नई दिल्ली : आम बजट को पेश करने की प्रक्रियाओं और उनसे जुड़ी शब्दावलियों को समझने से पहले प्रस्तुत है कुछ रोचक जानकारियां. साल 2016 तक फरवरी महीने के आखिरी दिन बजट पेश होता था. लेकिन 2017 से फरवरी महीने के पहले दिन बजट पेश किया जाने लगा है. तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने इसकी शुरुआत की थी. इनसे पहले 1999 में वित्त मंत्री जसवंत सिंह ने बजट को शाम के बजाए सुबह 11 बजे पेश करने की प्रथा शुरू की. उससे पहले आम बजट शाम पांच बजे पेश होता था. साल 2017 से ही रेल बजट को अलग से पेश करने की परंपरा छोड़ दी गई, इसे आम बजट में ही मिला दिया गया. 1955 तक बजट को सिर्फ अंग्रेजी भाषा में पेश किया जाता था. उसके बाद से इसे हिंदी में भी पेश किया जाने लगा. 2020 में वित्त मत्री निर्मला सीतरमण ने अब तक का सबसे लंबा बजट भाषण दिया था. उन्होंने 2.40 घंटे का समय लिया था. 2020 से ही वित्त मंत्री ने पेपरलेस बजट की भी शुरुआत की. यानी बजट को उन्होंने टैबलेट पर पढ़ा था.
बजट तैयार होने की प्रक्रिया
बजट बनाने की प्रक्रिया करीब छह महीने पहले ही शुरू हो जाती है. सभी विभागों से आंकड़े मंगाए जाते हैं. इससे यह निर्धारित होता है कि उस विभाग को कितने पैसे की जरूरत है. इसमें ही सोशल वेलफेयर स्कीम को भी जोड़ा जाता है. दोनों को मिलाकर सरकार यह तय करती है कि अमुक मंत्रालय को कितना पैसा आवंटित करना है.
बजट बनाने में किनकी होती है अहम भूमिका- वित्त मंत्री, वित्त सचिव, राजस्व सचिव और व्यय सचिव की. साथ ही सरकार अलग-अलग स्तर पर स्टेक होल्डरों से बात करती रहती है. इसमें वित्तीय मामलों के बड़े जानकार से लेकर उद्योग जगत के जुड़े प्रतिनिधि शामिल होते हैं. वित्त मंत्रालय को पीएम और नीति आयोग का साथ मिलता रहता है.
बजट तैयार होने तक इसकी गोपनीयता को बरकरार रखना वित्त मंत्रालय की सबसे बड़ी चुनौती होती है. इसलिए बजट छपने की जब तैयारी हो रही होती है, तो इनसे जुड़े सभी कर्मचारियों को मंत्रालय में ही रहना पड़ता है. उन्हें बाहर के व्यक्तियों से संपर्क करने की अनुमति नहीं होती है. घरवालों से भी संपर्क करने की इजाजत नहीं मिलती है. वे लोग जिस कंप्यूटर पर काम करते हैं, उनसे कोई भी मैसेज बाहर नहीं भेजा जा सकता है.
मुख्य रूप से बजट में आमदनी और खर्च का ब्योरा होता है. बजट के संबंध में आमदनी के लिए 'रेवेन्यू' शब्द का प्रयोग किया जाता है, जबकि खर्च के लिए 'एक्सपेंडिचर' शब्द का प्रायः प्रयोग होता है. सरकार अपने खर्च में आयात बिल, सेना पर होने वाले खर्च, पेंशन और वेतन पर होने वाले खर्च, ब्याज के भुगतान के लिए होने वाले खर्च, अलग-अलग कल्याणकारी स्कीमों पर होने वाले खर्च का ब्योरा देती है. (व्यय बजट को और विस्तार से जानना है, तो यहां करें क्लिक), इसी तरह से सरकार कहां-कहां से रेवेन्यू जेनरेट करेगी, इसका भी ब्योरा दिया जाता है. यानी टैक्स से कितनी आमदनी होगी, पब्लिस सेक्टर से कितनी कमाई होगी, विनिवेश से कितना पैसा जुटाया जाएगा, बॉन्ड-सिक्योरिटी वगैरह का ब्योरा दिया जाता है.
दरअसल, रेवेन्यू बजट में ही खर्च और आमदनी का ब्योरा दिया जाता है. सरकार अपने ऊपर कितना खर्च करती है, नागरिकों को दी जाने वाली सेवाओं पर कितना पैसा खर्च होता है, यह ब्योरा यहां देना होता है. जाहिर है, रेवेन्यू खर्च अधिक होगा, तो रेवेन्यू घाटा भी होगा. कैपिटल बजट में सरकार की प्राप्तियों का ब्योरा होता है. कहां से पैसे आए. बॉन्ड से आए या विदेश से कर्ज लिए, आरबीआई से लिए वगैरह. इसी तरह से पूंजीगत खर्च का मतलब होता है - कितनी मशीने लगीं, कितने भवन बने, शिक्षा पर कितना खर्च किया, स्वास्थ्य सुविधा बढ़ाने के लिए क्या बनाया वगैरह.
बजट के लिए राजकोषीय घाटा महत्वपूर्ण
सरकार अपनी आमदनी यानी रेवेन्यू का अनुमान लगाती है. उसके आधार पर ही अलग-अलग योजनाओं पर खर्च करने वाली राशि का निर्धारण होता है. खर्च ज्यादा होता है, तो सरकार को ऋण लेना पड़ता है. इसे राजकोषीय घाटा कहते हैं. सरकार इसके लिए कितना ऋण ले सकती है, इसकी सीमा तय होती है. राजकोषीय घाटा को नॉमिनल जीडीपी के फीसदी में तय किया जाता है. इसलिए नॉमिनल जीडीपी ज्यादा होगी तो सरकार बाजार से ज्यादा कर्ज ले सकेगी. विस्तार से राजकोषीय घाटा के बारे में जानने के लिए यहां क्लिक करें.
