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Sarhul 2023: प्रकृति पर्व सरहुल, जानिए क्या हैं इसकी मान्यताएं

सेनगे सुसुन, काजिगे दुरंग, इसका तात्पर्य है कि जहां चलना नृत्य है और बोली ही गीत और संगीत है. यही झारखंड की जीवनधारा है, जीतोड़ मेहनत के बाद रात को पूरा गांव अखड़ा में सबका समागम होता है और एकसाथ पूरा गांव मांदर और नगाड़े की थाम पर थिरकता और गाता है. बसंत में सरहुल पर्व खुशियां का पैगाम लाता है. फसल से घर और फल-फूल से पूरा जंगल भरा जाता है. क्योंकि प्रकृति किसी को भूखा नहीं रहने देती.

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Published : Mar 24, 2023, 11:02 AM IST

रांचीः सरहुल दो शब्द से मिलकर बना है, सर और हूल. सर यानी सरई या सखुआ का फूल और हूल का तात्पर्य क्रांति से है. इस तरह सखुआ फूल की क्रांति को ही सरहुल कहा गया है. मुंडारी, संथाली और हो भाषा में सरहुल को बा या बाहा पोरोब, खड़िया भाषा में जांकोर, कुड़ुख में खद्दी या खेखेल बेंजा कहा जाता है. इसके अलावा नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली भाषा में इसको सरहुल कहा जाता है.

इसे भी पढ़ें- Sarhul 2023: प्रकृति पर्व सरहुल आज, निकाला जाएगा भव्य जुलूस

प्रकृति पर्व सरहुल, सरहुल आदिवासियों का मनाया जाने वाला प्रमुख पर्व है जो वसंत ऋतु में मनाया जाता है. आदिवासियों का ये पर्व झारखंड के अलावा कई प्रदेशों में मनाया जाता है. सरहुल प्रकृति को समर्पित पर्व है. पतझड़ के मौसम के बाद प्रकृति खुद को नए पत्तों और फूलों के आवरण से खुद को सजा लेती है, आम के मंजर, सरई और महुआ के फूलों से पूरी फिजा महक उठती है. झारखंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में धूमधाम से सरहुल मनाया जाता है. सरहुल का उत्सव चैत्र महीने में तीसरे दिन चैत्र शुक्ल तृतीया तिथि को मनाई जाती है. इसमें साल के वृक्ष की पूजा होती है. यह पर्व आदिवासियों के नव वर्ष की शुरुआत का भी प्रतीक है.

सरहुल के पूजन की विधिः चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाने वाला प्रकृति पर्व सरहुल की मुख्य पूजा उनके धर्मगुरु यानी पहान करवाते हैं. वो अखड़ा में विधि-विधान पूर्वक अपने आदिदेव सींग बोंगा की पूजा करते हैं. इस दौरान सुख समृद्धि के लिए रंगा हुआ मुर्गा की बलि देने की परंपरा निभाई जाती है. इसमें ग्राम देवता को रंगा यानी रंगवा मुर्गा अर्पित किया जाता है. पहान ईष्ट देवता से बुरी आत्मा को गांव से दूर भगाने की मनोकामना करते हैं. पूजा के दौरान पहान रस्म के पहले दिन घड़े का पानी देखकर वार्षिक वर्षा की भविष्यवाणी करते हैं. पुजारी यानी पहान ही लोगों को बताते हैं कि इस साल बारिश कैसी होगी.

इस अनुष्ठान से एक दिन पहले प्रकृति पूजक उपवास रहकर केकड़ा और मछली पकड़ने जाते हैं. परंपरा के अनुसार विभिन्न मौजा के पहान भी केकड़ा और मछली पकड़ने की रस्म निभाते हैं. ऐसी परंपरा है कि घर के नए दामाद या बेटा केकड़ा पकड़ने तालाब या पोखर में जाते हैं. इसके बाद उस केकड़े को साल पत्तों से लपेटकर घर में बने चूल्हे के सामने लटका कर रखा जाता है. इसके बाद आषाढ़ महीने में बीज बोने के समय केकड़ा का चूर्ण बनाकर उस बीज के साथ मिलाकर खेतों में बोया जाता है. इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि केकड़े के पैर की तरह उनके फसल में भी वृद्धि होगी.

