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बहुत कठिन है डगर प्रियंका गांधी की, कैसे साबित होंगी कांग्रेस की खेवनहार ?

कांग्रेस ने मिशन यूपी के लिए एक बार फिर प्रियंका गांधी को कमान सौंपी है. सवाल है कि क्या वो कांग्रेस के लिए इस बार तारणहार साबित होंगी ? प्रियंका के सामने कौन सी चुनौतियों का पहाड़ होगा ? और क्यों चुनाव नहीं लड़तीं हैं प्रियंका गांधी ? इन सभी सवालों का जवाब मिलेगा इस ईटीवी भारत एक्सप्लेनर में (etv bharat explainer).

priyanka gandhi
priyanka gandhi
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Published : Sep 13, 2021, 7:43 PM IST

हैदराबाद: देश की सियासत इन दिनों 2022 की शुरुआत में होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों की तैयारी में एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए है और इनमें से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, मछली की वो आंख है जिसे हर सियासी दल भेदना चाहता है. 2014 लोकसभा चुनाव से लेकर 2019 आम चुनाव और 2017 विधानसभा चुनाव तक बीजेपी ने बंपर जीत दर्ज की, उससे पहले सूबे में बारी-बारी बसपा और सपा ने राज किया लेकिन कांग्रेस उस उत्तर प्रदेश में 32 साल से सूखा झेल रही है जहां कभी उसके आगे किसी की कोई बिसात नही थी.

इस बार भी यूपी के गढ़ पर जीत का परचम लहराने के लिए कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को कमान सौंपी है. यूपी का दौरा बीच में छोड़कर प्रियंका फिलहाल दिल्ली लौट गई हैं. ऐसे में सवाल है कि क्या इस बार प्रियंका वो करिश्मा कर पाएंगी ? सियासी इतिहास और तजुर्बा तो प्रियंका के साथ नहीं है लेकिन इसके बावजूद 3 दशक से ज्यादा वक्त से सत्ता से दूर कांग्रेस को प्रियंका में ही उम्मीद क्यों नज़र आ रही है ?

ये भी पढ़ें: आखिर बीजेपी राज्यों में सीएम क्यों बदल रही है, क्या यह डैमेज कंट्रोल है ?

यूपी से प्रियंका को मिला है कड़वा अनुभव

देश के सबसे बड़े सूबे पर नजरें गढ़ाए कांग्रेस ने एक बार फिर प्रियंका गांधी पर दांव चला है. महासचिव प्रियंका गांधी को इस बार पूरे यूपी की जिम्मेदारी दी गई है. हालांकि यूपी से उन्हें कड़वे अनुभव ही नसीब हुए हैं. बीते लोकसभा चुनाव (2019) में ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी यूपी और प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौंपी गई थी.

2019 में यूपी से प्रियंका और कांग्रेस दोनों को मिली थी मायूसी
2019 में यूपी से प्रियंका और कांग्रेस दोनों को मिली थी मायूसी

यूपी में प्रियंका के उतरते ही कार्यकर्ताओं में जोश और जीत को लेकर उम्मीद की कोंपलें फूटने लगी थी. सियासी जानकार और पार्टी के आला नेताओं के बीच बेहतर नतीजों के कयास लगाए जाने लगे थे. 'प्रियंका नहीं ये आंधी है, दूसरी इंदिरा गांधी है' जैसे कई नारे गढ़े गए लेकिन सब कुछ धरे के धरे रह गए. पूरे प्रदेश में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट नसीब हुई, प्रियंका के लिए सिर्फ ये सुकून था कि रायबरेली की जिस सीट पर उनकी मां सोनिया गांधी को जीत मिली वो उनके पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही है. हालांकि भाई राहुल गांधी को अमेठी से हारने से प्रियंका गांधी भी नहीं बचा पाई.

क्यों हर बार प्रियंका पर खत्म होती है कांग्रेस की खोज ?
क्यों हर बार प्रियंका पर खत्म होती है कांग्रेस की खोज ?

इसलिये बहुत कठिन है प्रियंका की डगर

1) यूपी के बीते 3 चुनाव और कांग्रेस

उत्तर प्रदेश के सियासी रण में बीते एक दशक से कांग्रेस का हाल बेहाल है. 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पिछली बार से 6 सीटें जीतकर अपनी सीटों की संख्या 22 से 28 कर ली, 403 सीटों वाले राज्य में ये उस कांग्रेस का हाल था जो बीते करीब 10 साल से केंद्र सरकार की नुमाइंदगी कर रही थी. लेकिन कांग्रेस के लिए इससे भी बुरा दौर आना बाकी था, जिसकी शुरूआत दो साल बाद साल 2014 लोकसभा चुनाव से ही हो गई. 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की अमेठी और सोनिया गांधी की रायबरेली सीट ही बच पाई. केंद्र की सत्ता से कांग्रेस का सूपड़ा ऐसा साफ हुआ कि पूरे देश में कांग्रेस की सीटों का आंकडा़ 44 पर सिमट गया.

