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आजाद रहना ही 'हो' आदिवासियों की है पहचान, अंग्रेज भी गुलाम बनाने में रहे थे नाकाम

हो' समुदाय की अपनी संस्कृति है और इनका अपना अलग ही रीति रिवाज है. इनकी धार्मिक मान्यताएं कुछ अलग होती है. ये लोग मंदिर में स्थापित देवी देवताओं की पूजा अर्चना नहीं करते हैं, बल्कि ये लोग  अपने गांव के देवता 'देशाउलि' को अपना भगवान मानते हैं.

हो' आदिवासियों की है अलग पहचान
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Published : Aug 9, 2019, 8:17 PM IST

चाईबासा: भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक हैं 'हो' समुदाय, जिसने कभी गुलामी स्वीकार नहीं की. 1831-32 में बुंडू तमाड़ से कोल विद्रोह की शुरुआत मानकियो के नेतृत्व में किया गया था, जिसके बाद 1837 में अंग्रेजों ने कोल्हान की धरती पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश की.

देखें स्पेशल स्टोरी

कई राजा महाराजाओं के अलावा अंग्रेजों के साथ लोहा लेने वाले वीर 'हो' योद्धाओं ने गुलामी करने से बेहतर निडर होकर अंग्रेजों से मैदान में युद्ध लड़ना जरूरी समझा और युद्ध के मैदान में अंग्रेजों को नाकों तले चना चबवा दिया था. जिसके बाद से अंग्रेजों ने कूटनीति के तहत हुकुमनामा और विलकिन्सन रूल लागू किया था.

इसे भी पढ़ें:- झारखंड के 31 स्थानों को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल के रूप में मिली पहचान, सौंदर्यीकरण में लगेंगे 2.15 करोड़

'हो' समुदाय झारखंड राज्य के सिंहभूम जिले के साथ-साथ पड़ोसी राज्य ओडिशा के क्योंझर, मयूरभंज, जाजपुर जिलों में बसी हुई है. झारखंड में यह मुख्यतः पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम में सबसे ज्यादा बसे हुए हैं. झारखंड में इनका आगमन मुंडाओं के साथ हुआ था. हो, मुंडा और संथाली समुदाय स्वतंत्र रूप से इन इलाकों में निवासी थे. इनकी प्रजाति प्रोटो ऑस्ट्रेलायड है, जो मुंडारी से मिलती है.

प्रकृति के उपासक
'हो' समुदाय की अपनी संस्कृति है और इनका अपना अलग ही रीति रिवाज है. इनकी धार्मिक मान्यताएं कुछ अलग होती हैं. ये लोग प्रकृति के उपासक होते हैं. इनके अपने-अपने गोत्र के कुल देवता होते हैं. 'हो' समुदाय के लोग मंदिर में स्थापित देवी देवताओं की पूजा अर्चना नहीं करते हैं. बल्कि ये लोग अपने गांव के देवता 'देशाउलि' को अपना भगवान मानते हैं. प्रत्येक वर्ष माघे पर्व के अवसर पर बलि चढ़ाकर ग्राम पुजारी दिउरी के द्वारा इनकी पूजा की जाती है. साथ ही गांव के सभी लोग पूजा स्थान पर एकत्रित होकर अपने गांव के देवता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

गांव और पहाड़ों के नाम मुंडारी होते हैं
'हो' समुदाय के गांव के बीच में अखाड़ा होता है. अखाड़ा ज्यादातर मुंडा मानकी टोला में ही होते हैं. जो किसी पेड़ के नीचे होता है. गांव की आम सभा या ग्राम सभा के पंचायत की बैठकें यहीं पर लगाई जाती हैं. 'हो' आदिवासी के गांव और पहाड़ों के नाम मुंडारी में होते हैं, जैसे किरीबुरू, मरांगबुरू, चारुबुरु आदि. इनके घरों के एक कोने में पूर्वजों का पवित्र स्थान होता है जिसे आदिक कहते हैं.

