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गुटबाजी का शिकार कांग्रेस को है ताकतवर जननेता की तलाश, गुटों में बंटे क्षत्रपों का नहीं कोई 'सरताज'

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Published : Jul 19, 2021, 6:57 PM IST

15 साल के इंतजार के बाद कांग्रेस के हाथ से मुश्किल से आई सत्ता गुटबाजी की भेंट चढ़ गई. यूं तो कांग्रेस में गुटबाजी का लंबा इतिहास है इस दौरान पार्टी कई बार टूटी है और फिर एकजुट हुई है लेकिन इस बार हालात उलटे हैं. कांग्रेस के पास अलग अलग क्षेत्रों में नेता तो है लेकिन एक ताकतवर और भीड़ जुटाऊ नेता का अभाव पार्टी को खल रहा है.

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गुटबाजी का शिकार कांग्रेस को है ताकतवर जननेता की तलाश

भोपाल। 15 साल के लंबे इंतजार के बाद मिली सत्ता हाथ से निकलने के बाद से ही प्रदेश कांग्रेस मजबूत और ताकतवर नेता की कमी से जूक्ष रही है. साल 2019 में कई चेहरों और क्षत्रपों को साथ लेकर चुनाव भी जीता और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी बनी. बावजूद इसके कांग्रेस से गुटबाजी दूर नहीं हुई. जिसका नतीजा हुआ कि कांग्रेस टूट गई और प्रदेश कांग्रेस का एक बड़ा चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक विधायकों सहित बीजेपी में शामिल हो गए. कांग्रेस के हाथ से मुश्किल से मिली सत्ता छूट गई. यू तो कांग्रेस में गुटबाजी का लंबा इतिहास रहा है. कांग्रेस कई बार टूटी है और फिर एकजुट हुई है लेकिन इस बार हालात उलटे हैं. कांग्रेस के पास अलग अलग क्षेत्रों में नेता तो है लेकिन ताकतवर और भीड़ जुटाऊ नेता का अभाव दिखाई दे रहा है. हालांकि दमोह उपचुनाव में मिली जीत से पार्टी उत्साहित है और उसे लग रहा है कि सबकुछ उसके पक्ष में है.

सिंधिया के जाने के बाद भी खत्म नहीं हुई गुटबाजी
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का मानना है कि सिंधिया के जाने के बाद भी कांग्रेस में बने अलग-अलग गुटों में कोई कमी नहीं आई है. इनमें सबसे बड़ा गुट है दिग्विजय सिंह का, बोकिल कहते हैं कि कांग्रेस के मौजूदा विधायकों में लगभग दो तिहाई दिग्विजय सिंह के गुट के बताए जाते हैं जो ग्वालियर, मालवा और भोपाल में सक्रिय है. इस गुट में भी गुटबाजी है एक गुट जयवर्धन का है तो दूसरा लक्ष्मण सिंह का. करते हैं जिनका प्रदेश में सबसे बड़ा गुट है। लगभग दो तिहाई विधायक भी उनके ही बताए जाते हैं। इस गुट में भी अंदर गुटबाजी है। जिसमें एक का नेतृत्व जयवर्धन करते हैं औऱ दूसरे का लक्ष्मण सिंह. भोपाल, होशंगाबाद और आसपास के इलाके में सुरेश पचौरी स्थापित नेता माने जाते थे, लेकिन अब उनके पास विधायकों की संख्या बहुत कम है और दो-दो बार अपनी ही सीट हारने की वजह से उनका प्रभाव कम हो गया है.

