बालाघाट। जिले के वारासिवनी जनपद अंतर्गत आने वाले ग्राम मेहंदीवाड़ा के बुनकर शासन-प्रशासन की अनदेखी के चलते भूखमरी की कगार पर हैं. कोरोना काल ने उनके आर्थिक स्थिति की बची कसर भी निकाल दी है. बुनकरों की मांग है कि दम तोड़ते हथकरघा उद्योग को बढ़ावा दिया जाए और रोजगार उपलब्ध कराया जाए.
हथकरघा दिवस
बता दें कि 7 अगस्त का दिन राष्ट्रीय हथकरघा दिवस के रूप में मनाया जाता है. जिसकी शुरुआत पीएम नरेंद्र मोदी ने साल 2015 में चेन्नई के मद्रास विश्वविद्यालय की शताब्दी अवसर पर की थी. केंद्र सरकार ने इस दिन को इसीलिए चुना था, क्योंकि ब्रिटिश सरकार बंगाल के विभाजन का विरोध के लिए 1905 में इसी दिन कलकत्ता टाउन हॉल में स्वदेशी आंदोलन आरम्भ हुआ था. आंदोलन का उद्देश्य घरेलू उत्पादों और उत्पादन इकाइयों में नई जान डालना था. इस उद्देश्य का उल्लेख पीएम ने हाल ही में आत्मनिर्भर भारत बनाने के व्याख्यान में उल्लेखित किया था, लेकिन हथकरघा बुनकरी के कार्य पर निर्भर जिले का कोष्टी समाज आज अपने आप को आर्थिक रूप से असहाय महसूस कर रहा है.
बुनकारों को नहीं मिल रहा रोजगार
कोरोना काल के इन चार महीनों का असर भी इन पर साफ दिखाई दे रहा है. हथकरघा से बनीं चंदेरी, कोसा, महेश्वरी और नवरिया साड़ी किसी पहचान की मोहताज नहीं है. लगभग 65 सालों से काम कर रहे बुनकर बुधराम पराते बताते हैं उन्हें प्रति मीटर की दर से साड़ी बनाने का काम दिया जाता है. साढ़े छह मीटर की साड़ी के महज 900 रुपए मिलते हैं. जिसमें एक सप्ताह तक लग जाता है. लॉकडाउन की वजह से धागा नहीं मिल पा रहा है.
प्रशासन से लगा रहे मदद की दरकार
उन्होंने बताया कि पिछले साल विदेशी पर्यटक यहां आए थे, जिन्होंने उनके यहां साड़ियां खरीदी थी. वहीं चंद्रकला लिमजे कहती हैं उन्हें रोजगार नहीं मिल रहा है, जिसके कारण भूखे मरने की नौबत आ गई है. एक तो मजदूरी के रूप में 100-150 रुपए रोज के मिलते हैं. उस पर कोरोना संक्रमण ने दोहरी मार लगा दी है.
युवा बुनकर सुरेश डेकाटे ने कहा कि साड़ी बुनना बहुत मेहनत का काम है. जिसका मन मुताबिक मेहनताना नहीं मिल पाता है. अगर यही हालात रहे तो जीना मुश्किल हो जाएगा. बुनकरों के लिए अगर सरकार कोई कल्याणकारी योजना चलाए तो उनके पारंपरिक कार्य को जरूर प्रोत्साहन मिलेगा.