जीविका का मुख्य साधन खेती
'हो' समुदाय के लोगों की जीविका का मुख्य साधन खेती है और मुख्य फसल धान है. लगभग हर किसान के पास हल - बैल होते हैं और वे वर्षा पर आधारित कृषि करते हैं. इसके साथ ही इनके जीवन में वनों और शिकार का भी बहुत महत्व है. इनके जीवन में हाट बाजार का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. जहां ये अपनी जरूरतों की चीजों को खरीदते और बेचने के साथ एक दूसरे से मिलने जुलने का भी काम करते हैं.

कई राजाओं ने इन्हें अपने अधीन करने के किये थे प्रयास
'हो' बहुल कोल्हान क्षेत्र किसी राजतंत्र के अधीन कभी नहीं रहा. इनका जीवन स्वाधीन था. इनकी पहचान पराक्रमी योद्धाओं के रूप में थी. इनकी धनुष से निकला तीर निशान कभी नहीं चूकता था. पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह और कई अन्य राजाओं ने इन क्षेत्रों को अपने अधीन करने के लिए कई कई बार प्रयास किया, लेकिन 'हो' समुदाय के लोगों ने इन्हें खदेड़ कर इनके छक्के छुड़ा दिए. 'हो' आदिवासियों के जीवन में एक ही सोच एक ही सिद्धांत था पराधीनता से अच्छी है मौत.

अंग्रेजों की सेनाओं को खदेड़ा था
इतिहास बताता है कि इनके रण कौशल ने अंग्रेजों की सेनाओं को जगन्नाथपुर, हाट गम्हरिया, कोचड़ा, पुखरिया, चैनपुर आदि जगहों में पीठ दिखाकर भागने को विवश कर दिया था. जब सारा भारत गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था तब केवल 'हो' समुदाय ही आजादी की सांस ले रहा था. 'हो' आदिवासियों को कई बार अंग्रेजों ने अपने अधीन रखने का प्रयास किया परंतु हर बार उन्हें करारा जवाब मिला

'हो' योद्धाओं ने राजा अर्जुन सिंह को नाकों चने चबवा दिए थे
पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह के सैनिकों को 1837 में सेरेंगसिया घाटी में 'हो' योद्धाओं ने नाकों चने चबवा दिये थे. 19 नवंबर 1837 में चोएंबसा ( वर्तमान में पुरानी चाईबासा) में घमासान लड़ाई हुई. जिसमें अंग्रेजों ने राजाबासा, पूर्णिया इलाकों से कई "हो" योद्धाओं को पकड़ा था और इन योद्धाओं को चाईबासा जेल के सामने एक विशाल बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई थी. स्वतंत्रता के बाद स्थानीय हो समुदाय के लोगों द्वारा भारत सरकार से इन शहीदों के स्थान पर पार्क बनवाने के आग्रह किया गया था, जहां आज बस पड़ाव है.

'हो' समुदाय की अपनी लिपि
'हो' समुदाय की अपनी अलग भाषा है जिसे 'हो' भाषा के नाम से जाना जाता है. यही इनकी मातृभाषा भी है इनकी अपनी लिपि वरंग क्षिति लिपि है. इस समुदाय के लोगों की सभी बातों में समानता पाई जाती है, इनके घर बनाने का तरीका घरों की रूपरेखा में भी एक पहचान होती है.

पेय पदार्थ डियांग (हड़िया) और प्रिय भोजन चावल
'हो' समुदाय के लोगों का पहनावा, चाल-ढाल आदि में भी एकरूपता पाई जाती है. यह साफ सुथरा रहना पसंद करते हैं. घरों और उसके आसपास भी साफ सुथरा रखते हैं. इनका पेय पदार्थ डियांग ( हड़िया) होता है इनका प्रिय भोजन चावल है साथ ही मांस मछली आदि भी शिकार कर बड़े चाव से खाते हैं.

