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तुलसी के नीचे मां के जलाए गए दीये का तोड़ नहीं, माटी के दीये की रोशनी का कोई जोड़ नहीं!

'जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए' कवि गोपाल दास नीरज की ये पंक्तियां आज के संदर्भ में सटीक बैठती है. दिवाली छठ या किसी भी अवसर पर एक दिन तो हम अपने घरों के जगमग कर देते हैं लेकिन, वास्तव में देखें तो हम अंधेरे में है. क्योंकि चकाचौंध और आधुनिकता के इस युग में हम अपने संस्कृति से दूर हो रहे हैं. (Significance of earthen diyas at Diwali) दीपावली के अवसर पर पढ़िए खास रिपोर्ट 'एक दीया माटी का'.

Significance of earthen diyas at Diwali
Significance of earthen diyas at Diwali
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Published : Oct 19, 2022, 9:38 PM IST

रांची: 'जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए' कवि गोपाल दास नीरज ने इन पंक्तियों को उन भावनाओं के साथ उद्धृत किया था, जिसमें दीपावली के दिन दीया जलाने की परंपरा पूरे देश में है. लेकिन, जिस तरह से देश को जगमगाना है उसमें भय, भूख और भ्रष्टाचार को कोई जगह नहीं मिली उसे भी धरती से हटा देना है (Significance of earthen diyas at Diwali).

इसे भी पढ़ें: Diwali Markets: त्योहारों पर सजे राजधानी के बाजार, महंगे हो गए ये सामान

पर्व हमारी संस्कृति और संस्कृति से संस्कार: दीपावली अंधेरा मिटाकर उजाले की तरफ जाने का त्योहार है, जिसमें इस बात को बताया जाता है की धरती से असत्य मिलता है और जब सत्य आता है तो असीम उजाला फैला जाता है. भारतीय व्यवस्था में पर्व हमारी संस्कृति है. उस संस्कृति से हम संस्कार को पाते हैं और एक संस्कार ही राष्ट्र को बड़ा बनाता है. हम दीपावली मनाने जा रहे हैं मन में उत्साह भी है, जोश भी क्योंकि पिछले 2 साल से करोना ने मानवीय व्यवस्था को रोक रखा था लेकिन अब देश इससे उभर रहा है. दीपावली पर हमें अपने अंदर एक ऐसे संस्कृति को पैदा करने की जरूरत है जो अंधेरे से उजाले की तरफ जाती है.



हिंदुस्तान की सनातनी परंपरा: चौराहे पर बैठे दीपावली के लिए सजे बाजार पर निगाह पड़ते ही अचानक माटी का वह दीया दिख गया जिसकी रोशनी ने विकास को इतना बड़ा बनाया है. आज जरूरतें अलग हैं और उन जरूरतों के लिए लोग तैयारी भी अलग तरीके से ही करते हैं लेकिन, जो दीया माटी का उजाला दे जाता है. वह संभवतः पूरी कायनात को बदलने की हिम्मत दे जाता है. क्योंकि माटी के दीए में ही वह दम है जो हमें हमारी संस्कृति से जोड़े रखता है और विकृति से मुक्त रखता है. जो माटी से अलग जाकर सोचने की भी हिम्मत नहीं देती और यही हिंदुस्तान की सनातनी परंपरा है. जो सड़क के किनारे दूसरे के घर को उजाला देने के लिए माटी उस रूप में भी खड़ी रहती है और माटी से जुड़कर के जो उजाला मिलता है, वह पूरे समाज में एक मिसाल खड़ी कर दी है.



माटी से हमारा दैहिक संबंध: दरअसल, यह संदर्भ ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में चर्चा के उस आधार पर भी है, जिसमें प्रधानमंत्री ने अपने सैनिक शक्ति को बढ़ाने की बात कहते हुए, यह बताने की भी कोशिश की है कि भारत आगे बढ़ रहा है. तो आपको मिर्ची नहीं लगनी चाहिए. अब संभव है कि माटी की मजबूती देश के लिए गौरवान्वित होने का विषय है और माटी के मजबूत होने का जो विकास है वो किसी भी चमक से बड़ा होता है. देश में चर्चा में रहा चाइनीज झालर, कई घरों पर रोशनी खूब करते हैं. घर चमकाते भी हैं लेकिन इससे सिर्फ भौतिक संदर्भ ही स्थापित होते हैं. दैहिक संबंध तो दूरी बना लेते हैं. माटी से हमारा दैहिक संबंध है.



