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MP Assembly Election Podcast: वो बागी जिसका समर्थन तय करता था चुनाव का रूख, एक दस्यु से जननायक बनने का सफर...'मोहर सिंह' - पूर्व दस्यु मोहर सिंह की अनसुनी कहानी

Former Bandit Mohar Singh: एमपी में विधानसभा चुनाव का माहौल गरम हैं, ऐसे में ETV Bharat Podcast के जरिये मध्यप्रदेश की राजनीति के अलग अलग पहलू, किस्से और कहानियां आपके लिये लाया है. आज इस पॉडकास्ट में सुनिए चंबल के उस डकैत की कहानी, जिसका दखल चुनाव का रुख मोड़ देता था. वह नाम था पूर्व दस्यु मोहर सिंह का का.

MP Assembly Election Podcast
चंबल का डकैत मोहर सिंह
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Oct 19, 2023, 10:18 PM IST

पूर्व दस्यु मोहर सिंह की अनसुनी कहानी

भिंड। आजादी के कुछ वर्षों बाद चंबल में बगावत की नई इबारत लिखी जा रही थी. अंग्रेजों से लड़ाई तो खत्म हो चुकी थी. लेकिन, अब स्वाभिमान का युद्ध अपने ही देश में चल रहा था. कुछ ग्रामीण रसूखदारों की मनमानी, पुलिस की अनदेखी और समाज के दोहरे चेहरे से तंग आकर हथियार उठा चुके थे. जिनमे एक नाम तेजी से कुख्यात हुआ वह था डाकू मोहर सिंह... जिसके सिर उस जमाने में 600 अपहरण और 400 से ज्यादा हत्याओं का आरोप था. बावजूद इसके वह गरीबों का रोबिनहुड कहा गया. कुछ दशकों तक चंबल पर राज करने के बाद मोहर सिंह ने हथियारों का त्याग कर राजनीति में प्रवेश किया और एक सफल नेता के रूप में पहचान बनाई.

परिवार में कलह, थानेदार ने लिया था विरोधियों का पक्ष: आज हम बात करेंगे चंबल के मोहर सिंह के बारे में. जिसने हथियारों के दम पर पुलिस तक के पसीने छुड़ा दिये थे. जिसका नाम सुनकर लोगों के हलक सूख जाया करते थे. ये 1950 की बात है जब मोहर सिंह अपने पिता और परिवार के साथ भिंड जिले के गोहद का पैतृक गाँव छोड़कर मेहगांव के ग्राम बिसूली में आकर बस गये थे. पिता के साथ खेतीबाड़ी में हाथ बंटाते थे. परिवार बड़ा था तो पारिवारिक मतभेद भी हुआ करते थे. गोहद की जमीन पर उनके चचेरे भाई ने कब्जा कर लिया. विवाद थाने तक पहुंचा लेकिन न्याय तो दूर उल्टा उस दौर के पुलिस अफसरों ने मोहर सिंह को ही फटकार कर बाहर का रास्ता दिखा दिया.

MP Assembly Election Podcast
एक्टर राजकुमार के साथ मोहर सिंह

एक गोली ने लिखा आतंक का अध्याय: 1955 वह साल था जब न्याय के लिए इस जमीनी विवाद में मोहर ने हथियार उठा लिए. बंदूक से निकली एक गोली ने सब बदल दिया, उनके हाथ से विवाद में हत्या हो गई. मोहर सिंह परिवार को छोड़कर चंबल के बीहड़ में कूद गये. इसके बाद आतंक का वो अध्याय लिखा कि उनकी दहाड़ से पुलिस तक थर्राने लगी. 60 का दशक आते-आते मोहर सिंह चंबल पर राज करने लगे जिनके गैंग में 150 से अधिक सदस्य थे.

अपने जमाने के सबसे महंगे डकैत रहे: 1958 से 1972 तक उन पर सबसे ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए. मोहर सिंह गैंग के सरदार थे. ऐसे में उनके गिरोह से हुई हर हत्या या अपहरण का जिम्मेदार उन्हें माना गया. वे उस जमाने के सबसे महंगे डकैत हुआ करते थे. सरकार ने भी उनके सिर तीन लाख रुपए का इनाम रखा था, और पूरी गैंग पर 12 लाख रुपए का इनाम था.

