जबलपुर। सुनने में ये बहुत अच्छा लगता है कि आदिवासियों का जीवन बेहतर हो गया है. प्रदेश में वन अधिकार कानून 2006 लागू हो गया है, इसके तहत 2005 से अब तक जंगल की जमीन पर रह रहे आदिवासियों को जंगल की जमीन का पट्टा दिया गया है. लेकिन हकीकत कुछ और ही है. आदिवासी आज भी अपनी जमीन के लिए भटक रहा है और अधिकारी खानापूर्ति कर इनसे इंतजार कराते रहते हैं. ऐसा ही हाल है जबलपुर के चिरापौड़ी गांव का, जहां अधिकारी और पंचायत प्रतिनिधि की खानापूर्ति की वजह से कई लोगों को पट्टा नहीं मिल पाया.
जबलपुर के चिरापौड़ी गांव में एसडीएम, तहसीलदार, वन विभाग के कर्मचारी और स्थानीय पंचायत के प्रतिनिधि और सचिव की बैठक से बाहर आए गांव वालों ने बताया कि ये पहला मौका नहीं है, जब पट्टा देने के लिए इस तरह की सभा की जा रही है, पहले भी कई बार वे इस प्रक्रिया से गुजर चुके हैं, लेकिन पट्टा नहीं मिला.
बीते दिनों शहर से वापस आए लोगों की तादाद देखी है, उनकी तकलीफ से पूरा समाज दो-चार हुआ है. इनमें से बहुत से आदिवासी हैं, यदि इन्हें इनकी सदियों पुरानी जमीन का मालिकाना हक मिल गया होता तो ये जमीन छोड़कर नहीं जाते.
प्रदेश में वन अधिकार कानून 2006 लागू हो गया है, इसके तहत 2005 से अब तक जंगल की जमीन पर रह रहे आदिवासियों को जंगल की जमीन का पट्टा दिया जा रहा है, ताकि वह उस जमीन का मालिक बन जाए और उसे खेती या वनोपज के लिए दर-दर न भटकना पड़े. सरकार के इस फैसले से बेशक आदिवासियों का जीवन थोड़ा बेहतर हो सकता है और वे खेती के अलावा इस जमीन पर पशुपालन बागवानी भी कर सकेते हैं, पर अधिकारियों के लापरवाही के कारण सरकार की मंशा अभी भी अधूरी है.