जबलपुर। यहां एक परिवार बीते 150 सालों से कुछ खास मूर्तियां बना रहा है. किसी जमाने में यह लो केवल मूर्तिकार (Bundelkhandi tradition of Goddess Idols) हुआ करते थे. लेकिन अब परिवार पढ़ लिख गया है. परिवार का कोई सदस्य वकील है, कोई ठेकेदार है. बच्चे भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद इन लोगों ने अपनी पुश्तैनी कला को जिंदा रखा है. आज भी यह पूरी शिद्दत से बुंदेलखंडी कला की अद्भुत देवी प्रतिमाएं बनाते हैं.
डेढ़ सौ साल पुरानी परंपरा को जीवित रखने की चुनौती
इन कलाकारों का कहना है कि उन्हें अपने काम से फुर्सत नहीं मिलती, लेकिन इसके बावजूद वे समय निकालकर देवी प्रतिमाओं (Bundelkhandi tradition of Goddess Idols) को बनाते हैं. इस काम में पूरा परिवार मदद करता है .इन लोगों का कहना है कि अब देवी प्रतिमाएं बनाना उनके लिए आय का जरिया नहीं है, लेकिन परिवार की डेढ़ सौ सालों की परंपरा को वे जिंदा रखना चाहते हैं.
बुंदेली परंपरा की मूर्तियों का जलवा
जबलपुर शहर में दुर्गा प्रतिमाओं को रखने का इतिहास भी (Bundelkhandi tradition of Goddess Idols) लगभग डेढ़ सौ साल पुराना है. पहली बार जबलपुर में बंगाली क्लब ने दुर्गा प्रतिमाओं को विराजित किया था. यहीं पर कुछ स्थानीय लोग कार्यक्रम में शामिल होने पहुंचे, तो इन लोगों को बंगाली क्लब के लोगों ने अंदर नहीं आने दिया. परेशान लोगों ने अपनी खुद की प्रतिमाओं को स्थापित करने का संकल्प लिया . जबलपुर के दिक्षितपुरा के इन कलाकारों को पहली बार दुर्गा प्रतिमाओं को बनाने का मौका दिया. डेढ़ सौ साल से शहर की महारानी कहीं जाने वाली सर्राफा की प्रतिमा यही (Bundelkhandi tradition of Goddess Idols) परिवार बनाता चला आ रहा है.
एक मूर्ति बनाने में लगते हैं 6 महीने
मूर्ति को बनाने का सिलसिला लगभग 6 महीने में पूरा हो पाता है. क्योंकि श्रंगार के (Bundelkhandi tradition of Goddess Idols) लिए जो सामान तैयार किया जाता है, उसमें 6 महीने लग जाते हैं. कलाकारों का कहना है कि उन्होंने अपने डेढ़ सौ सालों की इस परंपरा में जरा भी बदलाव नहीं किया है. आज भी उसी तरीके की मूर्तियां वो बना रहे हैं जैसे पहले मनाई जाती थी.
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देश में मधुबनी, बंगाली, राजस्थानी जैसी कई कलाओं को मान और सम्मान मिला है, लेकिन बुंदेली कला को (Bundelkhandi tradition of Goddess Idols) अपनी अलग पहचान नहीं मिली है. बुंदेली शैली की यह प्रतिमा दर्शाती है, कि बुंदेली परंपरा देश की दूसरी परंपराओं से हटकर है और इसे भी अलग से पहचान मिलनी चाहिए.