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आधुनिक संसाधनों के बीच पहचान खोते मिट्टी के दीए, कलाकारों की पिस रही कला

बाजार में आधुनिक संसाधनों के आने से मिट्टी के कलाकारों की कला का मोल कम होता जा रहा है. पहले दीपावली की आहट शुरू होते ही मिट्टी के दीए बर्तन सहित खिलौनों की बिक्री शुरू हो जाती थी, लेकिन आधुनिक संसाधनों के बीच यह अपनी पहचान खो रहे हैं.

आधुनिक संसाधनों के बीच पहचान खोते मिट्टी के दीए
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Published : Oct 11, 2019, 11:29 PM IST

आगर। मालवा के कलाकार आधुनिकता के उस दौर में अपनी पहचान खोती नजर आ रही है. पिछले कुछ सालों तक शहर में मिट्टी के दीए, बर्तन सहित खिलौनों की खूब ब्रिक्री होती थी, लेकिन जब से बाजार में आधुनिकता ने अपना एकाधिकार जमाया है, इनकी कला का कोई मोल नहीं रह गया है. ऐसा लगता है कि इनकी कला को ग्रहण लग गया है. बावजूद इसके मालवा के कलाकार आज भी इसे सिर्फ रस्म नहीं, बल्कि पूंजी मानकर जीवन का अंधेरा दूर कर रहे हैं.

आधुनिक संसाधनों के बीच पहचान खोते मिट्टी के दीए

बाजार में फैंसी वस्तुओं की ब्रिक्री बढ़ने से भले ही मिट्टी के उत्पादनों की ब्रिक्री प्रभावित हुई हो, लेकिन इन कलाकारों हौसला अब भी बरकरार है. परम्परा को जीवित रखे ये लोग दीए, मूर्ति ओर खिलौने बनाने में जूटे हुए हैं. यह कलाकार विदेशी वस्तुओं के बीच अपनी कला को जिंदा रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं.

आगर के जामुनिया रोड पर रहने वाले कुम्हार हेमराज और लक्ष्मीनारायण ने बताया कि उनका परिवार सदियों से मिट्टी के दीपक बनाते आ रहा है. बाजार में भले ही आधुनिक बर्तनों ने अपना जोर जमाया हो, लेकिन पुराने लोग आज भी मिट्टी के ही दीए खरीदते हैं.

आगर। मालवा के कलाकार आधुनिकता के उस दौर में अपनी पहचान खोती नजर आ रही है. पिछले कुछ सालों तक शहर में मिट्टी के दीए, बर्तन सहित खिलौनों की खूब ब्रिक्री होती थी, लेकिन जब से बाजार में आधुनिकता ने अपना एकाधिकार जमाया है, इनकी कला का कोई मोल नहीं रह गया है. ऐसा लगता है कि इनकी कला को ग्रहण लग गया है. बावजूद इसके मालवा के कलाकार आज भी इसे सिर्फ रस्म नहीं, बल्कि पूंजी मानकर जीवन का अंधेरा दूर कर रहे हैं.

आधुनिक संसाधनों के बीच पहचान खोते मिट्टी के दीए

बाजार में फैंसी वस्तुओं की ब्रिक्री बढ़ने से भले ही मिट्टी के उत्पादनों की ब्रिक्री प्रभावित हुई हो, लेकिन इन कलाकारों हौसला अब भी बरकरार है. परम्परा को जीवित रखे ये लोग दीए, मूर्ति ओर खिलौने बनाने में जूटे हुए हैं. यह कलाकार विदेशी वस्तुओं के बीच अपनी कला को जिंदा रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं.

आगर के जामुनिया रोड पर रहने वाले कुम्हार हेमराज और लक्ष्मीनारायण ने बताया कि उनका परिवार सदियों से मिट्टी के दीपक बनाते आ रहा है. बाजार में भले ही आधुनिक बर्तनों ने अपना जोर जमाया हो, लेकिन पुराने लोग आज भी मिट्टी के ही दीए खरीदते हैं.