तीन साल बाद विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस सिर्फ 7 सीटें जीत पाई, वो भी तब जब सत्ता में काबिज समाजवादी पार्टी की साइकिल को हाथ का साथ मिला था. फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में तो यूपी में कांग्रेस का मानो सूपड़ा साफ होने को था. राहुल गांधी अमेठी सीट हार गए और सोनिया गांधी ने रायबरेली की इकलौती सीट जीतकर यूपी में कांग्रेस का खाता खोले रखा.

रायबरेली में प्रियंका ने बजरंगबली के किए दर्शन
रायबरेली में प्रियंका ने बजरंगबली के किए दर्शन

2) यूपी में पार्टी का राष्ट्रीय नहीं क्षेत्रीय दल जैसा हाल

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के मौजूदा हाल किसी क्षेत्रीय दल सरीखा है. ऐसा क्षेत्रीय दल जिसका नंबर मायावती की बसपा और अखिलेश यादव की सपा के भी कई बाद आता है. महज़ एक सांसद और सात विधायकों वाली पार्टी एक बार फिर प्रियंका के सहारे अच्छे दिन लाने का ख्वाब तो देख रही है लेकिन ये ख्वाब हकीकत से उतनी ही दूर है जितनी कांग्रेस के लिए फिलहाल दिल्ली.

3) गठबंधन को कौन होगा तैयार ?

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. बीते विधानसभा और लोकसभा चुनाव में यूपी के क्षत्रप भी कांग्रेस को तोल चुके हैं. लेकिन सवाल है कि कांग्रेस के साथ यूपी में गठबंधन करेगा कौन ? क्योंकि कांग्रेस के दरवाजे तो नए रिश्तों के लिए खुले हैं लेकिन फिलहाल कोई आस-पास नहीं फटक रहा है. अगर कल को कोई कांग्रेस के साथ रिश्ता निभाने को तैयार भी होता है तो वो रिश्ता कई शर्तों के साथ आएगा जिसमें कांग्रेस के लिए कई समझौते होंगे.

4) चेहरों और उम्मीदवारों का अकाल

अगर इस बार यूपी में गठबंधन नहीं हुआ तो कांग्रेस के लिए सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारना भी चुनौती बन जाएगा. चेहरों का अकाल तो कांग्रेस पहले से झेल रही है. कई बड़े चेहरे कांग्रेस का हाथ छोड़कर जा चुके हैं और चुनाव आने तक हालात नहीं सुधरे तो कांग्रेस के लिए और भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. बीते विधानसभा चुनाव से पहले रीता बहुगुणा जोशी और इस विधानसभा चुनाव से पहले जितिन प्रसाद जैसे चेहरे बीजेपी के साथ हो गए हैं.

5) मुस्लिम, ब्राह्मण, पिछडे़ सब कांग्रेस से दूर

गठबंधन ना होने से लेकर चेहरों के अकाल तक के पीछे सबसे बड़ी वजह यही है कि कभी उसका वोटबैंक रहे मुस्लिम, ब्राह्मण, पिछड़े धीरे-धीरे करके खिसकते गए और बीजेपी से लेकर सपा और बसपा के वोट बैंक बन गए. बची खुची कसर इस साल असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM पूरी कर सकती है.

यूपी में कांग्रेस के लिए 32 साल का सूखा दूर कर पाएंगी प्रियंका ?
यूपी में कांग्रेस के लिए 32 साल का सूखा दूर कर पाएंगी प्रियंका ?

6) कैडर कहां है ?

बीते 7 से 8 साल में बीजेपी का कार्डर देश के हर राज्य में मजबूत हुआ है. उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का संगठन मजबूत है, जिसकी बदौलत पहले 2014 लोकसभा फिर 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में यूपी में कमल खिला था. लेकिन इस दौरान कांग्रेस का कार्डर लगातार हतोत्साहित हुआ है, जो कार्यकर्ता हैं वो विधानसभा चुनाव की तस्वीर बदलने के लिए नाकाफी हैं.

7) कांग्रेस की कलह गाथा

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं है तो कलह सतह पर दिखती भी नहीं है. लेकिन राजस्थान से लेकर पंजाब तक कांग्रेस की लंबी कलह गाथा है जो हर राज्य में उसके कैडर और वोटबैंक पर असर डालती है. इसी कलह के चलते कांग्रेस मध्य प्रदेश की सरकार और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे कई चेहरों को भी गंवा चुकी है लेकिन कांग्रेस की इस कलह गाथा का अंत होता नहीं दिखता.

प्रियंका कैसे साबित होंगी कांग्रेस की खेवनहार ?
प्रियंका कैसे साबित होंगी कांग्रेस की खेवनहार ?