झारखंड सरकार आदिवासी समुदाय के विकास को लेकर कई योजनाएं चला रही हैं. समुदाय के लोगों को इसका लाभ भी मिल रहा है. अगर राज्य सरकार के सभी योजनाओं का लाभ आदिवासी समुदाय के लोगों को पूरी तरह से मिलने लगे तो बहुत जल्द ये लोग भी समाज के मुख्य धारा से जुड़ जाएंगे.

चाईबासा: भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक हैं 'हो' समुदाय, जिसने कभी गुलामी स्वीकार नहीं की. 1831-32 में बुंडू तमाड़ से कोल विद्रोह की शुरुआत मानकियो के नेतृत्व में किया गया था, जिसके बाद 1837 में अंग्रेजों ने कोल्हान की धरती पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश की.

देखें स्पेशल स्टोरी

कई राजा महाराजाओं के अलावा अंग्रेजों के साथ लोहा लेने वाले वीर 'हो' योद्धाओं ने गुलामी करने से बेहतर निडर होकर अंग्रेजों से मैदान में युद्ध लड़ना जरूरी समझा और युद्ध के मैदान में अंग्रेजों को नाकों तले चना चबवा दिया था. जिसके बाद से अंग्रेजों ने कूटनीति के तहत हुकुमनामा और विलकिन्सन रूल लागू किया था.

इसे भी पढ़ें:- झारखंड के 31 स्थानों को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल के रूप में मिली पहचान, सौंदर्यीकरण में लगेंगे 2.15 करोड़

'हो' समुदाय झारखंड राज्य के सिंहभूम जिले के साथ-साथ पड़ोसी राज्य ओडिशा के क्योंझर, मयूरभंज, जाजपुर जिलों में बसी हुई है. झारखंड में यह मुख्यतः पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम में सबसे ज्यादा बसे हुए हैं. झारखंड में इनका आगमन मुंडाओं के साथ हुआ था. हो, मुंडा और संथाली समुदाय स्वतंत्र रूप से इन इलाकों में निवासी थे. इनकी प्रजाति प्रोटो ऑस्ट्रेलायड है, जो मुंडारी से मिलती है.

प्रकृति के उपासक
'हो' समुदाय की अपनी संस्कृति है और इनका अपना अलग ही रीति रिवाज है. इनकी धार्मिक मान्यताएं कुछ अलग होती हैं. ये लोग प्रकृति के उपासक होते हैं. इनके अपने-अपने गोत्र के कुल देवता होते हैं. 'हो' समुदाय के लोग मंदिर में स्थापित देवी देवताओं की पूजा अर्चना नहीं करते हैं. बल्कि ये लोग अपने गांव के देवता 'देशाउलि' को अपना भगवान मानते हैं. प्रत्येक वर्ष माघे पर्व के अवसर पर बलि चढ़ाकर ग्राम पुजारी दिउरी के द्वारा इनकी पूजा की जाती है. साथ ही गांव के सभी लोग पूजा स्थान पर एकत्रित होकर अपने गांव के देवता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं.

गांव और पहाड़ों के नाम मुंडारी होते हैं
'हो' समुदाय के गांव के बीच में अखाड़ा होता है. अखाड़ा ज्यादातर मुंडा मानकी टोला में ही होते हैं. जो किसी पेड़ के नीचे होता है. गांव की आम सभा या ग्राम सभा के पंचायत की बैठकें यहीं पर लगाई जाती हैं. 'हो' आदिवासी के गांव और पहाड़ों के नाम मुंडारी में होते हैं, जैसे किरीबुरू, मरांगबुरू, चारुबुरु आदि. इनके घरों के एक कोने में पूर्वजों का पवित्र स्थान होता है जिसे आदिक कहते हैं.

जीविका का मुख्य साधन खेती
'हो' समुदाय के लोगों की जीविका का मुख्य साधन खेती है और मुख्य फसल धान है. लगभग हर किसान के पास हल - बैल होते हैं और वे वर्षा पर आधारित कृषि करते हैं. इसके साथ ही इनके जीवन में वनों और शिकार का भी बहुत महत्व है. इनके जीवन में हाट बाजार का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. जहां ये अपनी जरूरतों की चीजों को खरीदते और बेचने के साथ एक दूसरे से मिलने जुलने का भी काम करते हैं.