कमलनाथ कार्पोरेट नेता, कार्यकर्ताओं में पैठ नहीं

राजनीतिक विष्लेषकों के मुताबिक दिग्विजय सिंह के बाद कमलनाथ का नंबर आता है. कमलनाथ कार्पोरेट के हिसाब से दिग्गज नेता लेकिन जमीन पर जगह तलाशते हुए मप्र में फिर से खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन उनकी कार्यशैली के चलते पार्टी कार्यकर्ताओं में उतनी पैठ नहीं है जो एक बड़े, ताकतवर और जननेता की होना चाहिए. लंबे समय तक केंद्र रहे प्रदेश में सिर्फ छिंदवाडा तक ही सक्रिय माने जाते हैं.इस वजह से कांग्रेस को फिर से खड़ा करने के लिए उन्हें बुढ़ापे में भी पसीना बहाना पड़ रहा है. उनके समर्थकों में एनपी प्रजापति, बाला बच्चन जैसे आदिवासी नेता और अनुसूचित जाति के सज्जन सिंह वर्मा, पिछड़े वर्ग के सुखदेव पांसे, ब्राम्हण नेता तरुण भनोत शामिल हैं.

विधायकों में बढ़ा असंतोष, यह है कारण

कांग्रेस में गुटबाजी की जो बड़ी वजह हैं वे यह हैं कि
- पार्टी की सारी ताकत कमलनाथ के पास है वे प्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता बने हुए हैं. दूसरे बड़े नेताओं के पास कोई जिम्मेदारी नहीं है. यह असंतोष की बड़ी वजह है.
-ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद कई दूसरे नेताओं को भी अपना भविष्य बेहतर नजर आने लगा है.
- कांग्रेस में आज भी वही पुराना नेतृत्व है, न इसमें परिवर्तन हो रहा है और न ही नए पीढ़ी के नेताओं को मौका मिल रहा है. दूसरी तरफ बीजेपी ने राष्ट्रीय स्तर पर हो या प्रदेश स्तर पर हर जगह परिवर्तन किया है.
- अलग-अलग गुटों में बंटने के कारण कोई नया सामुहिक नेतृत्व सामने नहीं आ रहा है, वंशवाद के चलते भी दूसरे नेताओं को मौका नहीं मिल पा रहा है.


अलग-थलग पड़े अजय सिंह
कभी विंध्य क्षेत्र में अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के दौर में काफी मजबूत रही कांग्रेस को अजय सिंह राहुल उतना मजबूत नहीं रख पाए. वे न तो विंध्य के एकक्षत्र नेता बन पाए और न ही प्रदेश की राजनीति में अपना कोई प्रभाव छोड़ सके हैं. यहां तक की उनके सबसे खास पिछड़े वर्ग के नेता स्वर्गीय इंद्रजीत सिंह पटेल के बेटे कमलेश्वर पटेल भी साथ छोड़ गए. खुद अजय सिंह भी अपनी सीट चुरहट से विधानसभा नहीं पहुंच पाए. प्रदेश स्तर पर उनको दिग्विजय सिंह का करीबी माना जाता है दोनों की आपस में रिश्तेदारी भी है, लेकिन इसका फायदा उन्हें कम ही मिला है.

विद्यावती की विरासत को नहीं संभाल पाया चतुर्वेदी परिवार

बुंदेलखंड में कांग्रेस की कद्दावर नेता रहीं विद्यावती चतुर्वेदी की विरासत को कुछ सालों तक सत्यव्रत चतुर्वेदी ने संभाला लेकिन वे उनके बेटे और भाई आलोक चतुर्वेदी और पज्जन भाई भी इस विरासत को बचाने में नाकाम ही रहे हैं. बुंदेलखंड में कांग्रेस जबरदस्त गुटबाजी का शिकार है. यही वजह है कि यहां के नेताओं को संगठन में भी कोई तरजीह नहीं मिलती है. राजा पटेरिया भी उसी श्रेणी में आ गए हैं, कभी दिग्विजिय सिंह के खास रहे पटेरिया खुद अपनी जगह तलाशने में जुटे हैं.