इस पूजा के बाद शाम को विभिन्न मौजा के पाहनों के द्वारा ढोल-मांदर बजाते हुए कुएं या तालाब से दो घड़ा पानी लाकर जल रखाई की रस्म निभाई जाती है. गांव के नदी, तालाब या कुएं से दो घड़े में पानी लाकर सरना स्थल की उत्तर और दक्षिण दिशा में रखा जाता है. पानी की गहराई को साल के तने से नापा जाता है. जिसके बाद दूसरे दिन घड़े में पानी को उसी तने से ही नापा जाता है. घड़े में पानी के कम होने या नहीं होने की स्थिति पर उस साल वर्षा का पूर्वानुमान लगाया जाता है.

पौराणिक कथा में सरहुलः महाभारत में सरहुल से जुड़ी कई कहानी प्रचलित है. किवदंतियों की मानें तो जब महाभारत का युद्ध चल रहा था तब आदिवासी समुदाय ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था, जिस कारण कई मुंडा सरदार पांडवों के हाथों मारे गए थे. इसलिए आदिवासियों के शव की पहचान के लिए उनके शरीर को साल के पत्तों और टहनियों से ढका गया. महाभारत के युद्ध के बाद ऐसा देखने को मिला कि जिन शवों को साल के पत्तों से ढका गया था वो नहीं सड़े और उनकी अवस्था ठीक थी. लेकिन जो अन्य चीजों से ढके हुए थे वो शव सड़ गए थे. इस घटना के बाद आदिवासियों में साल के पेड़ों और पत्तों के प्रति उनकी अटूट आस्था और अगाध विश्वास जाग उठा. उनकी यही आस्था वर्तमान रुप में सरहुल पर्व के रूप में जाना जाता है.

सरहुल में लोक नृत्य और पारंपरिक परिधानः जे नाची से बांची यानी जो नाचेगा वही बचेगा. सरहुल पर्व को लेकर मान्यता है कि हमारी लोक नृत्य ही हमारी सभ्यता है और संस्कृति है. सरहुल के मौके पर पूरे झारखंड में नृत्य उत्सव का आयोजन किया जाता है. महिलाएं सफेद रंग की लाल पाड़ की साड़ी धारण करती हैं. सफेद रंग पवित्रता और शालीनता का और लाल रंग संघर्ष का प्रतीक माना जाता है. सफेद रंग आदिवासी समुदाय के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल रंग ईष्टदेव बुरुबोंगा का प्रतीक है. इसलिए सरना का झंडा भी लाल और सफेद रंग का ही होता है.

झारखंड में 5 समुदाय अलग तरह से सरहुल मनाते हैं, उन्हें अलग नामों से भी पुकारा जाता है. मुंडा समाज में इसे बहा पोरोब कहते है. सखुआ, साल या सरजोम पेड़ के नीचे मुंडारी खूंटकटी भूमि पर मुंडा समाज के सरना स्थल में सर्वोच्च सिंगबोगा की पूजा होती है. हो समुदाय में इसे बा पोरोब कहते हैं. यहां बा का तात्पर्य फूलों से है अर्थात ये फूलों का त्योहार है. 3 दिन के इस पर्व में बा गुरि, मरंग पोरोब और बा बसि के तौर पर मनाते हैं. जिसमें उनके ईश्वर सिंगबोंगा की पूजा होती है.

उरांव समुदाय में सरहुल के दिन सृष्टि के दो महान स्वरूप शक्तिमान सूर्य और कन्या रूपी धरती का विवाह होता है. जिसको कुड़ुख या उरांव भाषा में खेखेल बेंजा कहते हैं. इसका प्रतिनिधित्व उरांव पुरोहित नयगस और उनकी धर्मपत्नी नगयिनी करती हैं. केकड़ा पकड़ना, घड़े का पानी देखकर बारिश की भविष्यवाणी, पहान सरना स्थल पर तीन मुर्गा की बलि और खिचड़ी बनाकर प्रसाद के रूप में खाते हैं. बाहा संथालियों के प्रकृति से प्रेम को दर्शाता है. प्राचीन काल से साल और महुआ को देव स्वरूप मानकर इनको पूजते हैं. बाहा फागुन का चांद निकलने के पांचवें दिन शुरू होता है और महीनेभर मनाया जाता है. बाहा नृत्य में महिलाएं अकेली नृत्य करती हैं और पुरुष पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हैं. खड़िया जांकोर पर्व मनाते हैं. जांग और एकोर अर्थात फलों-बीजों का क्रमवार विकास है. फागुन पूर्णिमा के एक दिन पहले उपवास रखकर इसकी शुरुआत होती है.