8) सिर्फ चुनावी मौसम में एक्टिव

बीते सात सालों में बीजेपी ने हर सियासी दल को बताया है कि सियासत 24 घंटे और बारह मास का काम है. अब वो जमाना नहीं कि चुनाव से छह महीने और साल भर पहले मैदान में उतरा जाए. लेकिन कांग्रेस की तरफ से ऐसा नहीं किया जा रहा. चुनावी मौसम में ही जिम्मेदारी और ताकत दिखाई जा रही है, बीते विधानसभा और लोकसभा चुनाव में यूपी में जो कांग्रेस का हाल हुआ उसकी जिम्मेदारी कुछ चेहरों ने ले ली, लेकिन महासचिव के नाते ना प्रियंका कहीं नजर आईं और ना राहुल गांधी.

चुनाव खत्म होते ही मानो सर्कस का टैंट उखड़ गया हो, खेल खत्म, पैसा हज़म की तरह. नतीजों के बाद ना कांग्रेस नजर आई और ना कांग्रेसी, जिसका असर कार्यकर्ताओं से लेकर पार्टी और उसके आला नेताओं की इमेज पर भी पड़ा है.

स्टार प्रचारक, महासचिव के बाद प्रियंका को मिलेगी नई जिम्मेदारी ?
स्टार प्रचारक, महासचिव के बाद प्रियंका को मिलेगी नई जिम्मेदारी ?

प्रियंका पर ही खत्म होती है कांग्रेस की खोज

बीते कुछ सालों में ऐसा कई बार हुआ है कि कांग्रेस की खोज प्रियंका पर आकर ही खत्म हुई है. खासकर उत्तर प्रदेश में, प्रियंका पहले भी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के लिए उनकी सीटों पर प्रचार करती देखी गई हैं. उससे पहले भी कुछ मंचों पर मेहमान कलाकार की हैसियत से वो नजर आई हैं लेकिन पहले साल 2019 के लोकसभा चुनाव और अब 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में उन्हें उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई है.

वैसे ये पहले भी कई बार हुआ है, फिर चाहे कांग्रेस अध्यक्ष की बात हो या फिर रूठों को मनाने की. प्रियंका गांधी को प्रमोट किया जाता रहा है. लेकिन 2019 के बाद 2022 में उन्हें पहली बार इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी गई है.

पंजाब, राजस्थान के अंदरूनी झगड़े को सुलझाने में प्रियंका ने निभाई अहम भूमिका
पंजाब, राजस्थान के अंदरूनी झगड़े को सुलझाने में प्रियंका ने निभाई अहम भूमिका

कांग्रेस की नई संकटमोचक

राजस्थान से लेकर पंजाब और इन दिनों छत्तीसगढ़ तक में अंदरूनी कलह झेल रही कांग्रेस के लिए प्रियंका गांधी ने ही संकटमोचक की भूमिका अदा की है. राजस्थान में गहलोत बनाम पायलट, पंजाब में कैप्टन बनाम सिद्धू और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल बनाम सिंहदेव तक के बीच सुलह का रास्ता खोजने का श्रेय प्रियंका गांधी को ही दिया जाता है.

इन सबके बीच मध्यप्रदेश से ज्योतिरादित्य सिंधिया और यूपी से जितिन प्रसाद को बीजेपी में जाने से प्रियंका गांधी नहीं रोक पाई. हालांकि कुछ विशेषज्ञ पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसियों के अंदरूनी झगड़ों को सुलझाने में अहम भूमिका अदा करने के लिए प्रियंका को पूरे नंबर देते हैं. इसके अलावा राज्यों के संगठन में भी अपनी राय और भागीदारी को लेकर उनकी तारीफ होती है. कई विशेषज्ञ तो अहमद पटेल के निधन के बाद प्रियंका गांधी को पार्टी का संकटमोचक बता रहे हैं.

प्रियंका के लिए बहुत मुश्किल है यूपी की डगर
प्रियंका के लिए बहुत मुश्किल है यूपी की डगर

राष्ट्रीय राजनीति और प्रियंका गांधी

प्रियंका गांधी कांग्रेस का चेहरा तो है लेकिन बीते कुछ सालों में ये सवाल उठता रहा है कि क्या प्रियंका गांधी राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर बड़ा सियासी चेहरा बन सकती है ? जिसके जरिये कांग्रेस वापसी की राह देख सकती है. कुछ सियासी जानकार मानते हैं कि इसके लिए उन्हें चुनावी रण में उतरना होगा और जीत हासिल कर खुद को साबित करना होगा. वैसे सियासत में कई ऐसे सियासतदान भी हुए हैं जो चुनावी राजनीति के बगैर या चुनावी रण से पहले भी बड़ा राजनीतिक चेहरा बने लेकिन ऐसा करने के लिए प्रियंका को कई पापड़ बेलने होंगे.

1. संगठन पर पकड़ बनानी होगी- प्रियंका गांधी भले फिलहाल महासचिव की हैसियत से यूपी की सियासी नब्ज टटोल रही हों लेकिन उन्हें अभी संगठन कौशल सीखना होगा. सिर्फ चुनावी मौसम में कुछ रोड शो और रैलियों में भाषण देने से काम नहीं चलेगा. बूथ से लेकर युवा कार्यकर्ता विंग तक अपनी पकड़ बनानी होगी, नेताओं नहीं कार्यकर्ताओं के बीच पहुंचना होगा, ताकि संगठन की कार्यशैली जानकर उसमें जरूरी और बेहतर बदलाव किए जा सकें.

