत राव होलकर की हस्ताक्षरित प्रतिज्ञा पत्र के आधार पर 22 अप्रैल 1948 को मध्य भारत में समाहित होना स्वीकार किया था और 7 मई 1949 को भारत सरकार और मध्य भारत राज्य से सहमति जताई गई थी. 18 अगस्त 1948 तमाम खासगी संपत्ति और आय मध्य भारत सरकार में समाहित कर दी गई थी. इसके बदले 2 लाख 91 हजार 952 राजस्व प्रति वर्ष स्थानांतरित करने का फैसला किया गया था. इसके तहत एक ट्रस्ट बनाकर सभी संपत्तियों का संधारण संवहन और अनुरक्षण होना था. मनोज श्रीवास्तव की जांच रिपोर्ट का अध्ययन करें तो पता चलता है कि गड़बड़ी की शुरुआत 1 मार्च 1972 को एक सप्लीमेंट्री डीड ऑफ ट्रस्ट से हुई है, लेकिन इसकी शुरुआत 27 जुलाई 1962 एक राजपत्र के दावे के आधार पर की गई थी.

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1 मार्च 1972 को पेश की गई सप्लीमेंट्री डीड के जरिए ट्रस्ट ने धारा 36 (1) ए से मुक्ति पा ली थी. धारा 36 (1) ए कहती है कि सार्वजनिक ट्रस्ट का प्रशासन किसी भी एजेंसी द्वारा राज्य स्थानीय प्रशासन के अंतर्गत होगा, लेकिन इस सप्लीमेंट्री डीड के जरिए ट्रस्ट ने स्वयं को राज्य सरकार से नियंत्रण से मुक्त कर लिया. मनोज श्रीवास्तव के अनुसार इस सप्लीमेंट्री डीड के जरिए ट्रस्ट को मनमानी का अधिकार नहीं मिल सकता है. ऐसी स्थिति में शासन द्वारा नियंत्रित ट्रस्टी की मनमानी पर निर्भर हो गया. लेकिन एक तरह से यह डीड गलत तरीके से मांग की गई थी, क्योंकि यह तभी मान्य हो सकती थी जब मध्य प्रदेश और भारत सरकार से इसकी अनुमति ली जाती.

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मनोज श्रीवास्तव 27 जुलाई 1962 के राजपत्र के अनुसार ट्रस्ट के उस दावे को भी उस घोटाले का आधार मानते हैं. 27 जुलाई 1962 के राज्य पत्र के आधार पर ट्रस्ट का दावा है कि डीड में सम्मिलित क्षेत्र, संस्थान प्रश्नों को हस्तांतरित करने की मान्यता प्रदान की गई है. मध्य भारत का निर्माण जब हुआ तब होलकर घराने की सभी संपत्तियों की कमिश्नर इंदौर कार्यालय देखरेख और व्यवस्था करता था. इस राजपत्र के आधार पर कमिश्नर कार्यालय से संबंधित संपत्ति खासगी और आलमपुर ट्रस्ट को हस्तांतरित करने की अनुमति दी गई. 16 जुलाई 1962 को हस्तांतरित भी की गई. लिहाजा इस रिपोर्ट के दो बड़े पहलू है, जो यह बताते है कि इन सप्लीमेंट्री डीड और राजपत्र के आधार पर ट्रस्ट की जमीनों की बंदरबांट की शुरुआत हुई है. उन्होंने तब शासन से इसकी विस्तृत जांच करने के लिए कहा था, लेकिन 2012 में रिपोर्ट सरकार को सौंपी गई. इस रिपोर्ट पर अभी तक जांच शुरू नहीं हो पाई है. अब हाईकोर्ट के आदेश के बाद EOW इसकी जांच कर रहा है.

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