गरीबों के रोबिनहुड बने, पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी: मोहर सिंह पुलिस के लिए तो कुख्यात थे लेकिन गरीबों के लिए रोबिन हुड से कम नहीं थे. वे रसूखदारों, अमीरों से लूटा हुआ फिरौती का पैसा अक्सर ज़रूरतमंत और गरीब लोगों में बांट दिया करते थे. जिसकी वजह से वे एक तबके के हीरो बन चुके थे. ये सबसे बड़ी वजह थी कि बागी रहते पुलिस उन्हें कभी पकड़ नहीं पायी. लेकिन उन्होंने अपने जीवन में बागी होने के उसूल का पालन किया और कभी डकैती नहीं डाली.

सुब्बाराव से प्रभावित होकर त्यागा बागी जीवन: साल 1972 में मोहर सिंह ने अपने जीवन का सबसे अहम फैसला किया. बगावत की राह छोड़ कर फिर घर लौटने की और कदम बढ़ा दिये. उनकी मुलाकात गांधी विचारक एसएन सुब्बाराव से हुई थी, जो बीहड़ों में घूम कर डकैतों को आत्मसमर्पण के लिए मना रहे थे. उनकी बातों से प्रभावित होकर अपनी शर्तों पर अपने अजीज मित्र डकैत माधोसिंह के साथ ही अपने गिरोह के सभी सदस्यों के साथ उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया. आरोपों के तहत उन्हें आठ साल की सजा हुए जो उन्होंने मुरैना जेल में काटे.

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राजनीति से जुड़े फिर जनसेवक और जननायक बने: जेल से बाहर आने के बाद वे अपने घर परिवार के पास मेहगांव आ गये. अपनी रोबिन हुड वाली छवि के प्रभाव से लोगों का प्यार मिला. उन्होंने राजनीति में जाने का फैसला किया. उस दौर में भी विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में उनका समर्थन जीत या हार तय करता था. 1990 में वे भारतीय जनता पार्टी से जुड़े. 1995 में मोहर सिंह कांग्रेस में शामिल हुए और नगर पंचायत चुनाव लड़ कर अध्यक्ष बने. उन्होंने जनसेवा और अपनी जिम्मेदारी को राजनीति के साथ बखूबी निभाया कि साल 2000 के निकाय चुनाव में भी वे दोबारा अध्यक्ष चुने गये.

92 साल की जिंदगी के बाद खत्म हुई उस 'बागी' की कहानी: अपनी बंदूक के दम पर पुलिस को नचाने वाले मोहर सिंह साल मई 2020 में एक राजनीतिक हस्ती बनकर कोरोना काल में इस दुनिया को अलविदा कह गये. और पीछे छोड़ गये एक बागी से जन नायक बनने की कहानी.

पूर्व दस्यु मोहर सिंह की अनसुनी कहानी

भिंड। आजादी के कुछ वर्षों बाद चंबल में बगावत की नई इबारत लिखी जा रही थी. अंग्रेजों से लड़ाई तो खत्म हो चुकी थी. लेकिन, अब स्वाभिमान का युद्ध अपने ही देश में चल रहा था. कुछ ग्रामीण रसूखदारों की मनमानी, पुलिस की अनदेखी और समाज के दोहरे चेहरे से तंग आकर हथियार उठा चुके थे. जिनमे एक नाम तेजी से कुख्यात हुआ वह था डाकू मोहर सिंह... जिसके सिर उस जमाने में 600 अपहरण और 400 से ज्यादा हत्याओं का आरोप था. बावजूद इसके वह गरीबों का रोबिनहुड कहा गया. कुछ दशकों तक चंबल पर राज करने के बाद मोहर सिंह ने हथियारों का त्याग कर राजनीति में प्रवेश किया और एक सफल नेता के रूप में पहचान बनाई.

परिवार में कलह, थानेदार ने लिया था विरोधियों का पक्ष: आज हम बात करेंगे चंबल के मोहर सिंह के बारे में. जिसने हथियारों के दम पर पुलिस तक के पसीने छुड़ा दिये थे. जिसका नाम सुनकर लोगों के हलक सूख जाया करते थे. ये 1950 की बात है जब मोहर सिंह अपने पिता और परिवार के साथ भिंड जिले के गोहद का पैतृक गाँव छोड़कर मेहगांव के ग्राम बिसूली में आकर बस गये थे. पिता के साथ खेतीबाड़ी में हाथ बंटाते थे. परिवार बड़ा था तो पारिवारिक मतभेद भी हुआ करते थे. गोहद की जमीन पर उनके चचेरे भाई ने कब्जा कर लिया. विवाद थाने तक पहुंचा लेकिन न्याय तो दूर उल्टा उस दौर के पुलिस अफसरों ने मोहर सिंह को ही फटकार कर बाहर का रास्ता दिखा दिया.

