रांची: दुर्गोत्सव में महालया का खास महत्व होता है. इसी दिन पितृपक्ष के समापन के साथ देवी पक्ष की शुरुआत होती है. माना जाता है कि इस दिन मां अंबे की प्रतिमा में मूर्तिकार मां का नेत्रदान करते हैं अर्थात आंखों का निर्माण करते हैं. आंखों के निर्माण के साथ मां अंबे की प्रतिमा की साज-सजावट शुरू हो जाती है. पुरोहितों की मानें तो यह परंपरा आदि काल से ही चली आ रही है. रांची में भी मूर्तिकारों ने यह परंपरा निभाते हुए महालया के अवसर पर मूर्ति में नेत्र दान किया.
महालया की क्या है धार्मिक मान्यता
धार्मिक मान्यता ऐसी है कि शारदीय नवरात्र में मां दुर्गा कैलाश पर्वत से उतर कर अपने मायके पृथ्वी पर आती है. उनके आगमन की खुशी में महालया के दिन आगोमनी गान और चंडी पाठ से उनका स्वागत करने की प्राचीन परंपरा है. महालया के दिन ही पितृ पक्ष के समापन के साथ ही देवी पक्ष की शुरुआत हो जाती है और मां की प्रतिमा पर मूर्तिकार नेत्र दान करते हैं.
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महालया के दिन से शुरू होती है शुभ तिथि
पुरोहितों की मानें तो पितृपक्ष होने के कारण महालया के दिन तमाम असुरी शक्तियां जागृत रहती हैं और जैसे ही देवी पक्ष की शुरुआत होती है, वे नष्ट हो जाते हैं. मूर्तिकार मां को नेत्र दान करते हैं क्योंकि महालया के दिन से शुभ तिथि शुरू हो जाती है. वहीं षष्टी के दिन मां की प्रतिमा को मंडप में स्थापित किया जाता है और कलश स्थापना की जाती है. षष्टी के दिन विश्व के तमाम देवी-देवताओं का आवाहन होता है. उस दिन मूर्तिकार मां का नेत्र दान नहीं कर सकते हैं क्योंकि शक्ति की प्राण-प्रतिष्ठा से पहले ही नेत्रदान की परंपरा है.