कई राजाओं ने इन्हें अपने अधीन करने के किये थे प्रयास
'हो' बहुल कोल्हान क्षेत्र किसी राजतंत्र के अधीन कभी नहीं रहा. इनका जीवन स्वाधीन था. इनकी पहचान पराक्रमी योद्धाओं के रूप में थी. इनकी धनुष से निकला तीर निशान कभी नहीं चूकता था. पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह और कई अन्य राजाओं ने इन क्षेत्रों को अपने अधीन करने के लिए कई कई बार प्रयास किया, लेकिन 'हो' समुदाय के लोगों ने इन्हें खदेड़ कर इनके छक्के छुड़ा दिए. 'हो' आदिवासियों के जीवन में एक ही सोच एक ही सिद्धांत था पराधीनता से अच्छी है मौत.

अंग्रेजों की सेनाओं को खदेड़ा था
इतिहास बताता है कि इनके रण कौशल ने अंग्रेजों की सेनाओं को जगन्नाथपुर, हाट गम्हरिया, कोचड़ा, पुखरिया, चैनपुर आदि जगहों में पीठ दिखाकर भागने को विवश कर दिया था. जब सारा भारत गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था तब केवल 'हो' समुदाय ही आजादी की सांस ले रहा था. 'हो' आदिवासियों को कई बार अंग्रेजों ने अपने अधीन रखने का प्रयास किया परंतु हर बार उन्हें करारा जवाब मिला

'हो' योद्धाओं ने राजा अर्जुन सिंह को नाकों चने चबवा दिए थे
पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह के सैनिकों को 1837 में सेरेंगसिया घाटी में 'हो' योद्धाओं ने नाकों चने चबवा दिये थे. 19 नवंबर 1837 में चोएंबसा ( वर्तमान में पुरानी चाईबासा) में घमासान लड़ाई हुई. जिसमें अंग्रेजों ने राजाबासा, पूर्णिया इलाकों से कई "हो" योद्धाओं को पकड़ा था और इन योद्धाओं को चाईबासा जेल के सामने एक विशाल बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी गई थी. स्वतंत्रता के बाद स्थानीय हो समुदाय के लोगों द्वारा भारत सरकार से इन शहीदों के स्थान पर पार्क बनवाने के आग्रह किया गया था, जहां आज बस पड़ाव है.

'हो' समुदाय की अपनी लिपि
'हो' समुदाय की अपनी अलग भाषा है जिसे 'हो' भाषा के नाम से जाना जाता है. यही इनकी मातृभाषा भी है इनकी अपनी लिपि वरंग क्षिति लिपि है. इस समुदाय के लोगों की सभी बातों में समानता पाई जाती है, इनके घर बनाने का तरीका घरों की रूपरेखा में भी एक पहचान होती है.

पेय पदार्थ डियांग (हड़िया) और प्रिय भोजन चावल
'हो' समुदाय के लोगों का पहनावा, चाल-ढाल आदि में भी एकरूपता पाई जाती है. यह साफ सुथरा रहना पसंद करते हैं. घरों और उसके आसपास भी साफ सुथरा रखते हैं. इनका पेय पदार्थ डियांग ( हड़िया) होता है इनका प्रिय भोजन चावल है साथ ही मांस मछली आदि भी शिकार कर बड़े चाव से खाते हैं.

झारखंड सरकार आदिवासी समुदाय के विकास को लेकर कई योजनाएं चला रही हैं. समुदाय के लोगों को इसका लाभ भी मिल रहा है. अगर राज्य सरकार के सभी योजनाओं का लाभ आदिवासी समुदाय के लोगों को पूरी तरह से मिलने लगे तो बहुत जल्द ये लोग भी समाज के मुख्य धारा से जुड़ जाएंगे.