MP Assembly Election Podcast
एक्टर राजकुमार के साथ मोहर सिंह

एक गोली ने लिखा आतंक का अध्याय: 1955 वह साल था जब न्याय के लिए इस जमीनी विवाद में मोहर ने हथियार उठा लिए. बंदूक से निकली एक गोली ने सब बदल दिया, उनके हाथ से विवाद में हत्या हो गई. मोहर सिंह परिवार को छोड़कर चंबल के बीहड़ में कूद गये. इसके बाद आतंक का वो अध्याय लिखा कि उनकी दहाड़ से पुलिस तक थर्राने लगी. 60 का दशक आते-आते मोहर सिंह चंबल पर राज करने लगे जिनके गैंग में 150 से अधिक सदस्य थे.

अपने जमाने के सबसे महंगे डकैत रहे: 1958 से 1972 तक उन पर सबसे ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए. मोहर सिंह गैंग के सरदार थे. ऐसे में उनके गिरोह से हुई हर हत्या या अपहरण का जिम्मेदार उन्हें माना गया. वे उस जमाने के सबसे महंगे डकैत हुआ करते थे. सरकार ने भी उनके सिर तीन लाख रुपए का इनाम रखा था, और पूरी गैंग पर 12 लाख रुपए का इनाम था.

गरीबों के रोबिनहुड बने, पुलिस गिरफ्तार नहीं कर सकी: मोहर सिंह पुलिस के लिए तो कुख्यात थे लेकिन गरीबों के लिए रोबिन हुड से कम नहीं थे. वे रसूखदारों, अमीरों से लूटा हुआ फिरौती का पैसा अक्सर ज़रूरतमंत और गरीब लोगों में बांट दिया करते थे. जिसकी वजह से वे एक तबके के हीरो बन चुके थे. ये सबसे बड़ी वजह थी कि बागी रहते पुलिस उन्हें कभी पकड़ नहीं पायी. लेकिन उन्होंने अपने जीवन में बागी होने के उसूल का पालन किया और कभी डकैती नहीं डाली.

सुब्बाराव से प्रभावित होकर त्यागा बागी जीवन: साल 1972 में मोहर सिंह ने अपने जीवन का सबसे अहम फैसला किया. बगावत की राह छोड़ कर फिर घर लौटने की और कदम बढ़ा दिये. उनकी मुलाकात गांधी विचारक एसएन सुब्बाराव से हुई थी, जो बीहड़ों में घूम कर डकैतों को आत्मसमर्पण के लिए मना रहे थे. उनकी बातों से प्रभावित होकर अपनी शर्तों पर अपने अजीज मित्र डकैत माधोसिंह के साथ ही अपने गिरोह के सभी सदस्यों के साथ उन्होंने आत्म समर्पण कर दिया. आरोपों के तहत उन्हें आठ साल की सजा हुए जो उन्होंने मुरैना जेल में काटे.

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राजनीति से जुड़े फिर जनसेवक और जननायक बने: जेल से बाहर आने के बाद वे अपने घर परिवार के पास मेहगांव आ गये. अपनी रोबिन हुड वाली छवि के प्रभाव से लोगों का प्यार मिला. उन्होंने राजनीति में जाने का फैसला किया. उस दौर में भी विधानसभा और लोकसभा के चुनाव में उनका समर्थन जीत या हार तय करता था. 1990 में वे भारतीय जनता पार्टी से जुड़े. 1995 में मोहर सिंह कांग्रेस में शामिल हुए और नगर पंचायत चुनाव लड़ कर अध्यक्ष बने. उन्होंने जनसेवा और अपनी जिम्मेदारी को राजनीति के साथ बखूबी निभाया कि साल 2000 के निकाय चुनाव में भी वे दोबारा अध्यक्ष चुने गये.

92 साल की जिंदगी के बाद खत्म हुई उस 'बागी' की कहानी: अपनी बंदूक के दम पर पुलिस को नचाने वाले मोहर सिंह साल मई 2020 में एक राजनीतिक हस्ती बनकर कोरोना काल में इस दुनिया को अलविदा कह गये. और पीछे छोड़ गये एक बागी से जन नायक बनने की कहानी.

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