रांचीः सरहुल दो शब्द से मिलकर बना है, सर और हूल. सर यानी सरई या सखुआ का फूल और हूल का तात्पर्य क्रांति से है. इस तरह सखुआ फूल की क्रांति को ही सरहुल कहा गया है. मुंडारी, संथाली और हो भाषा में सरहुल को बा या बाहा पोरोब, खड़िया भाषा में जांकोर, कुड़ुख में खद्दी या खेखेल बेंजा कहा जाता है. इसके अलावा नागपुरी, पंचपरगनिया, खोरठा और कुरमाली भाषा में इसको सरहुल कहा जाता है.

इसे भी पढ़ें- Sarhul 2023: प्रकृति पर्व सरहुल आज, निकाला जाएगा भव्य जुलूस

प्रकृति पर्व सरहुल, सरहुल आदिवासियों का मनाया जाने वाला प्रमुख पर्व है जो वसंत ऋतु में मनाया जाता है. आदिवासियों का ये पर्व झारखंड के अलावा कई प्रदेशों में मनाया जाता है. सरहुल प्रकृति को समर्पित पर्व है. पतझड़ के मौसम के बाद प्रकृति खुद को नए पत्तों और फूलों के आवरण से खुद को सजा लेती है, आम के मंजर, सरई और महुआ के फूलों से पूरी फिजा महक उठती है. झारखंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी बहुल इलाकों में धूमधाम से सरहुल मनाया जाता है. सरहुल का उत्सव चैत्र महीने में तीसरे दिन चैत्र शुक्ल तृतीया तिथि को मनाई जाती है. इसमें साल के वृक्ष की पूजा होती है. यह पर्व आदिवासियों के नव वर्ष की शुरुआत का भी प्रतीक है.

सरहुल के पूजन की विधिः चैत्र शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाया जाने वाला प्रकृति पर्व सरहुल की मुख्य पूजा उनके धर्मगुरु यानी पहान करवाते हैं. वो अखड़ा में विधि-विधान पूर्वक अपने आदिदेव सींग बोंगा की पूजा करते हैं. इस दौरान सुख समृद्धि के लिए रंगा हुआ मुर्गा की बलि देने की परंपरा निभाई जाती है. इसमें ग्राम देवता को रंगा यानी रंगवा मुर्गा अर्पित किया जाता है. पहान ईष्ट देवता से बुरी आत्मा को गांव से दूर भगाने की मनोकामना करते हैं. पूजा के दौरान पहान रस्म के पहले दिन घड़े का पानी देखकर वार्षिक वर्षा की भविष्यवाणी करते हैं. पुजारी यानी पहान ही लोगों को बताते हैं कि इस साल बारिश कैसी होगी.

इस अनुष्ठान से एक दिन पहले प्रकृति पूजक उपवास रहकर केकड़ा और मछली पकड़ने जाते हैं. परंपरा के अनुसार विभिन्न मौजा के पहान भी केकड़ा और मछली पकड़ने की रस्म निभाते हैं. ऐसी परंपरा है कि घर के नए दामाद या बेटा केकड़ा पकड़ने तालाब या पोखर में जाते हैं. इसके बाद उस केकड़े को साल पत्तों से लपेटकर घर में बने चूल्हे के सामने लटका कर रखा जाता है. इसके बाद आषाढ़ महीने में बीज बोने के समय केकड़ा का चूर्ण बनाकर उस बीज के साथ मिलाकर खेतों में बोया जाता है. इसके पीछे ऐसी मान्यता है कि केकड़े के पैर की तरह उनके फसल में भी वृद्धि होगी.

इस पूजा के बाद शाम को विभिन्न मौजा के पाहनों के द्वारा ढोल-मांदर बजाते हुए कुएं या तालाब से दो घड़ा पानी लाकर जल रखाई की रस्म निभाई जाती है. गांव के नदी, तालाब या कुएं से दो घड़े में पानी लाकर सरना स्थल की उत्तर और दक्षिण दिशा में रखा जाता है. पानी की गहराई को साल के तने से नापा जाता है. जिसके बाद दूसरे दिन घड़े में पानी को उसी तने से ही नापा जाता है. घड़े में पानी के कम होने या नहीं होने की स्थिति पर उस साल वर्षा का पूर्वानुमान लगाया जाता है.

