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संकट या समाधान! अब मशीन से होगी गंदे नालों की सफाई, मजदूरों पर रोटी की मार

रतिराम को तसल्ली है कि, मोदी सरकार के बजट में उसकी फिक्र भी शामिल हुई. लेकिन उसका ये सवाल भी है कि आठ हजार रुपए की पगार पर गटर में उतर जाने को मजबूर रतिराम का काम अगर मशीनें करेंगी तो वो क्या करेगा.

Bhopal City Corporation
भोपाल नगर निगम
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Published : Feb 3, 2023, 1:41 AM IST

भोपाल। रतिराम भोपाल के भेल इलाके का वो सफाई कर्मचारी हैं. इनके दिन की शुरुआत सुबह सूरज को देखकर नहीं, मैनहोल में उतरकर होती है. भोपाल में 3 हजार से ऊपर सफाई कर्मचारी हैं. ये चिंता कमोबेश हर सफाई कर्मी की है कि, गंदे नालों की सफाई अब मशीनों से होगी तो हमें कहां काम मिलेगा. मोदी सरकार के बजट में लिया गया ये फैसला सैप्टिक टैंक में सफाई कर्मियों की मौत के बाद उठाया गया है. सरकार का सरोकारी कदम तो दिखाई देता है, लेकिन रतिराम जैसे सफाई कर्मियों को लगता है कि, उनकी जान तो बचा ली गई, लेकिन आजीविका कैसे चलेगी.

सीवेज सिस्टम की सफाई: जिन सफाईकर्मियों की फिक्र अब बढ़ गई है. इसकी वजह जानना भी जरुरी है. सीवेज सिस्टम की सफाई के लिए मैनहोल में उतर जाने वाले सफाई कर्मी सिस्टम की सबसे बड़ी जरुरत के साथ सहानुभूति का विषय तो रहे, लेकिन समाज और सरकार के सरोकार में शामिल नहीं हो पाए. ये वो तबका था जो झंडा उठाकर बहुत कम सड़कों पर आया. इसलिए सबसे ज्यादा दुर्गति में रहा. रतिराम और सोनू जैसे सफाई कर्मियों की ड्यूटी को फॉलो करने के बाद हमने ये जाना कि, जो काम ये करते हैं वो काम किसी के लिए वाकई में आसान नहीं है.

नहा धोकर लोग पूजा करते हैं हम नाले में उतरते हैं: रतिराम और सोनू एक दिन में 5 से 6 नालों में उतर कर सफाई करते हैं. हफ्ते में कई दिन ऐसे होते हैं जब मैनहोल में उतरने की नौबत आ जाती है. महीने का वेतन 8 हजार 2 सौ रुपये है. एक दिन की छुट्टी पर पगार कट जाती है. यही वजह है कि, कई बार बीमारी में काम करना पड़ता है. कोई महीना नहीं गुजरता जब ये बीमार नहीं पड़ते. रतिराम 4 दिन बुखार में पड़े रहने के बाद फिर काम पर लौटे. रतिराम कहते हैं हमारा काम आसान नहीं है, मजबूरी है तभी तो ये काम कर रहे हैं. वरना आप लोग नहा धोकर पूजा करते हो हम नहा धोकर गंदी बजबजाती नाली में उतरते हैं.

मशीनें आ गईं तो हाथ का काम गया: सोनू भेल इलाके में बीते 10 साल से सफाई कर्मचारी हैं. कहते हैं किसी को शौक नहीं होता कि गंदगी में जाकर काम करे, लेकिन यही काम है हमारा. हम जानते हैं कि सरकार ने हमारे फायदे की सोची है. चिंता की है कि हमें बीमारी ना हो. कई बार तो मौतें भी हुई हैं, लेकिन ये काम ऐसा है ना कि हर कोई नहीं करता. इसलिए मजबूरी में हमसे कराते हैं लोग और हमारी भी रोजी रोटी चल जाती है. अब अगर मशीनें आ गई निगम में तो हमारा तो काम ही ठप्प हो जाएगा. मशीन से ही सारी सफाई हो जाएगी. सरकार हमारे लिए भी सोचे कि हम क्या करेंगे फिर.

भोपाल में 7500 सफाई कर्मी: नगर निगम के अपर आयुक्त एमपी सिंह के मुताबिक, भोपाल जिले में 7500 के लगभग दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी हैं. जिनमें से 350 विनियमित कर्मचारी हैं. ये वो कर्मचारी हैं जिनकी गिनती ना नियमित कर्मचारी में हैं ना दैनिक वेतन भोगियों में. लेकिन एक निश्चित तनख्वाह पर इन्हें रखा गया है. इनमें जो दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी हैं उन्हें कलेक्टर गाइडलाइन के हिसाब से रोज का लगभग 250 रुपये दिया जाता है, जबकि विनियमित कर्मचारियों का वेतनमान निश्चित है.

मेनहोल हमेशा से रहे मौत का सबब: एक सर्वे के मुताबिक देश में 90 फीसदी सफाई कर्मियों की औसत आयु साठ वर्ष तक सिमट गई है. बल्कि इसके पहले ही उनकी मौत हो जाती है. इसकी वजह है कम उम्र से उन्हे लग जाने वाली बीमारियां. ये मांग लंबे समय से उठती रही है कि सीवर में किसी व्यक्ति के उतरने की नौबत ही ना आए. हांलाकि केरल जैसी सरकारों के इसके लिए रबोटो तैयार कर लने के बावजूद इसका व्यवहारिक हल नहीं निकल पाया. मैन्युअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 कहता है कि किसी भी सीवर में सफाई के लिए किसी इंसान को उतारना कानूनी नहीं है. लेकिन इसके बावजूद भी सिलसिला रुका नहीं है. गटर में उतर रहे हैं सफाई कर्मी. और हैरत की बात ये कि सीवेज मे सांसों के खत्म हो जाने के आंकड़े बाकी मौतों की तरह सामने नहीं आ पाते.