खंडवा से टिकट चाहते हैं अरुण यादव
प्रदेश में सहकारिता के पुरोधा और कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे सुभाष यादव की विरासत को बचाने के लिए उनके बेटे अरुण यादव और सचिन यादव दोनों रात-दिन एक किए हुए हैं, लेकिन यहां भी इनके अलग अलग गुट हैं.अरुण यादव पिछले विधानसभा चुनाव में शिवराज सिंह चौहान से हारे थे, तब ये माना जा रहा था कि पार्टी में उनकी इस चुनावी शहादत का सम्मान होगा लेकिन अरुण यादव को आज भी इसका इंतजार है.माना जा रहा है कि शायद खंडवा लोकसभा सीट से पार्टी उन्हें चुनाव लड़ा सकती है. टिकट देकर उनकी हसरत पूरी हो सके।

सरकार गिरने के बाद खराब होती गई कांग्रेस की हालत
सरकार गिरने के बाद कांग्रेस की हालत बेहद चिंताजनक हो गई और गुट भी खत्म हो गए थे। कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह को भी चुनाव में सीमित कर दिया था और अरुण यादव भी कमलनाथ के साथ हो गए थे. इससे पहले कांग्रेस की सरकार के दौरान हुए उपचुनावों में दिग्विजिय सिंह,अरुण यादव और सुरेश पचौरी जैसे दिग्गज नेताओं का पहले जैसा दखल नहीं रहा था. उपचुनाव के सीटों पर टिकट कमलनाथ ने अपनी मर्जी से बांटे और खुद ही यह तय किया था कि किस नेता को कहां प्रचार करने जाना है. प्रदेश में भी जब कांग्रेस की सरकार थी तब भी कांग्रेस सिंधिया,दिग्विजय,पचौरी,अरुण यादव के गुट में बंटी थी और कमलनाथ के मंत्रीमंडल में सभी गुटों के विधायक शामिल थे.

पुराना है..गुटबाजी का इतिहास
एमपी कांग्रेस में खींचतान का इतिहास पुराना है. 1965 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मूलचंद देशधारा ने भीतरघात कर पार्टी के मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू को चुनाव हरवा दिया था. इसकी वजह यह थी कि देशधारा नेहरू विरोधी थे और काटजू को नेहरू ने चुना था. इसी तरह 1980 में अर्जुन सिंह को संजय गांधी की पसंद पर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था तो उन्हें शुक्ल बंधुओं, प्रकाशचंद्र सेठी मोतीलाल वोरा और माधवराव सिंधिया जैसे बड़े नेताओं से जूझना पड़ा. श्यामाचरण शुक्ल तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन दबावों के चलते वे एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. 1993 से दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने, लेकिन वे भी सिंधिया गुट से जूझते रहे. केंद्रीय स्तर पर भी नारायण दत्त तिवारी, तिवारी कांग्रेस और माधवराव सिंधिया मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस बनाकर पार्टी से अलग हो चुके थे.

भोपाल। 15 साल के लंबे इंतजार के बाद मिली सत्ता हाथ से निकलने के बाद से ही प्रदेश कांग्रेस मजबूत और ताकतवर नेता की कमी से जूक्ष रही है. साल 2019 में कई चेहरों और क्षत्रपों को साथ लेकर चुनाव भी जीता और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी बनी. बावजूद इसके कांग्रेस से गुटबाजी दूर नहीं हुई. जिसका नतीजा हुआ कि कांग्रेस टूट गई और प्रदेश कांग्रेस का एक बड़ा चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक विधायकों सहित बीजेपी में शामिल हो गए. कांग्रेस के हाथ से मुश्किल से मिली सत्ता छूट गई. यू तो कांग्रेस में गुटबाजी का लंबा इतिहास रहा है. कांग्रेस कई बार टूटी है और फिर एकजुट हुई है लेकिन इस बार हालात उलटे हैं. कांग्रेस के पास अलग अलग क्षेत्रों में नेता तो है लेकिन ताकतवर और भीड़ जुटाऊ नेता का अभाव दिखाई दे रहा है. हालांकि दमोह उपचुनाव में मिली जीत से पार्टी उत्साहित है और उसे लग रहा है कि सबकुछ उसके पक्ष में है.