कांग्रेस का बड़ा चेहरा होने के नाते युवाओं को पार्टी के साथ जोड़ने से लेकर उनके कार्यक्रमों में शिरकत करके उनका मनोबल और जोश बढ़ाने में भी भूमिका निभानी होगी. संगठन द्वारा आयोजित प्रदर्शन और मोर्चों में भी शिरकत कर अपनी भागीदारी और जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी.

प्रियंका के आगे हैं चुनौतियों का पहाड़ ?
प्रियंका के आगे हैं चुनौतियों का पहाड़ ?

2. अपनी अलग छवि बनानी होगी- प्रियंका गांधी को अपनी अलग छवि बनानी होगी. अब तक उन्हें गांधी परिवार की बेटी के रूप में देखा गया है. इंदिरा गांधी के अक्स के रूप में उनको प्रोजेक्ट करना भी छोड़ना होगा. कांग्रेस और प्रियंका दोनों को समझना होगा कि आज 18 साल से 35 साल के जो वोटर राज्य और देश की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं. उन्होंने ना तो कभी इंदिरा गांधी को देखा और ना ही उनके दौर को, ऐसे में प्रियंका को अपनी अलग छवि बनानी होगी.

3. मौसमी नहीं सदाबहार नेता- कांग्रेस प्रियंका गांधी को चुनावी मौसम में ही इस्तेमाल करती है. वो आज तक बिना पद के, गांधी परिवार की बेटी के नाते ही भाषण देती रही हैं. लेकिन अब वो पार्टी की महासचिव हैं ऐसे में उन्हें चुनावी मौसम में दिखने वाले नेता की छवि को तोड़ना होगा. उनकी नुमाइंदगी में बीते लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिली हार के बाद वो नजर नहीं आई और अब फिर से एक्टिव दिखने लगी हैं.

4. सोशल मीडिया से ज्यादा समाज के बीच पहुंचना- प्रियंका गांधी केंद्र और राज्य की विरोधी सरकारों और दलों को घेरने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेती हैं. लेकिन उन्हें सोशल मीडिया से ज्यादा समाज के बीच पहुंचना होगा. एक नेता और एक राष्ट्रीय पार्टी का नुमाइंदा होने के नाते उन्हें लोगों के बीच अपनी पहुंच बनानी होगी.

चुनावी राजनीति से प्रियंका की दूरी क्यों ?

प्रियंका गांधी स्टार प्रचारक से लेकर महासचिव तक की भूमिका अदा कर चुकी हैं और अब भी पार्टी के कई फैसलों में उनकी भागीदारी होती है. अध्यक्ष पद पर नाम की चर्चा हो या कांग्रेसियों के मनमुटाव को दूर करने की बात, प्रियंका गांधी का जिक्र होना बीते कुछ सालों से आम हो चला है. पहले उन्हें बिना पद के जवाबदेही के फैसले लेने की ताकत थी, अब उन्हें बकायदा पद और जिम्मेदारी भी दी गई है. लेकिन कई लोग सवाल उठाते हैं कि प्रियंका पर्दे के पीछे या बैकडोर वाली सियासत कब तक करेंगी आखिर क्यों वो चुनावी राजनीति में नहीं उतरती ?

साल 2019 में यूपी कांग्रेस का एक धड़ा प्रियंका गांधी को पीएम मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़वाना चाहता था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. सियासी रण से प्रियंका के परहेज की सियासी जानकार कई वजह मानते हैं.

चुनावी रण में क्यों नहीं उतरती प्रियंका गांधी
चुनावी रण में क्यों नहीं उतरती प्रियंका गांधी

राजनीतिक विश्लेषक, नीरजा चौधरी कहती हैं कि प्रियंका को आगे करने के सवाल पर एक धड़ा बहुत खुश होता है लेकिन सोनिया गांधी सिर्फ राहुल गांधी को चाहती हैं और प्रियंका के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती है. उन्हें अब तक सिर्फ बिना जवाबदेही के फैसले लेने की ही ताकत दी गई है.

राजनीतिक विश्लेषक, पीएन द्विवेदी के मुताबिक कांग्रेस अभी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है. 1989 के बाद से कांग्रेस यूपी में वनवास भोग रही है. चुनाव नजदीक आने पर कांग्रेस की कवायद में कार्यकर्ता शामिल होंगे तो माना जाएगा कि कांग्रेस में जान आ रही है वरना यूपी में कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब है. ऐसे में प्रियंका के लिए चीजें आसान नहीं है.