Intro:आगर। कलाप्रेमियो का क्षेत्र कहा जाने वाले मालवा क्षेत्र में अब घरेलु कलाकार ही उपेक्षा का शिकार हो रहे है। यहां बात मिट्टी से जुडी कुछ खास चीजो की हो रही है, जिन्है विशेषकर दीपावली को ध्यान में रखकर तैयार किया जाता है। पिछले कुछ सालो तक शहर में मिट्टी के दीयों सहित बर्तनों, खिलोनों की खुब ब्रिक्री हुआ करती थी, लेकिन धीरे- धीरे आधुनिक सामग्री ने बाजार में अपना एकाधिकार जमा लिया। इन हालातो में भी कुछ परिवार ऐसे है, जो सिर्फ रस्म नही, बल्कि आज भी अपनी पूंजी मानकर जीवन का अंधेरा दूर कर रहे है। तो इस दीपावली हम भी सकंल्प ले कि मिट्टी के दीयों से अपने घर को रोशन करने के साथ इनकी दीवाली भी रोशन करे। शहर में ऐसे कई शिल्पकार है, जो मिट्टी को नए- नए आकार देकर अपने परिवार का पेट पालते है। त्योहार नजदीक आते ही पुरा परिवार काम में लग जाता है। ओर शुरू हो जाता है मिट्टी में जान फूंकने का सिलसिला। बाजार में फेंसी वस्तुओ की ब्रिक्री बढने से भले ही इन परिवारों के उत्पादनो की ब्रिक्री प्रभावित हुई हो, लेकिन हौसला अब भी बरकरार है। परम्परा को आज भी जीवित रख ये लोग ये लोग दीयें, मूर्ति ओर खिलौने बनाने में जूटे हुए है। भले ही ये कलाकार गरीब तबके के होते है। लेकिन बाजार में विदेशी वस्तुओ के बीच खुद को बनाए रखने के लिए ये जो कर रहे है, वे किसी बढे कदम से कम नही है।Body:आसान नही है मिट्टी को आकार देना

दीपक बनाने वाले लक्ष्मीनारायण प्रजापत का कहना है कि हर साल दीवाली के पहले मिट्टी को महीन करना, फिर कागज पीसकर गलना और चक्के पर रखकर अलग-अगल आकार देना। यह कला दिखने में जितनी सामान्य लगती है। उतनी ही मुश्किल होती है। मंहगाई के इस दौर में हर कोई सस्ते से सस्ता और अच्छे से अच्छा खरीदने की चाह रखता है। शुद्ध रूप से पीली मिट्टी से बनने वाले दीपक दिखने में ज्यादा आकर्षक नही होते। जितने दुसरी मिट्टी से बने दीपक होते है। ऐसे में इन मिट्टी के कलाकारो को सस्ता ओर अच्छा बनाना काफी मुश्किल और खर्चीला होता जा रहा है।Conclusion:सदीयों से चली आ रही है पुश्तेनी परम्परा

नगर के जामुनिया रोड पर रहने वाले स्वर्गीय अफसर कुम्हार के बेटे हेमराज औऱ लक्ष्मीनारायण ने बताया की वे ओर उनका परिवार सदीयो से मिट्टी के दीपक बनाते आ रहे है कई पीढीयों से उनके बुजूर्ग मिट्टी के दीपक बनाते आ रहे है। तभी से दीपक बनाने की यह पुश्तैनी परम्परा हमारे परिवार में जीवित है। अभी मेरे साथ- साथ मेरा पुरा परिवार दीपक बनाने में सहयोग कर रहा है। आगे भी इस परम्परा को मेरे पुत्र जीवित रखेंगे। कलाप्रेमी प्रजापत का कहना है की बाजार में भले ही चायना आइटम की धूम हो लेकिन पुराने लोग आज भी मिट्टी के ही दिये खरीदते है। उन्होने बताया की दीपावली आने के दो माह पहले ही यह कार्य शुरू कर देते है। आज यही उनकी रोजी रोटी का साधन है। 21 वी सदी में दिपक बनाने के कार्य मे उनकी चौथी पीढ़ी इस परम्परा को जीवित रखे हुवे है, उनके बेटे अब इस कार्य के लिए तैयार हो रहे है।

विजुअल- मिट्टी को आकार देकर दीपक बनाते हुए कलाप्रेमी।
इस तरह बनाए जाते है दीपक ।
बाईट- लक्ष्मीनारायण प्रजापत, कलाप्रेमी, सुसनेर।
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