सिंधिया के जाने के बाद भी खत्म नहीं हुई गुटबाजी
राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार अजय बोकिल का मानना है कि सिंधिया के जाने के बाद भी कांग्रेस में बने अलग-अलग गुटों में कोई कमी नहीं आई है. इनमें सबसे बड़ा गुट है दिग्विजय सिंह का, बोकिल कहते हैं कि कांग्रेस के मौजूदा विधायकों में लगभग दो तिहाई दिग्विजय सिंह के गुट के बताए जाते हैं जो ग्वालियर, मालवा और भोपाल में सक्रिय है. इस गुट में भी गुटबाजी है एक गुट जयवर्धन का है तो दूसरा लक्ष्मण सिंह का. करते हैं जिनका प्रदेश में सबसे बड़ा गुट है। लगभग दो तिहाई विधायक भी उनके ही बताए जाते हैं। इस गुट में भी अंदर गुटबाजी है। जिसमें एक का नेतृत्व जयवर्धन करते हैं औऱ दूसरे का लक्ष्मण सिंह. भोपाल, होशंगाबाद और आसपास के इलाके में सुरेश पचौरी स्थापित नेता माने जाते थे, लेकिन अब उनके पास विधायकों की संख्या बहुत कम है और दो-दो बार अपनी ही सीट हारने की वजह से उनका प्रभाव कम हो गया है.

कमलनाथ कार्पोरेट नेता, कार्यकर्ताओं में पैठ नहीं

राजनीतिक विष्लेषकों के मुताबिक दिग्विजय सिंह के बाद कमलनाथ का नंबर आता है. कमलनाथ कार्पोरेट के हिसाब से दिग्गज नेता लेकिन जमीन पर जगह तलाशते हुए मप्र में फिर से खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन उनकी कार्यशैली के चलते पार्टी कार्यकर्ताओं में उतनी पैठ नहीं है जो एक बड़े, ताकतवर और जननेता की होना चाहिए. लंबे समय तक केंद्र रहे प्रदेश में सिर्फ छिंदवाडा तक ही सक्रिय माने जाते हैं.इस वजह से कांग्रेस को फिर से खड़ा करने के लिए उन्हें बुढ़ापे में भी पसीना बहाना पड़ रहा है. उनके समर्थकों में एनपी प्रजापति, बाला बच्चन जैसे आदिवासी नेता और अनुसूचित जाति के सज्जन सिंह वर्मा, पिछड़े वर्ग के सुखदेव पांसे, ब्राम्हण नेता तरुण भनोत शामिल हैं.

विधायकों में बढ़ा असंतोष, यह है कारण

कांग्रेस में गुटबाजी की जो बड़ी वजह हैं वे यह हैं कि
- पार्टी की सारी ताकत कमलनाथ के पास है वे प्रदेश में कांग्रेस के कद्दावर नेता बने हुए हैं. दूसरे बड़े नेताओं के पास कोई जिम्मेदारी नहीं है. यह असंतोष की बड़ी वजह है.
-ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद कई दूसरे नेताओं को भी अपना भविष्य बेहतर नजर आने लगा है.
- कांग्रेस में आज भी वही पुराना नेतृत्व है, न इसमें परिवर्तन हो रहा है और न ही नए पीढ़ी के नेताओं को मौका मिल रहा है. दूसरी तरफ बीजेपी ने राष्ट्रीय स्तर पर हो या प्रदेश स्तर पर हर जगह परिवर्तन किया है.
- अलग-अलग गुटों में बंटने के कारण कोई नया सामुहिक नेतृत्व सामने नहीं आ रहा है, वंशवाद के चलते भी दूसरे नेताओं को मौका नहीं मिल पा रहा है.


अलग-थलग पड़े अजय सिंह
कभी विंध्य क्षेत्र में अर्जुन सिंह और श्रीनिवास तिवारी के दौर में काफी मजबूत रही कांग्रेस को अजय सिंह राहुल उतना मजबूत नहीं रख पाए. वे न तो विंध्य के एकक्षत्र नेता बन पाए और न ही प्रदेश की राजनीति में अपना कोई प्रभाव छोड़ सके हैं. यहां तक की उनके सबसे खास पिछड़े वर्ग के नेता स्वर्गीय इंद्रजीत सिंह पटेल के बेटे कमलेश्वर पटेल भी साथ छोड़ गए. खुद अजय सिंह भी अपनी सीट चुरहट से विधानसभा नहीं पहुंच पाए. प्रदेश स्तर पर उनको दिग्विजय सिंह का करीबी माना जाता है दोनों की आपस में रिश्तेदारी भी है, लेकिन इसका फायदा उन्हें कम ही मिला है.

