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आज भी नहीं बदली बिरहोर जनजाति की स्थिति, जंगली जीवन जीने को हैं मजबूर

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Published : Feb 12, 2021, 9:21 PM IST

Updated : Feb 13, 2021, 10:32 PM IST

आदिकाल से जंगल और पर्वतों के समीप कुंबा बनाकर रहने वाली बिरहोर जनजाति का अस्तित्व आज खतरे में है. सरकार की ओर से इस प्रजाति को बचाने के लिए तरह-तरह के दावे किए जाते रहे हैं, लेकिन इनकी वास्तविक सच्चाई उसके बिलकुल विपरीत है.

bad condittion of birhor tribal in jharkhand
झारखंड के बिरहोर जनजाति की स्थिति दयनीय

सिमडेगा: आदिकाल से जंगल और पर्वतों के समीप कुंबा बनाकर (पत्तों से बने झोपड़ी घर) निवास करने वाली बिरहोर जनजाति का अस्तित्व आज खतरे में है. इस लुप्तप्राय जनजाति को बचाने के लिए कई तरह की महत्वकांक्षी योजना सरकार की ओर से चलाई जा रहीं हैं, लेकिन धरातल पर इसकी वास्तविक स्थिति हकीकत से परे है.

देखें पूरी खबर

बारिश के समय में होती है काफी परेशानी

सिमडेगा जिला मुख्यालय से करीब 22 किलोमीटर दूर पाकरटांड प्रखंड का डोभाया गांव, जहां बिरहोर जनजाति के करीब 22 परिवार निवास करते हैं. कादोपानी में 7 और घाघरा में दो परिवार रहते हैं. श्रीराम रेखाधाम से करीब 6 किलोमीटर दूर बिरहोर जनजाति की यह कॉलोनी है. पाकरटांड के इस डोभाया गांव में बिरहोर जनजातियों के लिए करीब 20 साल पूर्व बिरसा आवासीय कॉलोनी का निर्माण किया गया था, जिसकी स्थिति अब काफी जर्जर हो चुकी है. इस आवासीय कॉलोनी में छत पर लगी चदरा शीट जगह जगह जंग लगने के कारण टूट चुकी है.

कई प्रकार की है समस्या

बारिश के दिनों में पानी की धार उनके घरों के अंदर प्रवेश करती हैं. मजबूरी का आलम यह है कि प्लास्टिक के तिरपाल आदि ढककर बिरहोर जनजाति के लोग किसी प्रकार अपना गुजर-बसर कर रहे हैं. योजनाओं की बात तो बहुत की जाती है, लेकिन उसकी वास्तविक स्थिति कुछ ऐसी है. उनके पास रहने को घर तो हैं, लेकिन उस पर छत नहीं है. खाने को अनाज तो है, लेकिन करने को कोई काम नहीं है. पीने को पानी है, लेकिन खेती करने के लिए भूमि नहीं है. बीमार होने पर सरकारी अस्पताल तो है, लेकिन बाहर से दवाई लेनी पड़ी तो पॉकेट में पैसे नहीं है.

ये भी पढ़ें-हजारीबाग सांसद ने बिरहोर परिवार के बीच सूखा राशन का वितरण किया

कुंबा बनाकर रहने को मजबूर

प्रखंड विकास पदाधिकारी कीकू महतो की मानें तो सभी बिरहोर जनजाति के परिवारों को आवास, पेयजल, बिजली, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन और स्वरोजगार के लिए बकरी पालन सहित अन्य योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि 90 वर्षीय सावन बिरहोर करीब 2 सालों से वृद्धा पेंशन से वंचित हैं.

कई बार आवेदन देने के बाद भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई. वहीं, वृद्ध महिला सुनानी बिरहोर बीते 4 महीने से पेंशन से वंचित हैं. इनका कहना है कि अगर इनके जर्जर आवास को जल्द ठीक नहीं किया जाता है तो ये पुनः पूर्व की भांति कॉलोनी को छोड़कर जंगल और पर्वतों के समीप कुंबा बनाकर रहने को मजबूर होंगे.

रोजगार के नहीं हैं कोई साधन

उनका कहना है कि 20 साल से ना तो एक बार भी इन आवासों की रिपेयरिंग हुई है और ना ही दूसरे पक्के मकान बनाए गए हैं. बिरहोर जनजाति के सोमा बिरहोर बताती हैं कि वे लोग साल 1993 में पाकरटांड प्रखंड के डोभाया में आए थे और साल 2000 में बिरसा आवास बनाकर, इन्हें रहने के लिए दिया गया. आवासीय भवनों की स्थिति तो काफी जर्जर हो ही चुकी है. उन लोगों के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है. अगर जल्द ही इन आवासों को ठीक नहीं किया जाता है तो वह पुनः जंगलों की ओर लौटने के लिए बाध्य होंगे. इसके अलावा महिला रिचेन बिरहोर रोते हुए अपनी पीड़ा बयां करती हैं.

ये भी पढ़ें-उपेक्षा का दंश झेल रहा बिरहोर परिवार, झोपड़ी में रहने को मजबूर है परिवार, सरकार से की मदद की अपील

सरकारी सहायता की आस

सोमा कहती है कि घर तो टूटे-फूटे हैं ही, खेतीबाड़ी के लिए उनके पास किसी प्रकार की कोई भूमि भी नहीं है, ताकि वे मेहनत मजदूरी कर अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए प्रयास कर सकें. अगर कोई बीमार हो जाए तो उन्हें सरकारी अस्पताल की फ्री में मिलने वाली दवाओं पर आश्रित रहना पड़ता है. इधर, घाघरा से अपने रिश्तेदारों के घर आईं अनीता बिरहोर कहती हैं कि उनका घर पाकरटांड प्रखंड के घाघरा गांव में है. उनका घर भी टूट चुका है. अब तो बस सरकारी सहायता की आस है.

