सागर। मध्य प्रदेश के 28 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की घोषणा हो चुकी है. दोनों प्रमुख दल बीजेपी और कांग्रेस सत्ता के संग्राम में विजयश्री हासिल करने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. इन्हीं 28 सीटों में एक महत्वपूर्ण सीट है बुंदेलखंड अंचल की सुरखी विधानसभा सीट जहां पहली बार उपचुनाव हो रहा है.
दोनों प्रत्याशियों ने बदले दल
तीन बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर कमलनाथ सरकार में मंत्री रहे गोविंद सिंह राजपूत ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ बीजेपी में शामिल हो गए और उन्हें शिवराज सरकार में भी मंत्री बनाया गया, लिहाजा वे अब बीजेपी के उम्मीदवार हैं, तो 2013 में कांग्रेस के गोविंद सिंह राजपूत को शिकस्त देकर बीजेपी से विधायक चुनी गई पारुल साहू अब कांग्रेस उम्मीदवार के तौर पर मैदान में हैं. दोनों उम्मीदवार पहले भी आमने-सामने रह चुके हैं. यही वजह है कि सुरखी विधानसभा पर पूरे प्रदेश की नजर है.
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सुरखी में अब तक 15 विधानसभा चुनाव हुए
सुरखी विधानसभा सीट के सियासी इतिहास पर नजर डाली जाए. 1951 के पहले चुनाव से ही यह सीट हाइप्रोफाइल सीट मानी जाती है. जहां से प्रदेश के फ्रंटलाइन लीडर चुनाव लड़ते रहे हैं. सुरखी विधानसभा सीट कांग्रेस के दबदबे वाली सीट मानी जाती है. लेकिन समय-समय पर जनता दल और बीजेपी के प्रत्याशियों ने भी यहां जीत दर्ज की है. सुरखी विधानसभा सीट पर अब तक 15 विधानसभा चुनाव हुए हैं. जिनमें से 9 बार कांग्रेस ने जीत दर्ज की, तो दो बार जनता दल के प्रत्याशी ने बाजी मारी और चार बार जनसंघ और बीजेपी के प्रत्याशियों को विजयश्री मिली.
सुरखी के जातिगत समीकरण
बुंदेलखंड अंचल की सीट होने के चलते सुरखी में जातीय समीकरण का सतुलन बनाना बड़ी चुनौती माना जाता है क्योंकि इस सीट पर अनूसूचित जाति वर्ग प्रभावी भूमिका में नजर आता है. लेकिन राजपूत, ब्राह्मण और ओबीसी मतदाताओं का वोट भी अहम माना जाता है. सबसे ज्यादा अनूसूचित जाति वर्ग के 45 हजार मतदाता होने से यहां दोनों पार्टियों की नजरे इस वोट बैंक पर टिकी रहती है.
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सुरखी विधानसभा के मतदाता
वही बात अगर सुरखी विधानसभा सीट के मतदाताओं की जाए तो यहां 2 लाख 5 हजार 88 मतदाता है. जिनमें 1 लाख 11 हजार 696 पुरुष मतदाता, तो 93 हजार 679 महिला मतदाता शामिल है. जो सुरखी में पहली बार हो रहे उपचुनाव में अपने प्रत्यासी का चयन करेंगे.
कमलनाथ ने की सुरखी की उपेक्षाः गोविंद सिंह राजपूत
बीजेपी प्रत्याशी गोविंद सिंह राजपूत ने पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ पर सुरखी विधानसभा की उपेक्षा का आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार बनने के बाद भी सुरखी में विकास के कोई काम नहीं करवाए गए. लेकिन बीजेपी आने के बाद जितना काम कमलनाथ की 15 महीने की सरकार में नहीं हुआ उतना काम शिवराज सरकार ने महज पांच महीनो में किया है. बीजेपी प्रत्याशी ने कहा कि सुरखी विधानसभा उनका घर है और अपने घर का विकास कराने के लिए जनता उन्हें फिर जिताएगी.
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डर और अहंकार की राजनीति को मिटाना हैः पारुल साहू
वही कांग्रेस प्रत्याशी पारुल साहू कहती है कि सुरखी विधानसभा क्षेत्र में डर और अहंकार का जो माहौल है उसे मिटाना ही उनका पहला लक्ष्य है. जिस तरह से मध्य प्रदेश में एक चुनी हुई सरकार गिरायी गयी यह लोकतंत्र की हत्या है. पारुल साहू ने कहा कि जब वे सुरखी से विधायक थी तो उन्होंने इस क्षेत्र में बहुत काम किए है. जनता उन्ही कामों के लिए उन्हें एक बार फिर मौका देगी.
राजनीतिक जानकारों की राय
वही सुरखी के सियासी समीकरणों पर राजनीतिक जानकार और वरिष्ठ पत्रकार स्वदेश तिवारी कहते है कि सुरखी में दोनों प्रत्याशियों के दल बदलने से यहां दलबदल का मुद्दा अब ज्यादा बड़ा नहीं रहा. लिहाजा यह चुनाव विकास के मुद्दे पर आ गया है. जबकि सुरखी की जनता हमेशा विपरीत परिणाम देती रही है. यहां कई बार हाईप्रोफाइल प्रत्याशियों को भी हार का सामना करना पड़ा है. इसलिए इस बार दोनों दलों ने पूरी ताकत लगायी है.
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छटवां चुनाव लड़ रहे हैं गोविंद सिंह राजपूत
1998 के चुनाव से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने वाले गोविंद सिंह राजपूत ज्योतिरादित्य सिंधिया के सबसे करीबियों में शुमार है. अब तक पांच विधानसभा चुनाव लड़ चुके गोविंद सिंह राजपूत को तीन बार जीत मिली तो दो बार उन्हें हार का सामना करना पड़ा है. 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्हें पारूल साहू ने महज 141 वोटों से चुनाव हराया था. लेकिन 2018 में गोविंद सिंह राजपूत ने अपनी हार का बदला बीजेपी से लेते हुए जीत दर्ज की और कमलनाथ सरकार में मंत्री बने. सिंधिया ने बगावत की तो गोविंद राजपूत भी बीजेपी के साथ आ गए और शिवराज सरकार में मंत्री बने और अब वे छटवीं बार चुनाव लड़ रहे हैं.
गोविंद सिंह राजपूत को विजयश्री दिलाने की जिम्मेदारी शिवराज सरकार में मंत्री कद्दावर मंत्री और चुनावी मैनेजमेंट में माहिर भूपेंद्र सिंह के कंधों पर है. जो खुद भी यहां से विधायक रह चुके हैं. जबकि सिंधिया भी यहां अपने सिपाही के लिए मैदान संभाल रहे हैं. हालांकि पारूल साहू के कांग्रेस में आने के बाद यहां परिस्थितियां बदली हुई है. पारुल का चुनावी प्रचार वे खुद ही संभाल रही है. गोविंद सिंह राजपूत और पारुल साहू राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी है लिहाजा सुरखी में मुकाबला दिलचस्प होने की उम्मीद है. हालांकि दोनों प्रत्याशियों में किस्मत किसकी चमकेगी इसका पता तो 10 नवंबर को ही पता चलेगा.