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक प्रियंका गांधी को उस दौर में छिटपुट जिम्मेदारियां दी जा रही हैं जहां कांग्रेस के पास करने, खोने या पाने के लिए बहुत कुछ नहीं है. प्रियंका को कांग्रेस एक ब्रांड की तरह प्रोजेक्ट तो करती है लेकिन चुनावी रण में प्रियंका के फेल होने पर ब्रांड प्रियंका की अहमियत खत्म हो सकती है और गुब्बारा फूट सकता है.

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हैदराबाद: देश की सियासत इन दिनों 2022 की शुरुआत में होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों की तैयारी में एड़ी चोटी का जोर लगाए हुए है और इनमें से उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, मछली की वो आंख है जिसे हर सियासी दल भेदना चाहता है. 2014 लोकसभा चुनाव से लेकर 2019 आम चुनाव और 2017 विधानसभा चुनाव तक बीजेपी ने बंपर जीत दर्ज की, उससे पहले सूबे में बारी-बारी बसपा और सपा ने राज किया लेकिन कांग्रेस उस उत्तर प्रदेश में 32 साल से सूखा झेल रही है जहां कभी उसके आगे किसी की कोई बिसात नही थी.

इस बार भी यूपी के गढ़ पर जीत का परचम लहराने के लिए कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को कमान सौंपी है. यूपी का दौरा बीच में छोड़कर प्रियंका फिलहाल दिल्ली लौट गई हैं. ऐसे में सवाल है कि क्या इस बार प्रियंका वो करिश्मा कर पाएंगी ? सियासी इतिहास और तजुर्बा तो प्रियंका के साथ नहीं है लेकिन इसके बावजूद 3 दशक से ज्यादा वक्त से सत्ता से दूर कांग्रेस को प्रियंका में ही उम्मीद क्यों नज़र आ रही है ?

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यूपी से प्रियंका को मिला है कड़वा अनुभव

देश के सबसे बड़े सूबे पर नजरें गढ़ाए कांग्रेस ने एक बार फिर प्रियंका गांधी पर दांव चला है. महासचिव प्रियंका गांधी को इस बार पूरे यूपी की जिम्मेदारी दी गई है. हालांकि यूपी से उन्हें कड़वे अनुभव ही नसीब हुए हैं. बीते लोकसभा चुनाव (2019) में ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी यूपी और प्रियंका गांधी को पूर्वी यूपी की कमान सौंपी गई थी.

2019 में यूपी से प्रियंका और कांग्रेस दोनों को मिली थी मायूसी
2019 में यूपी से प्रियंका और कांग्रेस दोनों को मिली थी मायूसी

यूपी में प्रियंका के उतरते ही कार्यकर्ताओं में जोश और जीत को लेकर उम्मीद की कोंपलें फूटने लगी थी. सियासी जानकार और पार्टी के आला नेताओं के बीच बेहतर नतीजों के कयास लगाए जाने लगे थे. 'प्रियंका नहीं ये आंधी है, दूसरी इंदिरा गांधी है' जैसे कई नारे गढ़े गए लेकिन सब कुछ धरे के धरे रह गए. पूरे प्रदेश में कांग्रेस को सिर्फ एक सीट नसीब हुई, प्रियंका के लिए सिर्फ ये सुकून था कि रायबरेली की जिस सीट पर उनकी मां सोनिया गांधी को जीत मिली वो उनके पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही है. हालांकि भाई राहुल गांधी को अमेठी से हारने से प्रियंका गांधी भी नहीं बचा पाई.

क्यों हर बार प्रियंका पर खत्म होती है कांग्रेस की खोज ?
क्यों हर बार प्रियंका पर खत्म होती है कांग्रेस की खोज ?

इसलिये बहुत कठिन है प्रियंका की डगर

1) यूपी के बीते 3 चुनाव और कांग्रेस

उत्तर प्रदेश के सियासी रण में बीते एक दशक से कांग्रेस का हाल बेहाल है. 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने पिछली बार से 6 सीटें जीतकर अपनी सीटों की संख्या 22 से 28 कर ली, 403 सीटों वाले राज्य में ये उस कांग्रेस का हाल था जो बीते करीब 10 साल से केंद्र सरकार की नुमाइंदगी कर रही थी. लेकिन कांग्रेस के लिए इससे भी बुरा दौर आना बाकी था, जिसकी शुरूआत दो साल बाद साल 2014 लोकसभा चुनाव से ही हो गई. 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की अमेठी और सोनिया गांधी की रायबरेली सीट ही बच पाई. केंद्र की सत्ता से कांग्रेस का सूपड़ा ऐसा साफ हुआ कि पूरे देश में कांग्रेस की सीटों का आंकडा़ 44 पर सिमट गया.

तीन साल बाद विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस सिर्फ 7 सीटें जीत पाई, वो भी तब जब सत्ता में काबिज समाजवादी पार्टी की साइकिल को हाथ का साथ मिला था. फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में तो यूपी में कांग्रेस का मानो सूपड़ा साफ होने को था. राहुल गांधी अमेठी सीट हार गए और सोनिया गांधी ने रायबरेली की इकलौती सीट जीतकर यूपी में कांग्रेस का खाता खोले रखा.