Intro:चाईबासा। भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक है "हो" समुदाय। जिसने गुलामी कभी स्वीकार नहीं किया। 1831-32 में बुंडू तमाड़ से कोल विद्रोह की शुरुआत मानकियो के नेतृत्व में किया गया था जिसके बाद सन 1837 में अंग्रेजों ने कोल्हान की धरती पर अपना कब्जा जमाने की कोशिश की। जिसके कई राजा महाराजाओं के अलावा अंग्रेजों के साथ लोहा लेने वाले वीर "हो" योद्धाओं ने गुलामी करने से बेहतर निडर होकर अंग्रेजों से मैदान में युद्ध लड़ना जरूरी समझा और युद्ध के मैदानो में कई राजा- महाराजाओं, अंग्रेजों को नाको चने चबा दिया था। जिसके बाद से अंग्रेजों ने कूटनीति के तहत हुकुमनामा एवं विलकिंग्सन रूल लागू करना पड़ा।

"हो" समुदाय झारखंड राज्य के सिंहभूम जिले के साथ साथ पड़ोसी राज्य उड़ीसा के क्योंझर, मयूरभंज, जाजपुर , जिलों में बसी हुई है। झारखंड में यह मुख्यतः पूर्वी एवं पश्चिमी सिंहभूम में इनकी संख्या अत्यधिक है। झारखंड में इनका आगमन मुंडा ओं के साथ हुआ था। हो मुंडा तथा संथाल समुदाय स्वतंत्र रूप से इन इलाकों में निवासी थे। इनकी प्रजाति प्रोटो ऑस्ट्रेलायड है जो मुंडारी से मिलती है।




Body:प्रकृति के उपासक -
"हो" समुदाय की अपनी संस्कृति है एवं अपने रीति रिवाज हैं इनकी धार्मिक मान्यताएं कुछ अलग है यह प्रकृति के उपासक होते हैं इनका अपने अपने गोत्र के कुल देवता होते हैं। यह मंदिर में स्थापित देवी देवताओं की पूजा अर्चना नहीं करते बल्कि हो समुदाय के लोग अपने गांव के देवता 'देशाउलि' को अपना भगवान मानते हैं। अपने अन्य पुजारी के अवसरों के अलावा प्रत्येक वर्ष मागे परब के अवसर पर बलि चढ़ाकर ग्राम पुजारी "दिउरी" के द्वारा इसकी पूजा पाठ की जाती है साथ ही गांव के सभी लोग पूजा स्थान पर एकत्रित होकर अपने गांव के देवता से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

गांव और पहाड़ों के नाम मुंडारी होते हैं-
"हो" समुदाय के लोगों के गांव घुसते ही सीवाने पर ससन मिलता है और गांव के बीच में अखाड़ा होता है। अखाड़ा ज्यादातर मुंडा मानकी टोला में ही होते हैं जो किसी पेड़ के नीचे हुआ करता है और यहीं पर गांव के आम सभा या ग्राम सभा के पंचायत की बैठके लगाई जाती हैं। हो समुदाय के लोगों के गांव और पहाड़ों के नाम मुंडारी होते हैं जैसे किरीबुरू, मरांगबुरू, चारुबुरु आदि। इनके घरों के एक कोने में पूर्वजों का पवित्र स्थान होता है जिसे आदिक कहते हैं।

जीविका का मुख्य साधन खेती-
हो समुदाय के लोगों की जीविका का मुख्य साधन खेती है और मुख्य फसल धान है लगभग हर किसान के पास हल व बैल होते हैं और वे वर्षा आधारित कृषि करते हैं। इसके साथ ही इनके जीवन में वनों और शिकार ओं का भी बहुत महत्व है इनके जीवन में हाट बाजार का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है जहां या अपनी जरूरतों की चीजों को खरीदते एवं बेचने के साथ एक दूसरे से मिलने जुलने का भी काम होता है।