तुलसी के नीचे मां के जलाए गए दीये का तोड़ नहीं: यह प्रसंग आपके सामने इसलिए भी है कि 24 को दीपावली है. आपने अपने लिए योजना भी बना ली होंगी कि दीपावली में घर को किस तरह सजाना है. लेकिन एक तैयारी और जो आंगन में तुलसी के पेड़ के साथ है, जो सनातनी उजाले के तौर पर हमारे साथ चली आ रही है. घर को सजाने के लिए लगने वाली झालर, लाइट सब कुछ तुलसी के पेड़ के नीचे मां के मिट्टी के उस दीये का कोई तोड़ नहीं निकाल पाती है, जो माटी से जुड़े हुए सांस्कृतिक पहनावे को उजाले का रंग देती है. सोचना यहीं से शुरू करना है कि आखिर देश को किस रोशनी में नहाना है. देश को किस रंग से रखना है, देश को कौन सा उजाला देना है.



माटी का दीया या फिर झालर: विकल्प बहुत सारे हैं लेकिन, संकल्प तो बस एक है कि माटी अपनी हो और जो कुछ भी हो अपनी मिट्टी का. माटी का एक दीया उजाले का वह सोपान खड़ा कर जाता है, जिसकी रोशनी से जीत पाना किसी भी झालर के बाहर की बात है. झालर तो दिखावे के आवरण की वह चादर है, जिसे चमकते हुए तो देखा जा सकता है लेकिन उससे जुड़ा नहीं जा सकता. मिट्टी का दीया उजाले का वह आदेश है, जिससे जुड़ने के बाद ही सही उजाला दिखता है. अब चुनना आपको है कि माटी के तहत सोपान वाले माटी का दीया या फिर झालर.



माटी के दीये की रोशनी का कोई जोड़ नहीं: कुम्हार की चकिया से माटी का दीया तैयार हो गया गरीबों के घर खाना बन जाए रोशनी उनके घर भी रहे. मिट्टी की मूर्ति बनकर भगवान खुद बाजार में बिकने चले आए हैं. इस सांस्कृतिक आधार का सिर्फ एक वजूद है कि माटी से जुड़े रहना है. क्योंकि चमक-दमक की चाहे जो राजनीति, चमक-दमक का चाहे जो रंग, चमक-दमक वाली चाहे जो बातें जिस रूप में रखी जाएं उठती नहीं है. क्योंकि माटी से ही जुड़ जाना माटी में ही मिल जाना इस सृष्टि का अंतिम सत्य है. देश के गौरव और अस्मिता की जो लड़ाई अपने दुश्मनों को देने के लिए छोड़ी गई है और जिससे दुश्मन नतमस्तक भी हैं. उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी मां की से जुड़ा रहना है और उसके लिए जरूरी सिर्फ एक ही चीज है. एक दीया माटी का जरूर साथ कर लीजिए आलिंगन क्योंकि सांस्कृतिक पर्व वाले इस संस्कार का मिट्टी से जो दैहिक संबंध अपना है, वह पूरे विश्व को इस बात के लिए तो डरा ही दिया है, माटी ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया है क्योंकि, अपने माटी के दीये की रोशनी का कोई जोड़ है ही नहीं. आप सभी को ईटीवी भारत की तरफ से दीपावली की बहुत सारी शुभकामनाएं.

रांची: 'जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए' कवि गोपाल दास नीरज ने इन पंक्तियों को उन भावनाओं के साथ उद्धृत किया था, जिसमें दीपावली के दिन दीया जलाने की परंपरा पूरे देश में है. लेकिन, जिस तरह से देश को जगमगाना है उसमें भय, भूख और भ्रष्टाचार को कोई जगह नहीं मिली उसे भी धरती से हटा देना है (Significance of earthen diyas at Diwali).

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पर्व हमारी संस्कृति और संस्कृति से संस्कार: दीपावली अंधेरा मिटाकर उजाले की तरफ जाने का त्योहार है, जिसमें इस बात को बताया जाता है की धरती से असत्य मिलता है और जब सत्य आता है तो असीम उजाला फैला जाता है. भारतीय व्यवस्था में पर्व हमारी संस्कृति है. उस संस्कृति से हम संस्कार को पाते हैं और एक संस्कार ही राष्ट्र को बड़ा बनाता है. हम दीपावली मनाने जा रहे हैं मन में उत्साह भी है, जोश भी क्योंकि पिछले 2 साल से करोना ने मानवीय व्यवस्था को रोक रखा था लेकिन अब देश इससे उभर रहा है. दीपावली पर हमें अपने अंदर एक ऐसे संस्कृति को पैदा करने की जरूरत है जो अंधेरे से उजाले की तरफ जाती है.



हिंदुस्तान की सनातनी परंपरा: चौराहे पर बैठे दीपावली के लिए सजे बाजार पर निगाह पड़ते ही अचानक माटी का वह दीया दिख गया जिसकी रोशनी ने विकास को इतना बड़ा बनाया है. आज जरूरतें अलग हैं और उन जरूरतों के लिए लोग तैयारी भी अलग तरीके से ही करते हैं लेकिन, जो दीया माटी का उजाला दे जाता है. वह संभवतः पूरी कायनात को बदलने की हिम्मत दे जाता है. क्योंकि माटी के दीए में ही वह दम है जो हमें हमारी संस्कृति से जोड़े रखता है और विकृति से मुक्त रखता है. जो माटी से अलग जाकर सोचने की भी हिम्मत नहीं देती और यही हिंदुस्तान की सनातनी परंपरा है. जो सड़क के किनारे दूसरे के घर को उजाला देने के लिए माटी उस रूप में भी खड़ी रहती है और माटी से जुड़कर के जो उजाला मिलता है, वह पूरे समाज में एक मिसाल खड़ी कर दी है.