रायबरेली में प्रियंका ने बजरंगबली के किए दर्शन
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2) यूपी में पार्टी का राष्ट्रीय नहीं क्षेत्रीय दल जैसा हाल

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के मौजूदा हाल किसी क्षेत्रीय दल सरीखा है. ऐसा क्षेत्रीय दल जिसका नंबर मायावती की बसपा और अखिलेश यादव की सपा के भी कई बाद आता है. महज़ एक सांसद और सात विधायकों वाली पार्टी एक बार फिर प्रियंका के सहारे अच्छे दिन लाने का ख्वाब तो देख रही है लेकिन ये ख्वाब हकीकत से उतनी ही दूर है जितनी कांग्रेस के लिए फिलहाल दिल्ली.

3) गठबंधन को कौन होगा तैयार ?

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति किसी से छिपी नहीं है. बीते विधानसभा और लोकसभा चुनाव में यूपी के क्षत्रप भी कांग्रेस को तोल चुके हैं. लेकिन सवाल है कि कांग्रेस के साथ यूपी में गठबंधन करेगा कौन ? क्योंकि कांग्रेस के दरवाजे तो नए रिश्तों के लिए खुले हैं लेकिन फिलहाल कोई आस-पास नहीं फटक रहा है. अगर कल को कोई कांग्रेस के साथ रिश्ता निभाने को तैयार भी होता है तो वो रिश्ता कई शर्तों के साथ आएगा जिसमें कांग्रेस के लिए कई समझौते होंगे.

4) चेहरों और उम्मीदवारों का अकाल

अगर इस बार यूपी में गठबंधन नहीं हुआ तो कांग्रेस के लिए सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारना भी चुनौती बन जाएगा. चेहरों का अकाल तो कांग्रेस पहले से झेल रही है. कई बड़े चेहरे कांग्रेस का हाथ छोड़कर जा चुके हैं और चुनाव आने तक हालात नहीं सुधरे तो कांग्रेस के लिए और भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं. बीते विधानसभा चुनाव से पहले रीता बहुगुणा जोशी और इस विधानसभा चुनाव से पहले जितिन प्रसाद जैसे चेहरे बीजेपी के साथ हो गए हैं.

5) मुस्लिम, ब्राह्मण, पिछडे़ सब कांग्रेस से दूर

गठबंधन ना होने से लेकर चेहरों के अकाल तक के पीछे सबसे बड़ी वजह यही है कि कभी उसका वोटबैंक रहे मुस्लिम, ब्राह्मण, पिछड़े धीरे-धीरे करके खिसकते गए और बीजेपी से लेकर सपा और बसपा के वोट बैंक बन गए. बची खुची कसर इस साल असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM पूरी कर सकती है.

यूपी में कांग्रेस के लिए 32 साल का सूखा दूर कर पाएंगी प्रियंका ?
यूपी में कांग्रेस के लिए 32 साल का सूखा दूर कर पाएंगी प्रियंका ?

6) कैडर कहां है ?

बीते 7 से 8 साल में बीजेपी का कार्डर देश के हर राज्य में मजबूत हुआ है. उत्तर प्रदेश में भी पार्टी का संगठन मजबूत है, जिसकी बदौलत पहले 2014 लोकसभा फिर 2017 विधानसभा और 2019 लोकसभा चुनाव में यूपी में कमल खिला था. लेकिन इस दौरान कांग्रेस का कार्डर लगातार हतोत्साहित हुआ है, जो कार्यकर्ता हैं वो विधानसभा चुनाव की तस्वीर बदलने के लिए नाकाफी हैं.

7) कांग्रेस की कलह गाथा

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं है तो कलह सतह पर दिखती भी नहीं है. लेकिन राजस्थान से लेकर पंजाब तक कांग्रेस की लंबी कलह गाथा है जो हर राज्य में उसके कैडर और वोटबैंक पर असर डालती है. इसी कलह के चलते कांग्रेस मध्य प्रदेश की सरकार और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे कई चेहरों को भी गंवा चुकी है लेकिन कांग्रेस की इस कलह गाथा का अंत होता नहीं दिखता.

प्रियंका कैसे साबित होंगी कांग्रेस की खेवनहार ?
प्रियंका कैसे साबित होंगी कांग्रेस की खेवनहार ?

8) सिर्फ चुनावी मौसम में एक्टिव

बीते सात सालों में बीजेपी ने हर सियासी दल को बताया है कि सियासत 24 घंटे और बारह मास का काम है. अब वो जमाना नहीं कि चुनाव से छह महीने और साल भर पहले मैदान में उतरा जाए. लेकिन कांग्रेस की तरफ से ऐसा नहीं किया जा रहा. चुनावी मौसम में ही जिम्मेदारी और ताकत दिखाई जा रही है, बीते विधानसभा और लोकसभा चुनाव में यूपी में जो कांग्रेस का हाल हुआ उसकी जिम्मेदारी कुछ चेहरों ने ले ली, लेकिन महासचिव के नाते ना प्रियंका कहीं नजर आईं और ना राहुल गांधी.

