रांचीः प्रदेशभर में सरहुल की पूजा को लेकर श्रद्धालुओं में उत्साह है. सभी सरना स्थलों पर रात में जल रखाई की रस्म अदा की गई. आज सुबह 10 बजे तक घरों की पूजा संपन्न करने के बाद दोपहर में सरना स्थल से शोभा यात्रा निकाली जाएगी.
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आदिवासियों का त्योहार सरहुल, कृषि आरंभ करने का उत्सव है. इस त्योहार को सरना के सम्मान में मनाया जाता है. सरना वह पवित्र कुंज है, जिसमें कुछ शालवृक्ष होते हैं, यह पवित्र पूजन स्थान है. निश्चित दिन गांव के पुरोहित सरना पूजन करते हैं. इस अवसर पर मुर्गा की बलि दी जाती है और हड़िया (चावल से बनाया गया मद्य) का अर्घ्य दिया जाता है. आदिवासी, चाहे वो पास के नगरों में, असम के चाय-बगानों में या पश्चिम बंगाल की जूट-मिलों में काम करने गये हों, सरहुल के समय घर जरूर आते हैं. लड़कियां ससुराल से मायके लौट आती हैं, ये लोग अपने घरों की लिपाई-पुताई करते हैं. मकानों की सजावट के लिए दीवारों पर हाथी-घोड़ों, फूल-फल के रंग-बिरंगे चित्र बनाते हैं.
सरहुल की शोभा यात्रा के दिन खा-पीकर, मस्त होकर घंटों तक इनका नाचना-गाना अविराम चलता है. ऐसा लगता है कि मानो जीवन में उल्लास-ही-उल्लास है, सुख-ही-सुख है. ऐसे अवसर पर लोगों के बीच आए उन्हें लगता है कि ना जीवन में दुख है, ना शोक है, ना रोग है, ना बुढ़ापा है, जो कुछ सुख है. बस वह इस मिट्टी के जीवन में है और उस सुख की एक-एक बूंद निचोड़ लेना ही जैसे इनका लक्ष्य हो. नाच-गान से गांव-गांव, गली-गली, झूम उठता है. इस अवसर पर युवक-युवतियां, स्त्री-पुरुष नगाड़े, ढोल और बांसुरी पर थिरक-थिरककर नाचते है और आनंद-विभोर हो उठते हैं. ये पर्व धरती माता को समर्पित है. यह पर्व प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष के तृतीय से शुरू होकर चैत्र पूर्णिमा के दिन संपन्न होता है और इसी दिन से आदिवासियों का नव वर्ष शुरू हो जाता है.