माटी से हमारा दैहिक संबंध: दरअसल, यह संदर्भ ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में चर्चा के उस आधार पर भी है, जिसमें प्रधानमंत्री ने अपने सैनिक शक्ति को बढ़ाने की बात कहते हुए, यह बताने की भी कोशिश की है कि भारत आगे बढ़ रहा है. तो आपको मिर्ची नहीं लगनी चाहिए. अब संभव है कि माटी की मजबूती देश के लिए गौरवान्वित होने का विषय है और माटी के मजबूत होने का जो विकास है वो किसी भी चमक से बड़ा होता है. देश में चर्चा में रहा चाइनीज झालर, कई घरों पर रोशनी खूब करते हैं. घर चमकाते भी हैं लेकिन इससे सिर्फ भौतिक संदर्भ ही स्थापित होते हैं. दैहिक संबंध तो दूरी बना लेते हैं. माटी से हमारा दैहिक संबंध है.



तुलसी के नीचे मां के जलाए गए दीये का तोड़ नहीं: यह प्रसंग आपके सामने इसलिए भी है कि 24 को दीपावली है. आपने अपने लिए योजना भी बना ली होंगी कि दीपावली में घर को किस तरह सजाना है. लेकिन एक तैयारी और जो आंगन में तुलसी के पेड़ के साथ है, जो सनातनी उजाले के तौर पर हमारे साथ चली आ रही है. घर को सजाने के लिए लगने वाली झालर, लाइट सब कुछ तुलसी के पेड़ के नीचे मां के मिट्टी के उस दीये का कोई तोड़ नहीं निकाल पाती है, जो माटी से जुड़े हुए सांस्कृतिक पहनावे को उजाले का रंग देती है. सोचना यहीं से शुरू करना है कि आखिर देश को किस रोशनी में नहाना है. देश को किस रंग से रखना है, देश को कौन सा उजाला देना है.



माटी का दीया या फिर झालर: विकल्प बहुत सारे हैं लेकिन, संकल्प तो बस एक है कि माटी अपनी हो और जो कुछ भी हो अपनी मिट्टी का. माटी का एक दीया उजाले का वह सोपान खड़ा कर जाता है, जिसकी रोशनी से जीत पाना किसी भी झालर के बाहर की बात है. झालर तो दिखावे के आवरण की वह चादर है, जिसे चमकते हुए तो देखा जा सकता है लेकिन उससे जुड़ा नहीं जा सकता. मिट्टी का दीया उजाले का वह आदेश है, जिससे जुड़ने के बाद ही सही उजाला दिखता है. अब चुनना आपको है कि माटी के तहत सोपान वाले माटी का दीया या फिर झालर.



माटी के दीये की रोशनी का कोई जोड़ नहीं: कुम्हार की चकिया से माटी का दीया तैयार हो गया गरीबों के घर खाना बन जाए रोशनी उनके घर भी रहे. मिट्टी की मूर्ति बनकर भगवान खुद बाजार में बिकने चले आए हैं. इस सांस्कृतिक आधार का सिर्फ एक वजूद है कि माटी से जुड़े रहना है. क्योंकि चमक-दमक की चाहे जो राजनीति, चमक-दमक का चाहे जो रंग, चमक-दमक वाली चाहे जो बातें जिस रूप में रखी जाएं उठती नहीं है. क्योंकि माटी से ही जुड़ जाना माटी में ही मिल जाना इस सृष्टि का अंतिम सत्य है. देश के गौरव और अस्मिता की जो लड़ाई अपने दुश्मनों को देने के लिए छोड़ी गई है और जिससे दुश्मन नतमस्तक भी हैं. उसके लिए सिर्फ और सिर्फ अपनी मां की से जुड़ा रहना है और उसके लिए जरूरी सिर्फ एक ही चीज है. एक दीया माटी का जरूर साथ कर लीजिए आलिंगन क्योंकि सांस्कृतिक पर्व वाले इस संस्कार का मिट्टी से जो दैहिक संबंध अपना है, वह पूरे विश्व को इस बात के लिए तो डरा ही दिया है, माटी ने अपना कमाल दिखाना शुरू कर दिया है क्योंकि, अपने माटी के दीये की रोशनी का कोई जोड़ है ही नहीं. आप सभी को ईटीवी भारत की तरफ से दीपावली की बहुत सारी शुभकामनाएं.

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