चुनाव खत्म होते ही मानो सर्कस का टैंट उखड़ गया हो, खेल खत्म, पैसा हज़म की तरह. नतीजों के बाद ना कांग्रेस नजर आई और ना कांग्रेसी, जिसका असर कार्यकर्ताओं से लेकर पार्टी और उसके आला नेताओं की इमेज पर भी पड़ा है.

स्टार प्रचारक, महासचिव के बाद प्रियंका को मिलेगी नई जिम्मेदारी ?
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प्रियंका पर ही खत्म होती है कांग्रेस की खोज

बीते कुछ सालों में ऐसा कई बार हुआ है कि कांग्रेस की खोज प्रियंका पर आकर ही खत्म हुई है. खासकर उत्तर प्रदेश में, प्रियंका पहले भी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल गांधी के लिए उनकी सीटों पर प्रचार करती देखी गई हैं. उससे पहले भी कुछ मंचों पर मेहमान कलाकार की हैसियत से वो नजर आई हैं लेकिन पहले साल 2019 के लोकसभा चुनाव और अब 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में उन्हें उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई है.

वैसे ये पहले भी कई बार हुआ है, फिर चाहे कांग्रेस अध्यक्ष की बात हो या फिर रूठों को मनाने की. प्रियंका गांधी को प्रमोट किया जाता रहा है. लेकिन 2019 के बाद 2022 में उन्हें पहली बार इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी गई है.

पंजाब, राजस्थान के अंदरूनी झगड़े को सुलझाने में प्रियंका ने निभाई अहम भूमिका
पंजाब, राजस्थान के अंदरूनी झगड़े को सुलझाने में प्रियंका ने निभाई अहम भूमिका

कांग्रेस की नई संकटमोचक

राजस्थान से लेकर पंजाब और इन दिनों छत्तीसगढ़ तक में अंदरूनी कलह झेल रही कांग्रेस के लिए प्रियंका गांधी ने ही संकटमोचक की भूमिका अदा की है. राजस्थान में गहलोत बनाम पायलट, पंजाब में कैप्टन बनाम सिद्धू और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल बनाम सिंहदेव तक के बीच सुलह का रास्ता खोजने का श्रेय प्रियंका गांधी को ही दिया जाता है.

इन सबके बीच मध्यप्रदेश से ज्योतिरादित्य सिंधिया और यूपी से जितिन प्रसाद को बीजेपी में जाने से प्रियंका गांधी नहीं रोक पाई. हालांकि कुछ विशेषज्ञ पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसियों के अंदरूनी झगड़ों को सुलझाने में अहम भूमिका अदा करने के लिए प्रियंका को पूरे नंबर देते हैं. इसके अलावा राज्यों के संगठन में भी अपनी राय और भागीदारी को लेकर उनकी तारीफ होती है. कई विशेषज्ञ तो अहमद पटेल के निधन के बाद प्रियंका गांधी को पार्टी का संकटमोचक बता रहे हैं.

प्रियंका के लिए बहुत मुश्किल है यूपी की डगर
प्रियंका के लिए बहुत मुश्किल है यूपी की डगर

राष्ट्रीय राजनीति और प्रियंका गांधी

प्रियंका गांधी कांग्रेस का चेहरा तो है लेकिन बीते कुछ सालों में ये सवाल उठता रहा है कि क्या प्रियंका गांधी राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर बड़ा सियासी चेहरा बन सकती है ? जिसके जरिये कांग्रेस वापसी की राह देख सकती है. कुछ सियासी जानकार मानते हैं कि इसके लिए उन्हें चुनावी रण में उतरना होगा और जीत हासिल कर खुद को साबित करना होगा. वैसे सियासत में कई ऐसे सियासतदान भी हुए हैं जो चुनावी राजनीति के बगैर या चुनावी रण से पहले भी बड़ा राजनीतिक चेहरा बने लेकिन ऐसा करने के लिए प्रियंका को कई पापड़ बेलने होंगे.

1. संगठन पर पकड़ बनानी होगी- प्रियंका गांधी भले फिलहाल महासचिव की हैसियत से यूपी की सियासी नब्ज टटोल रही हों लेकिन उन्हें अभी संगठन कौशल सीखना होगा. सिर्फ चुनावी मौसम में कुछ रोड शो और रैलियों में भाषण देने से काम नहीं चलेगा. बूथ से लेकर युवा कार्यकर्ता विंग तक अपनी पकड़ बनानी होगी, नेताओं नहीं कार्यकर्ताओं के बीच पहुंचना होगा, ताकि संगठन की कार्यशैली जानकर उसमें जरूरी और बेहतर बदलाव किए जा सकें.