आसान शब्दों में आज बजट के बारे में
बजट तीन तरह के होते हैं.
- बैलेंस बजट : सरकार की कमाई और खर्च बराबर
- सरप्लस बजट : सरकार की कमाई खर्च से ज्यादा
- डेफिसिट बजट : सरकार की कमाई खर्च से कम
महंगाई दर
जब किसी देश में वस्तुओं या सेवाओं की कीमतें सामान्य कीमतों से अधिक हो जाती हैं, तो इस स्थिति को महंगाई कहते हैं. एक निश्चित अवधि में चुनिंदा वस्तुओं या सेवाओं के मूल्य में जो वृद्धि या गिरावट आती है, इससे मुद्रास्फीति (inflation) का निर्धारण होता है. इसे जब प्रतिशत में व्यक्त करते हैं तो यह महंगाई दर कहलाती है.
- महंगाई दर का मतलब
इसके बढ़ने का मतलब करेंसी की वैल्यू गिरने से है. इससे खरीदने की क्षमता घट जाती है. खरीदने की क्षमता घटने का मतलब मांग में कमी आने से है.
- जीडीपी का मतलब जानिए
ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (जीडीपी) किसी भी देश की आर्थिक सेहत को मापने का पैमाना है. जीडीपी का आंकड़ा अर्थव्यवस्था के प्रमुख उत्पादन क्षेत्रों में उत्पादन की वृद्धि दर पर आधारित होता है.
बजट में होता है जीडीपी का जिक्र.जीडीपी को सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं. भारतीय जीडीपी में सबसे ज्यादा योगदान सर्विस सेक्टर का है. एक वित्तीय वर्ष में उपभोक्ता, व्यापार, सरकार के खर्च को जोड़ने पर जीडीपी निकलती है.
- डायरेक्ट और इन-डायरेक्ट टैक्स
डायरेक्ट टैक्स: किसी व्यक्ति और संस्थान की आय पर लगने वाला टैक्स डायरेक्ट टैक्स होता है. इसमें इनकम, कॉर्पोरेट और इनहेरिटेंस टैक्स शामिल हैं.
इन-डायरेक्ट टैक्स: गुड्स और सर्विस पर लगने वाले टैक्स इन-डायरेक्ट टैक्स होता है. इसमें कस्टम ड्यूटी (सीमा शुल्क), एक्साइज ड्यूटी (उत्पाद शुल्क), जीएसटी शामिल है.
- मौद्रिक नीति को जानते हैं क्या?
मौद्रिक नीति को मॉनिटरी पॉलिसी भी कहा जाता है. इसमें रिजर्व बैंक अर्थव्यवस्था में रुपए की आपूर्ति को कंट्रोल करता है. इससे महंगाई पर रोक लगती है. इससे आर्थिक विकास दर के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है.
- क्या होता है वित्त विधेयक
वित्त विधेयक उस विधेयक को कहते हैं, जो वित्तीय मामलों जैसे राजस्व या व्यय से संबंधित होते है. इसमें आगामी वित्तीय वर्ष में किसी नए प्रकार के कर लगाने या कर में संशोधन आदि से संबंधित विषय शामिल होते हैं. आम बजट पेश करने के तुरंत बाद बिल पास किया जाता है. उसे वित्त विधेयक (फाइनेंस बिल) कहा जाता है. वित्त विधेयक में सरकार की आय के तमाम स्रोतों को जिक्र होता है. वित्त विधेयक लागू करना सबसे अहम कदम होता है.
- विनिवेश भी है नॉन-टैक्स रेवेन्यू का जरिया
पिछले दो दशकों में बढ़ा विनिवेश या डिसइन्वेस्टमेंट का चलन केंद्र सरकार के लिए नॉन-टैक्स रेवेन्यू जुटाने का एक अच्छा जरिया है. सरकारी विनिवेश का मतलब है सार्वजनिक उपक्रमों यानी पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज में सरकारी हिस्सेदारी बेचने की प्रक्रिया.
टैक्स और नॉन- टैक्स रेवेन्यू से हुई कमाई का इस्तेमाल सरकार अपने खर्चों पर करती है. ये खर्च प्रशासनिक काम के अलावा सब्सिडी और विकास योजनाओं पर किया जाता है. अगर सरकारी खर्च उसके राजस्व से ज्यादा होता है, तो फिर उसकी भरपाई के लिए सरकार को उधार लेना पड़ता है.
- क्या होती है ग्रॉस इनकम?
ग्रॉस सैलरी वह अमाउंट होता है, जो कंपनी की तरफ से आपको सैलरी के रूप में मिलता है. ग्रॉस सैलरी में बेसिक सैलरी, एचआरए (हाउस रेंट अलाउंस), ट्रैवल अलाउंस, महंगाई भत्ता या डीए, स्पेशल अलाउंस, अन्य अलाउंस, लीव इनकैशमेंट आदि शामिल होते हैं. ग्रॉस सैलरी को टेक होम सैलरी भी कहा जाता है. टैक्सेबल इनकम की गणना के लिए ग्रॉस इनकम पता होना बहुत जरूरी है.
- क्या होती है नेट इनकम?
ग्रॉस सैलरी में से जब लीव ट्रैवल अलाउंस, हाउस रेंट अलाउंस, अर्न्ड लीव इनकैशमेंट जैसे तमाम अलाउंस को घटा दिया जाता है, तो ये आपकी नेट सैलरी बन जाती है. यह आईटीआर फॉर्म भरते समय काम आता है.
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