भोपाल। रतिराम भोपाल के भेल इलाके का वो सफाई कर्मचारी हैं. इनके दिन की शुरुआत सुबह सूरज को देखकर नहीं, मैनहोल में उतरकर होती है. भोपाल में 3 हजार से ऊपर सफाई कर्मचारी हैं. ये चिंता कमोबेश हर सफाई कर्मी की है कि, गंदे नालों की सफाई अब मशीनों से होगी तो हमें कहां काम मिलेगा. मोदी सरकार के बजट में लिया गया ये फैसला सैप्टिक टैंक में सफाई कर्मियों की मौत के बाद उठाया गया है. सरकार का सरोकारी कदम तो दिखाई देता है, लेकिन रतिराम जैसे सफाई कर्मियों को लगता है कि, उनकी जान तो बचा ली गई, लेकिन आजीविका कैसे चलेगी.

सीवेज सिस्टम की सफाई: जिन सफाईकर्मियों की फिक्र अब बढ़ गई है. इसकी वजह जानना भी जरुरी है. सीवेज सिस्टम की सफाई के लिए मैनहोल में उतर जाने वाले सफाई कर्मी सिस्टम की सबसे बड़ी जरुरत के साथ सहानुभूति का विषय तो रहे, लेकिन समाज और सरकार के सरोकार में शामिल नहीं हो पाए. ये वो तबका था जो झंडा उठाकर बहुत कम सड़कों पर आया. इसलिए सबसे ज्यादा दुर्गति में रहा. रतिराम और सोनू जैसे सफाई कर्मियों की ड्यूटी को फॉलो करने के बाद हमने ये जाना कि, जो काम ये करते हैं वो काम किसी के लिए वाकई में आसान नहीं है.

नहा धोकर लोग पूजा करते हैं हम नाले में उतरते हैं: रतिराम और सोनू एक दिन में 5 से 6 नालों में उतर कर सफाई करते हैं. हफ्ते में कई दिन ऐसे होते हैं जब मैनहोल में उतरने की नौबत आ जाती है. महीने का वेतन 8 हजार 2 सौ रुपये है. एक दिन की छुट्टी पर पगार कट जाती है. यही वजह है कि, कई बार बीमारी में काम करना पड़ता है. कोई महीना नहीं गुजरता जब ये बीमार नहीं पड़ते. रतिराम 4 दिन बुखार में पड़े रहने के बाद फिर काम पर लौटे. रतिराम कहते हैं हमारा काम आसान नहीं है, मजबूरी है तभी तो ये काम कर रहे हैं. वरना आप लोग नहा धोकर पूजा करते हो हम नहा धोकर गंदी बजबजाती नाली में उतरते हैं.

मशीनें आ गईं तो हाथ का काम गया: सोनू भेल इलाके में बीते 10 साल से सफाई कर्मचारी हैं. कहते हैं किसी को शौक नहीं होता कि गंदगी में जाकर काम करे, लेकिन यही काम है हमारा. हम जानते हैं कि सरकार ने हमारे फायदे की सोची है. चिंता की है कि हमें बीमारी ना हो. कई बार तो मौतें भी हुई हैं, लेकिन ये काम ऐसा है ना कि हर कोई नहीं करता. इसलिए मजबूरी में हमसे कराते हैं लोग और हमारी भी रोजी रोटी चल जाती है. अब अगर मशीनें आ गई निगम में तो हमारा तो काम ही ठप्प हो जाएगा. मशीन से ही सारी सफाई हो जाएगी. सरकार हमारे लिए भी सोचे कि हम क्या करेंगे फिर.

भोपाल में 7500 सफाई कर्मी: नगर निगम के अपर आयुक्त एमपी सिंह के मुताबिक, भोपाल जिले में 7500 के लगभग दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी हैं. जिनमें से 350 विनियमित कर्मचारी हैं. ये वो कर्मचारी हैं जिनकी गिनती ना नियमित कर्मचारी में हैं ना दैनिक वेतन भोगियों में. लेकिन एक निश्चित तनख्वाह पर इन्हें रखा गया है. इनमें जो दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी हैं उन्हें कलेक्टर गाइडलाइन के हिसाब से रोज का लगभग 250 रुपये दिया जाता है, जबकि विनियमित कर्मचारियों का वेतनमान निश्चित है.

मेनहोल हमेशा से रहे मौत का सबब: एक सर्वे के मुताबिक देश में 90 फीसदी सफाई कर्मियों की औसत आयु साठ वर्ष तक सिमट गई है. बल्कि इसके पहले ही उनकी मौत हो जाती है. इसकी वजह है कम उम्र से उन्हे लग जाने वाली बीमारियां. ये मांग लंबे समय से उठती रही है कि सीवर में किसी व्यक्ति के उतरने की नौबत ही ना आए. हांलाकि केरल जैसी सरकारों के इसके लिए रबोटो तैयार कर लने के बावजूद इसका व्यवहारिक हल नहीं निकल पाया. मैन्युअल स्कैवेंजिंग एक्ट 2013 कहता है कि किसी भी सीवर में सफाई के लिए किसी इंसान को उतारना कानूनी नहीं है. लेकिन इसके बावजूद भी सिलसिला रुका नहीं है. गटर में उतर रहे हैं सफाई कर्मी. और हैरत की बात ये कि सीवेज मे सांसों के खत्म हो जाने के आंकड़े बाकी मौतों की तरह सामने नहीं आ पाते.

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