कांग्रेस का बड़ा चेहरा होने के नाते युवाओं को पार्टी के साथ जोड़ने से लेकर उनके कार्यक्रमों में शिरकत करके उनका मनोबल और जोश बढ़ाने में भी भूमिका निभानी होगी. संगठन द्वारा आयोजित प्रदर्शन और मोर्चों में भी शिरकत कर अपनी भागीदारी और जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी होगी.

प्रियंका के आगे हैं चुनौतियों का पहाड़ ?
प्रियंका के आगे हैं चुनौतियों का पहाड़ ?

2. अपनी अलग छवि बनानी होगी- प्रियंका गांधी को अपनी अलग छवि बनानी होगी. अब तक उन्हें गांधी परिवार की बेटी के रूप में देखा गया है. इंदिरा गांधी के अक्स के रूप में उनको प्रोजेक्ट करना भी छोड़ना होगा. कांग्रेस और प्रियंका दोनों को समझना होगा कि आज 18 साल से 35 साल के जो वोटर राज्य और देश की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं. उन्होंने ना तो कभी इंदिरा गांधी को देखा और ना ही उनके दौर को, ऐसे में प्रियंका को अपनी अलग छवि बनानी होगी.

3. मौसमी नहीं सदाबहार नेता- कांग्रेस प्रियंका गांधी को चुनावी मौसम में ही इस्तेमाल करती है. वो आज तक बिना पद के, गांधी परिवार की बेटी के नाते ही भाषण देती रही हैं. लेकिन अब वो पार्टी की महासचिव हैं ऐसे में उन्हें चुनावी मौसम में दिखने वाले नेता की छवि को तोड़ना होगा. उनकी नुमाइंदगी में बीते लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मिली हार के बाद वो नजर नहीं आई और अब फिर से एक्टिव दिखने लगी हैं.

4. सोशल मीडिया से ज्यादा समाज के बीच पहुंचना- प्रियंका गांधी केंद्र और राज्य की विरोधी सरकारों और दलों को घेरने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेती हैं. लेकिन उन्हें सोशल मीडिया से ज्यादा समाज के बीच पहुंचना होगा. एक नेता और एक राष्ट्रीय पार्टी का नुमाइंदा होने के नाते उन्हें लोगों के बीच अपनी पहुंच बनानी होगी.

चुनावी राजनीति से प्रियंका की दूरी क्यों ?

प्रियंका गांधी स्टार प्रचारक से लेकर महासचिव तक की भूमिका अदा कर चुकी हैं और अब भी पार्टी के कई फैसलों में उनकी भागीदारी होती है. अध्यक्ष पद पर नाम की चर्चा हो या कांग्रेसियों के मनमुटाव को दूर करने की बात, प्रियंका गांधी का जिक्र होना बीते कुछ सालों से आम हो चला है. पहले उन्हें बिना पद के जवाबदेही के फैसले लेने की ताकत थी, अब उन्हें बकायदा पद और जिम्मेदारी भी दी गई है. लेकिन कई लोग सवाल उठाते हैं कि प्रियंका पर्दे के पीछे या बैकडोर वाली सियासत कब तक करेंगी आखिर क्यों वो चुनावी राजनीति में नहीं उतरती ?

साल 2019 में यूपी कांग्रेस का एक धड़ा प्रियंका गांधी को पीएम मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़वाना चाहता था लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. सियासी रण से प्रियंका के परहेज की सियासी जानकार कई वजह मानते हैं.

चुनावी रण में क्यों नहीं उतरती प्रियंका गांधी
चुनावी रण में क्यों नहीं उतरती प्रियंका गांधी

राजनीतिक विश्लेषक, नीरजा चौधरी कहती हैं कि प्रियंका को आगे करने के सवाल पर एक धड़ा बहुत खुश होता है लेकिन सोनिया गांधी सिर्फ राहुल गांधी को चाहती हैं और प्रियंका के लिए ये सबसे बड़ी चुनौती है. उन्हें अब तक सिर्फ बिना जवाबदेही के फैसले लेने की ही ताकत दी गई है.

राजनीतिक विश्लेषक, पीएन द्विवेदी के मुताबिक कांग्रेस अभी अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रही है. 1989 के बाद से कांग्रेस यूपी में वनवास भोग रही है. चुनाव नजदीक आने पर कांग्रेस की कवायद में कार्यकर्ता शामिल होंगे तो माना जाएगा कि कांग्रेस में जान आ रही है वरना यूपी में कांग्रेस की स्थिति बहुत खराब है. ऐसे में प्रियंका के लिए चीजें आसान नहीं है.

कुछ राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक प्रियंका गांधी को उस दौर में छिटपुट जिम्मेदारियां दी जा रही हैं जहां कांग्रेस के पास करने, खोने या पाने के लिए बहुत कुछ नहीं है. प्रियंका को कांग्रेस एक ब्रांड की तरह प्रोजेक्ट तो करती है लेकिन चुनावी रण में प्रियंका के फेल होने पर ब्रांड प्रियंका की अहमियत खत्म हो सकती है और गुब्बारा फूट सकता है.

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