रांचीः झारखंड में नक्सल और राजनीति का साथ चोली-दामन का हो गया है. नक्सली जिस तरीके से झारखंड में काम कर रहे हैं और राजनीति दलों के लोग जिस तरीके से बयान दे रहे हैं दोनों में विरोधाभास नजर आ रहा है. आम जनमानस को नक्सलवाद के दर्द की अंतिहीन कथा में सिर्फ जीवन की बेबसी ही दिख रही है. इसके अलावा झारखंड के हिस्से में अगर कुछ आता है तो अपने शहीदों को कंधे पर ले जाने की कहानी, जो अलग-अलग मायनों में अलग-अलग जुबान से कही जाती है. राजनीति दलों के लोग जो कहते हैं, नक्सली उसके इतर ही चलते रहे हैं. झारखंड में दावा नक्सलवाद को खत्म करने का किया जाता है जबकि नक्सली सरकार समनान्तर सत्ता चलाने की हनक दिखा देते हैं.
14 अगस्त की घटना नक्सल अभियान पर सवालः झारखंड में 14 अगस्त की रात जिस तरीके से नक्सलियों ने तांडव मचाया उसमें हमारे जवानों की शहादत ने एक बार फिर नक्सल अभियान पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है. झारखंड के दो जवानों के शहीद होने के बाद कई चर्चाएं फिर एक बार नक्सलवाद को लेकर के शुरू हो गई है.
बुनियाद की चर्चा किए बगैर आसमान के बात बेईमानीः नक्सल आंदोलन और नक्सलियों की विचारधारा पर काम कर चुके नीरज कुमार "बिसेन" ने बताया कि बुनियाद की चर्चा किए बगैर आसमान की बात हमारे राजनीति दलों के लोग करने लगते हैं. यही वजह है कि आज तक नक्सल पर जो कहा गया उसके ठीक उलट कारनामे दिखते हैं. पहाड़ पर नक्सलियों के एक कॉरिडोर को खत्म कर यह कहानी देश से लेकर राज्य तक कही जाने लगी कि हमने नक्सल पर कब्जा कर लिया है. इस तरह के बयानबाजी से बहर निकलकर जमीनी हकीकत को देखना होगा.
झारखंड में नक्सल मुक्ति के दावों की हकीकतः बूढ़ापहाड़ को नक्सलियों से कब्जा मुक्त कराया गया तो देश के गृह मंत्री अमित शाह से लेकर के राज्य के मुख्यमंत्री तक यह बात कहने लगे कि 30 साल से नक्सल की जिस नासूर को झारखंड झेलते आया था हमने उससे झारखंड को मुक्त करा दिया, लेकिन जिस मुक्ति का दावा किया गया उसकी हकीकत क्या है? यह ना तो राजनीति दलों के लोग सुनना चाहते हैं और ना इससे कोई मतलब है. उनको इससे अपनी राजनीतिक रोटी सेंकनी है. इससे ज्यादा राजनीति दलों को लोग कुछ कर भी नहीं रहे हैं. जिन्हें इस से ज्यादा कुछ करने का काम दिया गया है, वे इसी तरीके से काल कलवित होते रहेंगे.
नक्सलियों द्वारा किए गए नुकसान की कितनी भरपाई हुईः नीरज कुमार ने कहा कि जिस झारखंड से नक्सली को खत्म करने के दावे किए जा रहे हैं क्या सचमुच नक्सलियों के अब तक के आतंक को पूरे तौर पर मुक्त कर दिया गया, लेकिन सरकारी आंकड़े में 551 पुलिसकर्मियों के शहीद होने की बात कही जा रही है और लगभग 2000 आम नागरिक भी इस लड़ाई में मारे गए हैं. अब सवाल यह उठ रहा है कि जिस आंकड़े को राजनीति करने वाले लोग कहते हैं, उन्हें इस बात का जवाब देना होगा कि नक्सलियों ने जो नुकसान किया है क्या राजनीति दलों के लोगों और सरकार ने उसकी भरपाई कर दी है. अगर उस नुकसान की भरपाई नहीं हुई तो आम आदमी सरकार की व्यवस्था से दूर नक्सलियों को ही अपना आइकॉन मानती रहेगी.
सत्ता पाने के लिए बयानबाजी, नहीं निकला नक्सल का हलः सियासत की सबसे बड़ी बेबसी यही है कि सत्ता पाने की राजनीति में नेता को बयान देना होता है, जो बहुत समय तक टिकने वाला नहीं होता है. नीरज कुमार कहते हैं कि जितने वर्षों की कहानी नक्सल की बताई जाती है उसमें नक्सलियों ने जितने घर उजाड़ दिए क्या वह घर बना दिए गए, नक्सलियों ने जितने पुल-पुलिया को उड़ाया क्या सभी पुल बना दिए गए, नक्सलियों ने जितने स्कूल उड़ाए उनमें क्या पढ़ाई शुरू हो गई. जल, जंगल और जमीन पर जिन का हक है क्या सरकार उसका कब्जा उन्हें दिलवा पायी. यह कई ऐसे सवाल हैं जिस पर ना तो राजनीति दलों को लोग ठीक से बयान देंगे और ना ठीक से सवालों के उत्तर. एक-दूसरे पर आरोप लगाकर फेंका-फेकी करने की सियासत हमारे देश में चली आ रही है और यही वजह है कि नक्सली जब भी अपनी बंदूक से गोली फेंकते हैं तो शहादत की एक बड़ी कहानी हमारे यहां लिखी जाती है.
अमित तिवारी की शहादत के बाद उठने लगे सवालः नक्सल पर नकेल की जितनी भी कहानी राजनेताओं के द्वारा अपनी लाइन में बताई जाती है उन सभी पर अमित तिवारी की शहादत ने एक ऐसी अमिट लाइन खींच दी जो बयानों से नहीं मिटाई जा सकती. जो लोग नक्सली का दंश झेलते रहे हैं, उनके मन में नक्सली पीड़ा से निकलने का एक जज्बा दिख रहा है. यही वजह है कि बूढ़ापहाड़ पर तिरंगा यात्रा वहां के बच्चों के द्वार निकाली गई है. 15 अगस्त को हाथों में तिरंगा लेकर बच्चों ने यह बताने की कोशिश की कि हमें नक्सली की जरूरत नहीं है और न ही नक्सलवाद की जरूरत है.
आधी जीत पर वाहवाही लूटने की सियासतः 15 अगस्त को ही तिरंगे में लिपटकर जो लोग लौटे वह एक उदाहरण हैं और झारखंड के उस नक्सलनामे की जो पूरी व्यवस्था को मुंह चिढ़ा रहा है. बेबसी की राजनीति करने वाले नेताओं के बयानों में झारखंड के लिए नक्सल के नाम पर रोने की एक और अंतहीन कथा लिख दी है. अब हमें बदलना होगा, बदलाव लाना होगा और इसे बगैर सियासत के करना होगा, तभी सही मायने में नक्सलियों पर जीत हो पाएगी. अगर यह नहीं हुआ तो सियासत हमेशा की तरह आधी जीत पर पूरी वाहवाही लूटने की कहानी कहती रहेगी और देश में अमित तिवारी जैसे कई बलिदान देते रहेंगे और उनके लिए शहादत की धुन बजती रहेगी.