रांची: लोकायुक्त कार्यालय में 'सतर्कता जागरुकता सप्ताह' मनाया गया. इस दौरान लोकायुक्त जस्टिस डीएन उपाध्याय ने कहा कि देश में भ्रष्टाचार के विरूद्ध 'सतर्कता जागरूकता सप्ताह' चलाया जा रहा है लेकिन झारखंड में इसकी कोई विशेष गतिविधि नजर नहीं आ रही है, भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की ओर से आम लोगों को जागरूक करने के प्रति कोई कदम नहीं बढ़ाया गया है, केंद्रीय सतर्कता आयोग के गाइडलाइन पर प्रचार-प्रसार नहीं होने कारण यहां उदासीनता देखी जा रही है.
जस्टिस डीएन उपाध्याय कहा कि भ्रष्टाचार जांच की प्रक्रिया सरल होनी चाहिए, ताकि एक समय सीमा के अंदर दोषी लोक सेवकों के विरुद्ध कार्रवाई हो सके, तभी भ्रष्ट लोकसेवकों में भय उत्पन्न होगा, वर्तमान जांच प्रक्रिया काफी जटिल है, जिसके कारण लोकसेवक के विरुद्ध लगे आरोप साबित करते करते वह सेवानिवृत्त हो जाता है, इससे आम लोगों में न्याय के प्रति कहीं ना कहीं उदासीनता नजर आती है, भ्रष्टाचार राज्य के विकास में सबसे बड़ी बाधा है, राज्य सरकार को इस संबंध में विचार करना होगा. उन्होंने कहा कि महामारी भ्रष्टाचार के प्रति लोगों को जागरूक करने में आड़े आ रही है, लोकायुक्त कार्यालय पिछले तीन साल में राज्य के 12 जिलों में जाकर आम जनता को भ्रष्टाचार के प्रति जागरूक किया है, इसी का नतीजा है कि भ्रष्ट लोकसेवकों की शिकायतों में ढाई गुना वृद्धि हुई है, इस कोरोना महामारी के बीच इस साल 611 शिकायतें कार्यालय को प्राप्त हुई है.
लोकायुक्त अधिनियम संशोधन की फाइल पर विचार नहीं
लोकायुक्त ने कहा कि संशोधित लोकायुक्त अधिनियम-2020 का प्रस्ताव फरवरी महीने में सरकार को भेजा गया लेकिन 8 महीने बाद भी इस पर विचार नहीं किया जा सका. यहां वर्तमान में पांच दशक पुराने लोकायुक्त अधिनियम पर कार्य हो रहा है. उन्होंने कहा कि लोकायुक्त को मध्यप्रदेश राज्य की तरह स्वतंत्र शक्ति मिलनी चाहिए, तभी भ्रष्ट लोक सेवकों के खिलाफ उचित कार्रवाई संभव है.
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पीई की अनुमति देने में सालों लगते
आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के मामले में जब लोकायुक्त कार्यालय की जांच में पुष्टि होती है, तब उसको राज्य की जांच एजेंसी एसीबी को प्रारंभिक जांच (पीई) करने का आदेश देते हैं, एसीबी उक्त मामले में मंत्रिमंडल निगरानी विभाग से अनुमति मांगता है, पीई के लिए अनुमति मिलने में कई साल लग जाते हैं, जब तक पीई दर्ज कर जांच, उसमें पुष्टि के बाद प्राथमिकी के लिए अनुमति मांगने और आरोप पत्र दाखिल करने में सात से दस साल लग जाते हैं, इस तरह जिस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे होते हैं, वह सेवानिवृत्त हो जाता है, जिससे उस पर वैसे जांच का बहुत असर नहीं हो पाता है, जहां विभागों में इतनी उदासीनता हो, वहां भ्रष्ट मुक्त सरकारी विभाग की परिकल्पना कैसे की जा सकती है.