पौराणिक कथा में सरहुलः महाभारत में सरहुल से जुड़ी कई कहानी प्रचलित है. किवदंतियों की मानें तो जब महाभारत का युद्ध चल रहा था तब आदिवासी समुदाय ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था, जिस कारण कई मुंडा सरदार पांडवों के हाथों मारे गए थे. इसलिए आदिवासियों के शव की पहचान के लिए उनके शरीर को साल के पत्तों और टहनियों से ढका गया. महाभारत के युद्ध के बाद ऐसा देखने को मिला कि जिन शवों को साल के पत्तों से ढका गया था वो नहीं सड़े और उनकी अवस्था ठीक थी. लेकिन जो अन्य चीजों से ढके हुए थे वो शव सड़ गए थे. इस घटना के बाद आदिवासियों में साल के पेड़ों और पत्तों के प्रति उनकी अटूट आस्था और अगाध विश्वास जाग उठा. उनकी यही आस्था वर्तमान रुप में सरहुल पर्व के रूप में जाना जाता है.

सरहुल में लोक नृत्य और पारंपरिक परिधानः जे नाची से बांची यानी जो नाचेगा वही बचेगा. सरहुल पर्व को लेकर मान्यता है कि हमारी लोक नृत्य ही हमारी सभ्यता है और संस्कृति है. सरहुल के मौके पर पूरे झारखंड में नृत्य उत्सव का आयोजन किया जाता है. महिलाएं सफेद रंग की लाल पाड़ की साड़ी धारण करती हैं. सफेद रंग पवित्रता और शालीनता का और लाल रंग संघर्ष का प्रतीक माना जाता है. सफेद रंग आदिवासी समुदाय के सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा और लाल रंग ईष्टदेव बुरुबोंगा का प्रतीक है. इसलिए सरना का झंडा भी लाल और सफेद रंग का ही होता है.

झारखंड में 5 समुदाय अलग तरह से सरहुल मनाते हैं, उन्हें अलग नामों से भी पुकारा जाता है. मुंडा समाज में इसे बहा पोरोब कहते है. सखुआ, साल या सरजोम पेड़ के नीचे मुंडारी खूंटकटी भूमि पर मुंडा समाज के सरना स्थल में सर्वोच्च सिंगबोगा की पूजा होती है. हो समुदाय में इसे बा पोरोब कहते हैं. यहां बा का तात्पर्य फूलों से है अर्थात ये फूलों का त्योहार है. 3 दिन के इस पर्व में बा गुरि, मरंग पोरोब और बा बसि के तौर पर मनाते हैं. जिसमें उनके ईश्वर सिंगबोंगा की पूजा होती है.

उरांव समुदाय में सरहुल के दिन सृष्टि के दो महान स्वरूप शक्तिमान सूर्य और कन्या रूपी धरती का विवाह होता है. जिसको कुड़ुख या उरांव भाषा में खेखेल बेंजा कहते हैं. इसका प्रतिनिधित्व उरांव पुरोहित नयगस और उनकी धर्मपत्नी नगयिनी करती हैं. केकड़ा पकड़ना, घड़े का पानी देखकर बारिश की भविष्यवाणी, पहान सरना स्थल पर तीन मुर्गा की बलि और खिचड़ी बनाकर प्रसाद के रूप में खाते हैं. बाहा संथालियों के प्रकृति से प्रेम को दर्शाता है. प्राचीन काल से साल और महुआ को देव स्वरूप मानकर इनको पूजते हैं. बाहा फागुन का चांद निकलने के पांचवें दिन शुरू होता है और महीनेभर मनाया जाता है. बाहा नृत्य में महिलाएं अकेली नृत्य करती हैं और पुरुष पारंपरिक वाद्ययंत्र बजाते हैं. खड़िया जांकोर पर्व मनाते हैं. जांग और एकोर अर्थात फलों-बीजों का क्रमवार विकास है. फागुन पूर्णिमा के एक दिन पहले उपवास रखकर इसकी शुरुआत होती है.

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