कई राजाओं ने इन्हें अपने अधीन करने के किये थे प्रयास-
"हो" बहुल कोल्हान क्षेत्र किसी राजतंत्र के अधीन कभी नहीं रहा इनका जीवन स्वाधीन था इनकी पहचान पराक्रमी योद्धाओं के रूप में थी इनकी धनुष से निकला तीर का निशान कभी नहीं चूकता था। पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह तथा कई अन्य राजाओं ने इन क्षेत्रों को अपने अधीन करने के लिए कई कई बार प्रयास किए परंतु हो समुदाय के लोगों ने इन्हें खदेड़ कर इनके छक्के छुड़ा दिए। राजाओं को हमेशा हार का मुंह देखना पड़ा। हो समुदाय के लोगों के जीवन में एक ही सोच एक ही सिद्धांत था पराधीनता से अच्छी है मौत।

अंग्रेजों की सेनाओं को खेड़ेदा था -
इतिहास बताता है कि इनके रण कौशल ने अंग्रेजों की सेनाओं को जगन्नाथपुर, हाटगम्हरिया, कोचड़ा, पुखरिया, चैनपुर आदि जगहों में पीठ दिखाकर भागने को विवश कर दिया था जब सारा भारत गुलामी की जंजीर में जकड़ा हुआ था तब केवल "हो" समुदाय ही आजादी की सांस ले रहा था। "हो" आदिवासियों को कई बार अंग्रेजों ने अपने अधीन रखने का प्रयास किया परंतु हर बार उन्हें करारा जवाब मिला।

"हो" योद्धाओं ने राजा अर्जुन सिंह को नाको चने चबवा दिए थे-
पोड़ाहाट के राजा अर्जुन सिंह के सैनिकों को 1837 में सेरेंगसिया घाटी में "हो" योद्धाओं ने नाको चने चबा दिया था। 19 नवंबर 1837 में चोएंबसा ( वर्तमान में पुराना चाईबासा) में हुई घमासान लड़ाई हुई। जिसमें अंग्रेजों ने राजाबासा, पूर्णिया इलाकों से कई "हो" योद्धाओं को पकड़ा था और इन योद्धाओं को चाईबासा जेल के सामने एक विशाल बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दे दी थी। स्वतंत्रता के बाद स्थानीय हो समुदाय के लोगों द्वारा भारत सरकार से इन शहीदों के स्थान पर पार्क बनवाने के आग्रह किया था जहां आज बस पड़ाव है।

"हो" समुदाय की अपनी लिपि -
"हो" समुदाय में अपनी अलग भाषा है जिसे "हो" भाषा के नाम से जाना जाता है यही इनकी मातृभाषा भी है इनकी अपनी लिपि वरंग क्षिति लिपि है। हो समुदाय के लोगों की सभी बातों में समानता पाई जाती है इनके घर बनाने का तरीका घरों की रूपरेखा में भी एक पहचान होती है।

पेय पदार्थ डियांग (हड़िया) और प्रिय भोजन चावल -
उनका पहनावा चाल-ढाल आदि में भी एकरूपता पाई जाती है यह साफ सुथरा रहना पसंद करते हैं घरों को तथा घरों के आसपास भी साफ सुथरा रहते हैं। इनका पेय पदार्थ डियांग ( हड़िया) होता है। इनका प्रिय भोजन चावल है साथ ही मांस मछली आदि भी शिकार कर बड़े चाव से खाते हैं।

हो समाज महासभा के पूर्व अध्यक्ष मुकेश बिरूवा बताते हैं कि "हो" समुदाय के लोगों के उत्थान को लेकर सरकार से प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में करवाने को लेकर कई बार मांग कर चुके हैं परंतु अब तक हो समुदाय के लोगों के मांगों को सरकार नजरअंदाज करती रही है यही कारण है कि आदिवासी समाज के युवा युवतीओं की शिक्षा से दूर होते चले गए। जिस कारण हो समुदाय के लोग आज अशिक्षित हैं और आज सबसे ज्यादा पिछड़े वर्गों में से एक हैं।





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