भोपाल. कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय सिंह के लिए कहा जाता रहा है कि एमपी में अपने पॉवर के दिनों में वे जिसके कंधे पर हाथ रख देते थे वो दहशत में आ जाता था कि अब पार्टी में उसकी उल्टी गिनती शुरु होने में ज्यादा वक्त नहीं है. अर्जुन सिंह के शार्गिद रहे दिग्विजय सिंह वो राजनेता हैं जो राजनीति को जीते हैं. उनके बयान से लेकर ट्वीट तक कोई न कोई मकसद लिए हुए होते हैं. ऐसे में अगर कांग्रेस के अध्यक्ष पद की दौड़ से पैर खींच लेने के बाद दिग्विजय सिंह को रहीम के दोहे याद आ रहे हैं, तो इसे भी सियासत में दिग्विजय का चोखा दांव ही समझिए. राजा को वैराग्य यूं नहीं हुआ है.
कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव ट्विटर पर दिखा...राजा का वैराग्य : दिग्विजय सिंह के ट्विटर पर एक ही दिन के दो ट्वीट काबिल ए गौर है. पहले ट्वीट में वे रहीम को याद करते हैं. और कहते हैं 'चाह गई चिंता मिटी मनुआ बे परवाह. जाके कछु नहीं चाहिए वे शाहन के शाह'. इसी दिन दिग्विजय सिंह अपने दूसरे ट्वीट में कलाकार विनोद दुबे का एक वीडियो शेयर करते हैं. वीडियो में विनोद दुबे जो गीत सुना रहे हैं वो खास है. 'क्या लेके आया जग में क्या लेके जाएगा. मन सुन जोगी बात ये माया करती घात आतम भीतर समझात. मूरख ना समझे बात'. अब सवाल उठ रहे हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष पद से नाम वापिस लेने के ठीक दूसरे ही दिन दिग्विजय बैरागी क्यों हो गए हैं. ट्वीट के जरिए क्या ये संदेश दिया जा रहा है कि 2003 में मिली हार के बाद दस साल तक कांग्रेस में कोई भी पद नहीं लेने का एलान करने वाले दिग्विजय सियासत में साधू भाव से रहते हैं.
कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव ट्विट पर दिग्गी को सलाह और सवाल: दिग्विजय सिंह से इन ट्वीट पर सवाल भी पूछे जा रहे हैं और समझाइश भी दी जा रही है. सवाल ये है कि दिग्विजय सिंह जी कांग्रेस अध्यक्ष की दौड़ से हटने के ठीक बाद आप इतने आध्यात्मिक क्यों दिखाई दे रहे हैं. समझाइश यह भी मिली है जिसमें एक सज्जन रहीम के ही दोहे से समझाते हैं कि
रहिमन निज मन की व्यथा मन राखो गोय, सुनि इठलैंहे लोग सब बांटि ना लैहे कोय. ट्वीटर पर दिग्विजय सिंह के मन को पढ़ते हुए एक दिलचस्प जवाब ये भी है कि बाकी है अब भी
तर्क ए तमन्ना की आरज़ू क्यूं कर कहूं कि कोई तमन्ना नही मुझे. एक सवाल ये भी है कि
क्या सन्यास ले रहे हैं राजा साहब. दिग्विजय की सियासत अलग है: वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक उमेश त्रिवेदी कहते हैं दिग्विजय सिंह के स्वभाव में वैराग्य है. वो राजनीति में पद प्रतिष्ठा को बहुत ढोते नहीं हैं. वरना दस साल सत्ता से हटने के बाद राजनीति से एक ढंग के सन्यास का फैसला नहीं ले पाते. लेकिन इसमें दो राय नहीं कि वे जो करते हैं पूरी शिद्दत से करते हैं. और डंके की चोट पर दुनिया को बता करते हैं.चाहे फिर वो धर्म कर्म हो या राजनीति. मुझे 1998-99 का वाकया याद है जब उन्होने विक्रम वर्मा से कहा था कि आप अपने हिसाब से सीएम मुख्यालय में बदलाव करवा लीजिए जिसके बाद हुए चुनाव में बीजेपी हार गई. इसका अर्थ यह निकाला जा सकता है कि दिग्विजय सिंह की हर बात के मायने होते हैं. उन्हें हम उन राजनेताओं में गिन सकते हैं जिनका नैतिक साहस बहुत बड़ा है. सियासत की सांप सीढी से बेपरवाह रहने वाले हैं दिग्विजय.