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बिरसा मुंडा की जयंतीः आदिवासी किसान का बेटा ऐसे बना भगवान

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Published : Nov 15, 2020, 5:02 AM IST

Updated : Nov 15, 2020, 9:28 AM IST

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 के अंतिम दशक में आदिवासी किसान के गरीब परिवार में हुआ था. खूंटी के सुदूरवर्ती उलिहातू गांव में जन्मे बिरसा मुंडा ऐसे महानायक थे, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में आदिवासियों को एकजुट कर उन्हें जागरूक किया. अंग्रेजों से लोहा लेने में सबका नेतृत्व किया. आज भी आदिवासियों के सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात बिरसा मुंडा को ही माना जाता है. पढ़िए उनकी 145वीं जयंंती पर विशेष लेख.

Tribute on Birsa Munda 145th birth anniversary
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रांची: आदिवासियों के महानायक और धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी के सुदूरवर्ती इलाका उलिहातू गांव में हुआ था. आदिवासी दंपत्ति सुगना मुंडा और करमी मुंडा के घर जन्में बिरसा मुंडा भारतीय इतिहास में एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपने क्रांतिकारी विचार से उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलने में अहम भूमिका निभाई थी.

देखिए बिरसा मुंडा की कहानी

अबुआ दिशुम-अबुआ राज, यानि हमारा देश- हमारा राज का नारा देने वाले बिरसा मुंडा के पिता सुगना मुंडा और माता करमी मुंडा खेती-किसानी करते थे. उस समय मुंडा एक छोटा जनजातीय समूह था, जो छोटानागपुर पठार पर बसा था. साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा जीईएल चर्च विद्यालय में पढ़ाई की. उस दौर में अंग्रेजों का शोषण चरम पर था, किशोर बिरसा हमेशा आदिवासियों के उत्थान को लेकर सोचते रहते थे. आदिवासियों के खोये सम्मान को भी वापस दिलाना चाहते थे. जिसे लेकर वह अंग्रेजों की लागू की गई जमींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के साथ-साथ अपनी हक की लड़ाई छेड़ दी. यह आदिवासी अस्मिता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था.

बढ़ती लोकप्रियता बना मौत का कारण

19वीं सदी के अंतिम दशक में उन्होंने अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिए आदिवासियों को जागरूक करना शुरू किया. उन्होंने आदिवासी समाज को मजबूत करने के लिए भूत-प्रेत और डायन जैसे अंधविश्वास को दूर करने की कोशिश की. इसी दौरान लोग भयंकर अकाल और भुखमरी की हालात से गुजर रहे थे. उस समय बिरसा मुंडा ने पूरे समर्पण से लोगों की सेवा की. इधर, अंग्रेजी शासन आदिवासियों के लिए काल बनता जा रहा था. अंग्रेज पहले कर्ज देते और बदले में उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे. अंग्रेजों का आदिवासियों पर जुल्म समय के साथ बढ़ता ही जा रहा था. ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट-1882’ ने उनकी पहचान ही छीन ली. जो जंगल के दावेदार थे, वही अब जंगलों से बेदखल कर दिए गए. यह देख बिरसा ने उलगुलान का ऐलान कर दिया, दमनकारी अंग्रेजी हुकूमत के आगे तीर-कमान कब तक सामना करते. इस लड़ाई में सैकड़ों लोग बेरहमी से मार दिए गए, लेकिन बिरसा मुंडा कभी हार मानने वालों में से नहीं थे. उनकी मेहनत और समाज के प्रति सेवा भाव से वे आदिवासियों के बीच धरती आबा के तौर पर लोकप्रिय हो गए, लेकिन बिरसा की ये चमत्कारिक लोकप्रियता अंग्रेजों को हजम नहीं हो रही थी.

ऐसे हुई थी बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी

बिरसा मुंडा काफी समय तक तो पुलिस की पकड़ में नहीं आ रहे थे. इसे लेकर ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ जानकारी देने और पकड़वाने में मदद करने के लिए ईनाम की घोषणा कर दी. इसके लालच में आकर उनके किसी करीबी ने ही अंग्रेजी हुकूमत की मदद की. जिसके बाद उन्हें 3 मार्च 1900 को गिरफ्तार कर लिया गया और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 2 साल की सजा सुना दी. लगातार जंगलों में भूखे-प्यासे भटकने की वजह से वह कमजोर हो चुके थे. आखिरकार 9 जून 1900 को अंग्रेजों के अत्याचार झेलते-झेलते जेल में ही बिरसा की मौत हो गई लेकिन बिरसा मुंडा के विचार आज भी लोगों को हमेशा संघर्ष की राह दिखा रहा है. महज 25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा ने जल, जंगल और जमीन को लेकर जिस क्रांति का आगाज किया, वह आज भी आदिवासियों को आगे बढ़ने की राह दिखा रहा है. आदिवासी समाज के अलावा पूरे झारखंड में उन्हें भगवान का दर्जा मिला हुआ है. आदिवासियों के कल्याण के ध्येय के साथ बिहार से अलग झारखंड राज्य की स्थापना भी धरती आबा बिरसा मुंडा की जयंती पर की गई है.