सिमडेगा: आदिकाल से जंगल और पर्वतों के समीप कुंबा बनाकर (पत्तों से बने झोपड़ी घर) निवास करने वाली बिरहोर जनजाति का अस्तित्व आज खतरे में है. इस लुप्तप्राय जनजाति को बचाने के लिए कई तरह की महत्वकांक्षी योजना सरकार की ओर से चलाई जा रहीं हैं, लेकिन धरातल पर इसकी वास्तविक स्थिति हकीकत से परे है.

देखें पूरी खबर

बारिश के समय में होती है काफी परेशानी

सिमडेगा जिला मुख्यालय से करीब 22 किलोमीटर दूर पाकरटांड प्रखंड का डोभाया गांव, जहां बिरहोर जनजाति के करीब 22 परिवार निवास करते हैं. कादोपानी में 7 और घाघरा में दो परिवार रहते हैं. श्रीराम रेखाधाम से करीब 6 किलोमीटर दूर बिरहोर जनजाति की यह कॉलोनी है. पाकरटांड के इस डोभाया गांव में बिरहोर जनजातियों के लिए करीब 20 साल पूर्व बिरसा आवासीय कॉलोनी का निर्माण किया गया था, जिसकी स्थिति अब काफी जर्जर हो चुकी है. इस आवासीय कॉलोनी में छत पर लगी चदरा शीट जगह जगह जंग लगने के कारण टूट चुकी है.

कई प्रकार की है समस्या

बारिश के दिनों में पानी की धार उनके घरों के अंदर प्रवेश करती हैं. मजबूरी का आलम यह है कि प्लास्टिक के तिरपाल आदि ढककर बिरहोर जनजाति के लोग किसी प्रकार अपना गुजर-बसर कर रहे हैं. योजनाओं की बात तो बहुत की जाती है, लेकिन उसकी वास्तविक स्थिति कुछ ऐसी है. उनके पास रहने को घर तो हैं, लेकिन उस पर छत नहीं है. खाने को अनाज तो है, लेकिन करने को कोई काम नहीं है. पीने को पानी है, लेकिन खेती करने के लिए भूमि नहीं है. बीमार होने पर सरकारी अस्पताल तो है, लेकिन बाहर से दवाई लेनी पड़ी तो पॉकेट में पैसे नहीं है.

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कुंबा बनाकर रहने को मजबूर

प्रखंड विकास पदाधिकारी कीकू महतो की मानें तो सभी बिरहोर जनजाति के परिवारों को आवास, पेयजल, बिजली, वृद्धा पेंशन, विधवा पेंशन और स्वरोजगार के लिए बकरी पालन सहित अन्य योजनाओं का लाभ दिया जा रहा है, लेकिन वास्तविकता यह है कि 90 वर्षीय सावन बिरहोर करीब 2 सालों से वृद्धा पेंशन से वंचित हैं.

कई बार आवेदन देने के बाद भी उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई. वहीं, वृद्ध महिला सुनानी बिरहोर बीते 4 महीने से पेंशन से वंचित हैं. इनका कहना है कि अगर इनके जर्जर आवास को जल्द ठीक नहीं किया जाता है तो ये पुनः पूर्व की भांति कॉलोनी को छोड़कर जंगल और पर्वतों के समीप कुंबा बनाकर रहने को मजबूर होंगे.

रोजगार के नहीं हैं कोई साधन

उनका कहना है कि 20 साल से ना तो एक बार भी इन आवासों की रिपेयरिंग हुई है और ना ही दूसरे पक्के मकान बनाए गए हैं. बिरहोर जनजाति के सोमा बिरहोर बताती हैं कि वे लोग साल 1993 में पाकरटांड प्रखंड के डोभाया में आए थे और साल 2000 में बिरसा आवास बनाकर, इन्हें रहने के लिए दिया गया. आवासीय भवनों की स्थिति तो काफी जर्जर हो ही चुकी है. उन लोगों के पास रोजगार का कोई साधन नहीं है. अगर जल्द ही इन आवासों को ठीक नहीं किया जाता है तो वह पुनः जंगलों की ओर लौटने के लिए बाध्य होंगे. इसके अलावा महिला रिचेन बिरहोर रोते हुए अपनी पीड़ा बयां करती हैं.

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सरकारी सहायता की आस

सोमा कहती है कि घर तो टूटे-फूटे हैं ही, खेतीबाड़ी के लिए उनके पास किसी प्रकार की कोई भूमि भी नहीं है, ताकि वे मेहनत मजदूरी कर अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए प्रयास कर सकें. अगर कोई बीमार हो जाए तो उन्हें सरकारी अस्पताल की फ्री में मिलने वाली दवाओं पर आश्रित रहना पड़ता है. इधर, घाघरा से अपने रिश्तेदारों के घर आईं अनीता बिरहोर कहती हैं कि उनका घर पाकरटांड प्रखंड के घाघरा गांव में है. उनका घर भी टूट चुका है. अब तो बस सरकारी सहायता की आस है.

Last Updated : Feb 13, 2021, 10:32 PM IST
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