टीकमगढ़: एक आम इंसान, जिसने सादगी के दम पर पूरी दुनिया को अपना मुरीद बना लिया, अहिंसा के जरिये बड़े से बड़ों को घुटनों पर ला दिया. बेसहारों को सहारा देने वाले इस महात्मा को लोग गांधी के नाम से जानते हैं, जिनके विचारों को आज भी दुनिया आत्मसात कर रही है. मौजूदा दौर में गांधी सिर्फ एक नाम ही नहीं बल्कि एक विचार बन चुका है. इस बार देश बापू की 150वीं जयंती मना रहा है. ऐसे में देश के जर्रे-जर्रे में बसी बापू की यादों से आवाम को रूबरू कराया जा रहा है.
धन्य हुई उस धरा की मिट्टी, जहां आपके कदम पड़े, धन्य हो गया वह मानव, जिसके तुम आदर्श बने. जब अहिंसा के अस्त्र से गांधीजी गुलामी की बेड़ियां काटने की कोशिश कर रहे थे, तब उनके पीछे लोगों का कारवां चल पड़ा था. ओर से छोर तक लोग गांधीजी का साथ देने के लिए उतावले हो रहे थे, उनके साथ आजादी की जंग में वो लोग शरीक होना चाहते थे. जो आजादी के लिए अपनी कुर्बानी तक देने को तैयार थे, तब दुर्गा प्रसाद शर्मा ने भी बापू को पत्र लिखकर उनके साथ कदमताल करने की इच्छा जताई थी.
गांधीजी जब जर्रे-जर्रे में आजादी की अलख जगा रहे थे, उसी दौरान वह 1930 में झांसी गये थे, जहां उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने का आवाम से आह्वान किया था. जिसके बाद दुर्गा प्रसाद शर्मा ने गांधीजी को पत्र लिखकर आंदोलन से जुड़ने की इच्छा जताई थी, जिसका जवाब भी गांधीजी ने अपने सचिव से पत्र के माध्यम से भिजवाया था, जिसमें उन्होंने ज्यादा से ज्यादा युवाओं को इस आंदोलन से जोड़ने की अपील की थी. जिसे आज भी बतौर विरासत दुर्गा प्रसाद की बहू मनोरमा देवी सहेज रही हैं. जिसे देख आज भी उस दौर की यादें ताजा हो जाती हैं और ये पत्र गांधीजी की याद दिलाता रहता है.
गांधीजी ने जवाबी पत्र में लिखा था, आपको राजस्थान-दिल्ली-मुंबई आने की जरूरत नहीं है, बल्कि आप बुन्देलखण्ड में रहकर आंदोलन करें और एक बेहतरीन ऊर्जावान लोगों की टीम तैयार कर देश की आजादी में सहयोग करें, जिसके बाद रणनीति तैयार कर गांधीजी के निर्देशन में उन्होंने काम शुरु किया, जिसे आखिरी सांस तक करते रहे. गांधीजी के व्यक्तित्व का ही कमाल था कि इस आंदोलन के लिए बड़ी संख्या में लोग कुर्बानी देने को तैयार हो गये.
गांधीजी ने जब आह्वान किया कि इस आंदोलन के लिए धन का इंतजाम भी आप लोगों को ही करना है, तब मनोरमा देवी की मां देवका देवी पाठक ने भी अपनी नाक की कील दान कर कुर्बानी देने निकल पड़ीं क्योंकि उस वक्त मनोरमा के पिता चतुर्भुज पाठक भूमिगत थे, इसलिए उनकी मां ने नेतृत्व किया. मनोरमा शर्मा का पूरा परिवार गांधीजी विचार धारा से प्रेरित है, उनके पिता चतुर्भुज पाठक भी आजादी के आंदोलन में सक्रिय थे और 1972 में चंबल के डाकुओं का आत्मसमर्पण भी करवाया था. जिसके चलते कई डाकू हिंसा का रास्ता छोड़ अहिंसा के रास्ते पर चल पड़े थे और महात्मा गांधी की विचारधारा को आत्मसात कर लिया था.