रांची: आदिवासियों के महानायक और धरती आबा भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी के सुदूरवर्ती इलाका उलिहातू गांव में हुआ था. आदिवासी दंपत्ति सुगना मुंडा और करमी मुंडा के घर जन्में बिरसा मुंडा भारतीय इतिहास में एक ऐसे नायक थे, जिन्होंने अपने क्रांतिकारी विचार से उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलने में अहम भूमिका निभाई थी.

देखिए बिरसा मुंडा की कहानी

अबुआ दिशुम-अबुआ राज, यानि हमारा देश- हमारा राज का नारा देने वाले बिरसा मुंडा के पिता सुगना मुंडा और माता करमी मुंडा खेती-किसानी करते थे. उस समय मुंडा एक छोटा जनजातीय समूह था, जो छोटानागपुर पठार पर बसा था. साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा जीईएल चर्च विद्यालय में पढ़ाई की. उस दौर में अंग्रेजों का शोषण चरम पर था, किशोर बिरसा हमेशा आदिवासियों के उत्थान को लेकर सोचते रहते थे. आदिवासियों के खोये सम्मान को भी वापस दिलाना चाहते थे. जिसे लेकर वह अंग्रेजों की लागू की गई जमींदारी प्रथा और राजस्व व्यवस्था के साथ-साथ अपनी हक की लड़ाई छेड़ दी. यह आदिवासी अस्मिता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था.

बढ़ती लोकप्रियता बना मौत का कारण

19वीं सदी के अंतिम दशक में उन्होंने अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिए आदिवासियों को जागरूक करना शुरू किया. उन्होंने आदिवासी समाज को मजबूत करने के लिए भूत-प्रेत और डायन जैसे अंधविश्वास को दूर करने की कोशिश की. इसी दौरान लोग भयंकर अकाल और भुखमरी की हालात से गुजर रहे थे. उस समय बिरसा मुंडा ने पूरे समर्पण से लोगों की सेवा की. इधर, अंग्रेजी शासन आदिवासियों के लिए काल बनता जा रहा था. अंग्रेज पहले कर्ज देते और बदले में उनकी जमीन पर कब्जा कर लेते थे. अंग्रेजों का आदिवासियों पर जुल्म समय के साथ बढ़ता ही जा रहा था. ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट-1882’ ने उनकी पहचान ही छीन ली. जो जंगल के दावेदार थे, वही अब जंगलों से बेदखल कर दिए गए. यह देख बिरसा ने उलगुलान का ऐलान कर दिया, दमनकारी अंग्रेजी हुकूमत के आगे तीर-कमान कब तक सामना करते. इस लड़ाई में सैकड़ों लोग बेरहमी से मार दिए गए, लेकिन बिरसा मुंडा कभी हार मानने वालों में से नहीं थे. उनकी मेहनत और समाज के प्रति सेवा भाव से वे आदिवासियों के बीच धरती आबा के तौर पर लोकप्रिय हो गए, लेकिन बिरसा की ये चमत्कारिक लोकप्रियता अंग्रेजों को हजम नहीं हो रही थी.

ऐसे हुई थी बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी

बिरसा मुंडा काफी समय तक तो पुलिस की पकड़ में नहीं आ रहे थे. इसे लेकर ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ जानकारी देने और पकड़वाने में मदद करने के लिए ईनाम की घोषणा कर दी. इसके लालच में आकर उनके किसी करीबी ने ही अंग्रेजी हुकूमत की मदद की. जिसके बाद उन्हें 3 मार्च 1900 को गिरफ्तार कर लिया गया और ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 2 साल की सजा सुना दी. लगातार जंगलों में भूखे-प्यासे भटकने की वजह से वह कमजोर हो चुके थे. आखिरकार 9 जून 1900 को अंग्रेजों के अत्याचार झेलते-झेलते जेल में ही बिरसा की मौत हो गई लेकिन बिरसा मुंडा के विचार आज भी लोगों को हमेशा संघर्ष की राह दिखा रहा है. महज 25 साल की उम्र में बिरसा मुंडा ने जल, जंगल और जमीन को लेकर जिस क्रांति का आगाज किया, वह आज भी आदिवासियों को आगे बढ़ने की राह दिखा रहा है. आदिवासी समाज के अलावा पूरे झारखंड में उन्हें भगवान का दर्जा मिला हुआ है. आदिवासियों के कल्याण के ध्येय के साथ बिहार से अलग झारखंड राज्य की स्थापना भी धरती आबा बिरसा मुंडा की जयंती पर की गई है.

Last Updated : Nov 15, 2020, 9:28 AM IST
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