विद्यावती की विरासत को नहीं संभाल पाया चतुर्वेदी परिवार

बुंदेलखंड में कांग्रेस की कद्दावर नेता रहीं विद्यावती चतुर्वेदी की विरासत को कुछ सालों तक सत्यव्रत चतुर्वेदी ने संभाला लेकिन वे उनके बेटे और भाई आलोक चतुर्वेदी और पज्जन भाई भी इस विरासत को बचाने में नाकाम ही रहे हैं. बुंदेलखंड में कांग्रेस जबरदस्त गुटबाजी का शिकार है. यही वजह है कि यहां के नेताओं को संगठन में भी कोई तरजीह नहीं मिलती है. राजा पटेरिया भी उसी श्रेणी में आ गए हैं, कभी दिग्विजिय सिंह के खास रहे पटेरिया खुद अपनी जगह तलाशने में जुटे हैं.

खंडवा से टिकट चाहते हैं अरुण यादव
प्रदेश में सहकारिता के पुरोधा और कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे सुभाष यादव की विरासत को बचाने के लिए उनके बेटे अरुण यादव और सचिन यादव दोनों रात-दिन एक किए हुए हैं, लेकिन यहां भी इनके अलग अलग गुट हैं.अरुण यादव पिछले विधानसभा चुनाव में शिवराज सिंह चौहान से हारे थे, तब ये माना जा रहा था कि पार्टी में उनकी इस चुनावी शहादत का सम्मान होगा लेकिन अरुण यादव को आज भी इसका इंतजार है.माना जा रहा है कि शायद खंडवा लोकसभा सीट से पार्टी उन्हें चुनाव लड़ा सकती है. टिकट देकर उनकी हसरत पूरी हो सके।

सरकार गिरने के बाद खराब होती गई कांग्रेस की हालत
सरकार गिरने के बाद कांग्रेस की हालत बेहद चिंताजनक हो गई और गुट भी खत्म हो गए थे। कमलनाथ ने दिग्विजय सिंह को भी चुनाव में सीमित कर दिया था और अरुण यादव भी कमलनाथ के साथ हो गए थे. इससे पहले कांग्रेस की सरकार के दौरान हुए उपचुनावों में दिग्विजिय सिंह,अरुण यादव और सुरेश पचौरी जैसे दिग्गज नेताओं का पहले जैसा दखल नहीं रहा था. उपचुनाव के सीटों पर टिकट कमलनाथ ने अपनी मर्जी से बांटे और खुद ही यह तय किया था कि किस नेता को कहां प्रचार करने जाना है. प्रदेश में भी जब कांग्रेस की सरकार थी तब भी कांग्रेस सिंधिया,दिग्विजय,पचौरी,अरुण यादव के गुट में बंटी थी और कमलनाथ के मंत्रीमंडल में सभी गुटों के विधायक शामिल थे.

पुराना है..गुटबाजी का इतिहास
एमपी कांग्रेस में खींचतान का इतिहास पुराना है. 1965 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मूलचंद देशधारा ने भीतरघात कर पार्टी के मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू को चुनाव हरवा दिया था. इसकी वजह यह थी कि देशधारा नेहरू विरोधी थे और काटजू को नेहरू ने चुना था. इसी तरह 1980 में अर्जुन सिंह को संजय गांधी की पसंद पर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया था तो उन्हें शुक्ल बंधुओं, प्रकाशचंद्र सेठी मोतीलाल वोरा और माधवराव सिंधिया जैसे बड़े नेताओं से जूझना पड़ा. श्यामाचरण शुक्ल तीन बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन दबावों के चलते वे एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. 1993 से दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बने, लेकिन वे भी सिंधिया गुट से जूझते रहे. केंद्रीय स्तर पर भी नारायण दत्त तिवारी, तिवारी कांग्रेस और माधवराव सिंधिया मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस बनाकर पार्टी से अलग हो चुके थे.

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