रांची: कभी झारखंड का जंगल बाघ की दहाड़ से गूंजता था और यहां हजारों की संख्या में बाघ मौजूद थे. लेकिन, आजादी के बाद बाघ का इस कदर शिकार हुआ कि अब इनकी संख्या न के बराबर हो गई है. कभी-कभार बाघ के पैरों के निशान दिख जाते हैं लेकिन आधिकारिक रूप से जंगल में बाघ की पुष्टि नहीं है. पलामू का जंगल कहने को तो टाइगर रिजर्व है लेकिन पिछले कई महीनों से यहां किसी भी बाघ को नहीं देखा गया है.
आज अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस है और झारखंड के साथ-साथ देश में बाघों की संख्या क्यों घटती चली गई, इसे लेकर हमने वाइल्ड लाइफ एक्सपर्ट और बाघों के संरक्षण के लिए लंबे समय से काम कर रहे डीएस श्रीवास्तव से बात की. बाघों के शिकार और उसके अंगों की तस्करी क्यों की जाती है, डीएस श्रीवास्तव ने इसकी पूरी जानकारी दी.
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दवा बनाने के लिए होता है बाघ के अंगों का इस्तेमाल
बाघ के सभी अंगों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में लाखों की बोली लगाई जाती है. यहां तक की बाघ की पूंछ और मूंछों की भी कीमत काफी ज्यादा होती है. बाघ के सभी अंगों का उपयोग दवा बनाने के लिए किया जाता है. चीन और अमेरिका के अलावा जापान, ताइवान, साउथ कोरिया, वियतनाम और हॉन्गकॉन्ग में भी बाघ के अंगों का व्यापार होता है. इसके अलावा कई तांत्रिक बाघ के खाल का उपयोग तंत्र-मंत्र के लिए करते हैं.
बाघ की आंखों से एक खास तरह की दवा बनाई जाती है जिससे मिर्गी की बीमारी का इलाज किया जाता है. बाघ के दिमाग से आलसपन और फुंसी(Pimples) की दवा बनाई जाती है. मूंछों से बनी दवा से दांत दर्द का इलाज किया जाता है. इसके अलावा बाघ की हड्डियों से एक खास तरह की दवा बनाई जाती है जिसका इस्तेमाल गठिया के रोगों के इलाज में किया जाता है. बाघ की पूंछ से त्वचा के रोगों (Skin Disease) का इलाज किया जाता है. यही वजह है कि बाघों का शिकार किया जाता है और उसके अंगों की तस्करी होती है.
हड्डियों से बनाई जाती है शराब
बाघ की हड्डियों से विशेष किस्म की शराब बनाई जाती है. इसे फेंगुइन फॉर्मूला कहते हैं. इसमें चीनी हर्ब से तैयार शराब को चार महीने तक बाघ की हड्डियों के साथ मिलाकर रखा जाता है. इससे शराब में एक विशेष गुण विकसित हो जाता है जिसे यूरोपीय देशों में खूब पसंद किया जाता है. इसे टाइगर वाइन कहते हैं. यह भी कहा जाता है कि इस शराब की पीने से पुराने दर्द खत्म हो जाते हैं. डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि टाइगर वाइन में यह लिखा होता है कि यह शराब शिकार किए गए बाघ की हड्डियों से बनाया गया है क्योंकि शिकार किए गए बाघ की हड्डियों की कीमत काफी ज्यादा होती है. कोई बाघ मरा हुआ मिलता है तो उसके अंगों की कीमत कम मिलती है.
1951 के बाद हुआ अंधाधुंध शिकार
डीएस श्रीवास्तव बताते हैं कि देश की आजादी के पहले राजा ही बाघ का शिकार करते थे. इसमें भी राजाओं ने कई तरह के नियम बना रखे थे. बाघिन और बच्चों का शिकार नहीं किया जाता था. सिर्फ नर बाघ का ही शिकार होता था. आजादी के बाद 1951 में सरकार ने राजाओं के सभी जंगलों को रिजर्व कर लिया. जब राजाओं के हाथ से जंगल निकल गया तब वैसे लोग जिन्होंने अपनी इच्छाएं दबा रखी थी, उन्होंने भी बाघों का शिकार करना शुरू कर दिया.
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देश में 1951 से 1971 तक बाघों का अंधाधुंध शिकार हुआ. बेतहाशा शिकार का नतीजा यह रहा कि वन्य जीव घटने लगे. इसके बाद केंद्र सरकार ने 1972 में भारतीय वन्य जीव संरक्षण अधिनियम पारित किया था. इसका मकसद वन्यजीवों के अवैध शिकार, मांस और खाल के व्यापार पर रोक लगाना था. इसके बाद भी शिकार कम नहीं हुआ और बाघ के अंगों की लगातार लगातार तस्करी होती रही. दुनिया में ड्रग्स और हथियारों के बाद सबसे ज्यादा जंगली जीवों के अंगों की तस्करी होती है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसका कारोबार करीब 6 बिलियन डॉलर का है.
11 साल पहले अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाने का लिया गया था निर्णय
वर्ष 2010 में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया था. इस सम्मेलन में 29 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था. इस सम्मेलन में 13 देशों ने भाग लिया था और 2022 तक बाघों की संख्या को दोगुना करने का लक्ष्य रखा गया था.