बड़वानी। बड़वानी जिला अपने प्राकृतिक और धार्मिक स्थलों के लिए मशहूर है. इनमें से एक स्थल है नागलवाड़ी. माना जाता है कि सतपुड़ा की घनी वादियों के बीच यहां भीलटदेव के रूप में भगवान शंकर खुद विराजमान हैं. जहां दर्शन मात्र से सभी श्रद्धालुओं की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं. ये मंदिर गुलाबी पत्थरों से बनाया गया है. नागलवाड़ी में शिखरधाम पर स्थित ये धार्मिक स्थल भीलटदेव की तपोभूमि है. कहा जाता है कि निसंतान दंपतियों के लिए इस धार्मिक स्थल का बड़ा महत्व है.
देवस्थल से जुड़ीं मान्यताएं
इस धार्मिक स्थल से जुड़ीं कई लोकमान्यताएं भी हैं. जिसमें एक किन्नर के गर्भधारण करने की कहानी मशहूर है. प्राचीन समय में अपने पिता को दिए वचन के अनुसार बाबा भीलटदेव ने नागलवाड़ी के लोगों की सेवा की.
धीरे-धीरे बाबा की महिमा आस-पास के इलाकों में बढ़ने लगी.एक दिन बाबा भीलटदेव के दरबार में एक किन्नर आई और उसने कहा बाबा उसे एक संतान चाहिए. किन्नर की जिद के बाद बाबा ने तथास्तु कह दिया. जिसके बाद किन्नर गर्भवती हो गई. लेकिन प्रसव पीड़ा में उसकी मौत गई. तभी बाबा भीलटदेव ने श्राप दिया कि तुम्हारी जाति का कोई भी किन्नर इस क्षेत्र में रात्रि विश्राम नहीं कर सकता. तब से लेकर अब तक कोई किन्नर इस क्षेत्र में नहीं ठहरता है. जिस किन्नर की मौत हुई थी आज भी उसकी समाधि नागलवाड़ी में है.
भगवान शिव के वरदान से हुआ था भीलटदेव का जन्म
भगवान शंकर के वर पुत्र के रूप में भीलटदेव का जन्म हरदा जिले के रोलगांव पाटन के एक गवली परिवार में हुआ था. गांव के जागीरदार राणा रेलन और उनकी पत्नी मेंदा बाई संतान नहीं होने से दुखी थे. जिसके बाद उन्होंने भगवान शंकर की तपस्यी की. जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया. लेकिन एक शर्त जोड़ दी कि जिस दिन आप मेरी भक्ति करना भूल जाओगे उस समय मैं पुत्र वापस ले जाऊंगा.
विक्रम संवत 1220 में राणा के यहां बाबा भीलटदेव का जन्म होता है लेकिन कुछ समय बाद दोनों पति-पत्नि भगवान शंकर को स्मरण करना भूल जाते हैं. तब भगवान शंकर जोगी के वेश में रोलन गांव आते हैं और एक वृक्ष के नीचे अपना डेरा जमा कर बैठ जाते हैं. मेंदा बाई भीलटदेव को झूले में सुलाकर माचक नदी पर पानी भरने जाती हैं. तब भगवान शंकर बच्चे को झूले से निकाल लेते हैं और उसमें सर्प छोड़ देते हैं. बालक भीलटदेव को भगवान शिव चौरागढ़ ले जाते हैं जो वर्तमान में पचमढ़ी के नाम से जाना जाता है.
जब मेंदा बाई पानी लेकर वापस लौटती हैं तो झूला खाली देखती हैं और उसे नजदीक जाकर देखने पर उसमे सर्प दिखाई देता है. तब उसे भगवान शंकर को दिया वचन याद आता है. वह नाग को अपने पुत्र की तरह पालती हैं और उसका नाम सिलटदेव रखतीं हैं.
दंपति एक बार फिर भगवान शंकर की तपस्या करते हैं तब भगवान भगवान शंकर कहते हैं कि तुम दोनों ने वचन तोड़ा था. इसलिए उनके पुत्र को वापस ले गए, लेकिन बालक की शिक्षा-दीक्षा अब वे ही करेंगे और उसकी भविष्य में बालक की पूजा भीलट व नागरूप में होगी.
बंगाल के राजा की पुत्री से भीलटदेव का विवाह
चौरागढ़ में बालक की शिक्षा-दीक्षा भगवान के मार्गदर्शन में प्राप्त कर भीलटदेव तन्त्र मन्त्र और जादू में पारंगत हो जाते हैं. समस्त कलाओं में दक्ष होने के बाद भीलटदेव अपने सखा भैरवनाथ के साथ बंगाल (वर्तमान में कामाख्या देवी ) के घने जंगलों का रुख करते हैं और बंगाल के जादूगरों से युद्ध कर उन्हें परास्त करते हैं. इसी कड़ी में बंगाल की गंगू तेलन नामक जादूगरनी को भी हराते हैं. जिसके बाद उनका विवाह बंगाल के राजा की पुत्री से हो जाता है.
जब भीलटदेव भगवान शंकर के पास लौटते हैं, तब भगवान शंकर भीलटदेव से कहते हैं कि अब तुम अपने माता पिता के पास जाओ और वहां नागलवाड़ी के पास सतपुड़ा शिखर चोटी को तपोभूमि बनाओ. जहां भिलट व नागरूप में लोककल्याण के चलते लोग तुम्हारी जय-जयकार करेंगे.
नागपंचमी के मौके पर इस धार्मिक स्थल का महत्व बढ़ जाता है. लेकिन कोरोना काल के चलते यहां लगने वाला मेला रद्द कर दिया गया है. साथ ही श्रद्धालुओं के लिए भी 5 दिनों तक मंदिर के पट बंद रखे गए हैं. लेकिन ये देव स्थल लाखों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है.